जय गुरुदेव,
जीवन के चारो पुरुषार्थ में अर्थ की भूमिका पुरितन काल से महत्वपूर्ण रही है. मैं यहाँ बस यही कहना चाह रहा हूँ की धन की भूमिका मानव जीवन में सभी कालो में मान्य रही है. चाहे इसके द्वारा ऐश्वर्या प्राप्ति की बात हो ,या सुखों के उपभोग की .या फिर समाज में अपना वर्चस्व बनने की.
और इस बात को हमारे ऋषियों ने बहुत पहले ही समझ लिया था और उन्होंने अपने तंत्र बल और योग-बल के द्वारा ब्रह्माण्ड से धन प्राप्ति के लिए विभिन्न साधनों का ज्ञान प्राप्त किया . उनके द्वारा ज्यामितीय रूप में उन शक्तियों का बंधन यंत्रों के रूप में अपना मनोरथ सिद्ध करने के लिए किया गया.
वैसे तो जीवन के प्रत्येक पक्षों को सबलता प्रदान करने के लिए विभिन्न यंत्रों का प्रचलन साधक समाज में है. पर जहा बात धन और श्री की प्राप्ति के लिए की जा रही हो वहा बरबस ही लोगों का ध्यान श्रीयंत्र की और चला ही जाता है.आखिर जाए भी क्यूँ न, श्रीयंत्र के द्वारा जो उन्नति होती है वो स्थायी भी होती है और धर्म सम्मत भी .पर सिर्फ़ श्री प्राप्त करमा ही तो सब कुछ नही है न………….
उच् कोटि के तांत्रिक इस बात को भी भली भांति जानते थे की ऐश्वर्या तो हो पर वो शत्रु,राज्य-बढ़ा( मुकदमा आदि) ,तथा रोगों से भी मुक्त होना चाहिए न……..
और इस के लिए एक अपराजेय प्रहरी और रक्षक के रूप में भला भगवान् भैरव से बेहतर कौन हो सकता है .भले ही लोग भैरव को उग्र मानते हों ,पर कम लोगो को ही ये बातें पता होगी की भैरव के सर्वाधिक वरदायक और पूर्ण अभय युक्त ऐश्वर्या देने वाला रूप स्वर्नाकर्षण भैरव है,जिनकी साधना पुरितन काल से ही साधकों से साधकों के मध्य ही चली आ रही है ,इस लिए आज भी ये साधना अपने मूल रूप में सुरक्षित है .ये साधक जीवन का सौभाग्य ही होता है की ऐसी दिव्या साधना उसे प्राप्त हो ,और ,सदगुरुदेव ने शिष्यों को किसी भी सौभाग्य से वंचित नही किया .उन्होंने एक पूरा शिविर ही स्वर्नाकर्षण भैरव के ऊपर लगाया था,और उन रहस्यों को विवेचित व प्रकट किया था जो दुर्लभ व सामान्य रूप से अगम्य हैं. उसी दौरान उन्होंने बताया था की यदि किसी कारणवश कोई इस साधना को नही भी कर पता है तब भी यदि वो मात्र स्वर्नाकर्षण भैरव यन्त्र की स्थापना ही अपने सध्नाकक्ष .पूजा-स्थल या फिर व्यापारिक प्रतिष्ठान पर कर लेता है तब भी वो पूर्ण लाभ प्राप्त कर लेता है . उन्होंने इस यन्त्र के रहस्यों की गुत्थी को खोलते हुए बताया था की ये यन्त्र एक अद्विय्तिया यन्त्र है,जिसके प्रत्येक अक्षर-वर्ण और बिन्दु का महत्व है. इसके चार भागो में ४ पंचदशी यन्त्र अंकित होते हैं( प्रत्येक दिशा में अलग-अलग वर्णों केक्रम से पंचदशी यन्त्र अंकित होता है) जो इस बात का प्रतिक हैं की साधक को समस्त विश्व की सम्पदा एक स्थान से नही अपितु चरों दिशाओं से प्राप्त होगी,कोई बढ़ा,कोई शत्रु उसके उद्देश्य में बाधक नही हो सकते.
चरों कोनो में श्रीम रुपी महा लक्ष्मी का बीज अंकित है ,जो धन को अखंडता प्रदान करता है. ऊपर और नीचे मिलकर चारो कोनो में ॐ का अंकन पूर्णता,श्रेष्टता और सफलता का सूचक है.जिससे भोग और मोक्ष एक साथ सहज प्राप्त है.भोतिक दृष्टि से १६ उपलब्धि प्राप्त होती है धन,धान्य,भूमि,उत्तम भवन,सामाजिक कीर्ति, पूर्ण-आयु,अखंड यश,मानसिक शांती, वाहन,पुत्र,पुत्र,राज्य-उन्नति,उत्तम स्वस्थ्य,निरंतर प्रगति,निश्चित सफलता,जीवन में पूर्णता.
आध्यात्मिक दृष्टि से भी १६ उपलब्धियां प्राप्त होती है.प्रेम,दया,स्नेह,अपनत्व,ममत्व,द्रवित ह्रदय,मानसिक शांती,अखंड-समाधि,ज्ञान,चिंतन, कुंडली जागरण, एकात्म-भाव, इश्वर-दर्शन,तटस्थता,आत्म-संयम,वसुधैव-कुटुम्बकम भाव की प्राप्ति.
येही ३२ कलाएं हैं जिनसे परिपूर्ण मनुष्य पूर्ण गुणों युक्त कहलाता है.यन्त्र के मध्य में वृत्त और उसके बीच में चौकोर फिर पुनः वृत्त का तात्पर्य पूरे ब्रह्माण्ड में निहित शक्तियों को अपने में समाहित कर सिद्ध होने का भाव है. इनमे अंकित अक्षर समस्त ब्रह्माण्ड को अवलोकित करने का भाव है या दूसरे शब्दों में समस्त चक्रों का भेदन कर सहस्त्रार प्राप्त करने की क्रिया है. मध्य स्थान से चारों तरफ़ निकले त्रिशूल विश्व की रक्षा और आत्म-बल द्वारा विश्व कल्याण की भावना से संगुम्फित है.
इस प्रकार ये यंत्रात्मा को परमात्मा में विलीन करने तथा ब्रह्माण्ड की सिद्धियों को समाहित करने की क्रिया है.इसके प्रयोग द्वारा साधक मिटटी के धेले को भी स्वर्ण में परिवर्तित कर अतुलनीय संपदा का स्वामी बन सकता है .
तात्कालिक लाभ के लिए इनका स्थापन कर अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए कार्य अनुसार भगवान् भैरव का सात्विक,राजसिक या तामसिक ध्यान का नित्य ११ बार उच्चारण ही पर्याप्त रहता है….
सात्विक ध्यान से-अकाल-मृत्यु योग का नाश,आयु-वृद्धि, आरोग्य तथा मुक्ति प्राप्ति
राजसिक ध्यान से-धर्म,कामनाओं की पूर्ति,आर्थिक सफलता.
तामसिक ध्यान से-शत्रु कृत अभिचार का निवारण,शत्रुओं पर विजय मुक़दमे में सफलता.भूत-प्रेत बढ़ा से मुक्ति और सिद्धि/
इसी प्रकार जो अपने जीवन में व्यवसाय या जॉब में लगातार उन्नति चाहते हैं ,वे यदि ५-११ बार इस यन्त्र के सामने कनक-धारा स्तोत्र का पथ यदि करते हैं तो होने वाले परिवर्तन को अति शीघ्र स्वयं ही देख कर आश्चर्य चकित रह जायेंगे. जिन साधको को पारद विज्ञानं में सफलता पानी है उन्हें तो यह साधना करनी ही चाहिए. बात सिर्फ़ पढने की नही अपितु अपनाकर देखने की है अन्यथा…….
अपनी कुंडली देख कर अपने भाग्य पर रोने के आलावा कोई उपाय नही रह जाएगा. वैसे भी समस्याओं की चर्चा पर ध्यान देकर समय बेकार करने से कही बेहतर उसका समाधान करना है,अब मर्जी है आपकी ,आख़िर जीवन है आपका.
आपका ही
जीवन के चारो पुरुषार्थ में अर्थ की भूमिका पुरितन काल से महत्वपूर्ण रही है. मैं यहाँ बस यही कहना चाह रहा हूँ की धन की भूमिका मानव जीवन में सभी कालो में मान्य रही है. चाहे इसके द्वारा ऐश्वर्या प्राप्ति की बात हो ,या सुखों के उपभोग की .या फिर समाज में अपना वर्चस्व बनने की.
और इस बात को हमारे ऋषियों ने बहुत पहले ही समझ लिया था और उन्होंने अपने तंत्र बल और योग-बल के द्वारा ब्रह्माण्ड से धन प्राप्ति के लिए विभिन्न साधनों का ज्ञान प्राप्त किया . उनके द्वारा ज्यामितीय रूप में उन शक्तियों का बंधन यंत्रों के रूप में अपना मनोरथ सिद्ध करने के लिए किया गया.
वैसे तो जीवन के प्रत्येक पक्षों को सबलता प्रदान करने के लिए विभिन्न यंत्रों का प्रचलन साधक समाज में है. पर जहा बात धन और श्री की प्राप्ति के लिए की जा रही हो वहा बरबस ही लोगों का ध्यान श्रीयंत्र की और चला ही जाता है.आखिर जाए भी क्यूँ न, श्रीयंत्र के द्वारा जो उन्नति होती है वो स्थायी भी होती है और धर्म सम्मत भी .पर सिर्फ़ श्री प्राप्त करमा ही तो सब कुछ नही है न………….
उच् कोटि के तांत्रिक इस बात को भी भली भांति जानते थे की ऐश्वर्या तो हो पर वो शत्रु,राज्य-बढ़ा( मुकदमा आदि) ,तथा रोगों से भी मुक्त होना चाहिए न……..
और इस के लिए एक अपराजेय प्रहरी और रक्षक के रूप में भला भगवान् भैरव से बेहतर कौन हो सकता है .भले ही लोग भैरव को उग्र मानते हों ,पर कम लोगो को ही ये बातें पता होगी की भैरव के सर्वाधिक वरदायक और पूर्ण अभय युक्त ऐश्वर्या देने वाला रूप स्वर्नाकर्षण भैरव है,जिनकी साधना पुरितन काल से ही साधकों से साधकों के मध्य ही चली आ रही है ,इस लिए आज भी ये साधना अपने मूल रूप में सुरक्षित है .ये साधक जीवन का सौभाग्य ही होता है की ऐसी दिव्या साधना उसे प्राप्त हो ,और ,सदगुरुदेव ने शिष्यों को किसी भी सौभाग्य से वंचित नही किया .उन्होंने एक पूरा शिविर ही स्वर्नाकर्षण भैरव के ऊपर लगाया था,और उन रहस्यों को विवेचित व प्रकट किया था जो दुर्लभ व सामान्य रूप से अगम्य हैं. उसी दौरान उन्होंने बताया था की यदि किसी कारणवश कोई इस साधना को नही भी कर पता है तब भी यदि वो मात्र स्वर्नाकर्षण भैरव यन्त्र की स्थापना ही अपने सध्नाकक्ष .पूजा-स्थल या फिर व्यापारिक प्रतिष्ठान पर कर लेता है तब भी वो पूर्ण लाभ प्राप्त कर लेता है . उन्होंने इस यन्त्र के रहस्यों की गुत्थी को खोलते हुए बताया था की ये यन्त्र एक अद्विय्तिया यन्त्र है,जिसके प्रत्येक अक्षर-वर्ण और बिन्दु का महत्व है. इसके चार भागो में ४ पंचदशी यन्त्र अंकित होते हैं( प्रत्येक दिशा में अलग-अलग वर्णों केक्रम से पंचदशी यन्त्र अंकित होता है) जो इस बात का प्रतिक हैं की साधक को समस्त विश्व की सम्पदा एक स्थान से नही अपितु चरों दिशाओं से प्राप्त होगी,कोई बढ़ा,कोई शत्रु उसके उद्देश्य में बाधक नही हो सकते.
चरों कोनो में श्रीम रुपी महा लक्ष्मी का बीज अंकित है ,जो धन को अखंडता प्रदान करता है. ऊपर और नीचे मिलकर चारो कोनो में ॐ का अंकन पूर्णता,श्रेष्टता और सफलता का सूचक है.जिससे भोग और मोक्ष एक साथ सहज प्राप्त है.भोतिक दृष्टि से १६ उपलब्धि प्राप्त होती है धन,धान्य,भूमि,उत्तम भवन,सामाजिक कीर्ति, पूर्ण-आयु,अखंड यश,मानसिक शांती, वाहन,पुत्र,पुत्र,राज्य-उन्नति,उत्तम स्वस्थ्य,निरंतर प्रगति,निश्चित सफलता,जीवन में पूर्णता.
आध्यात्मिक दृष्टि से भी १६ उपलब्धियां प्राप्त होती है.प्रेम,दया,स्नेह,अपनत्व,ममत्व,द्रवित ह्रदय,मानसिक शांती,अखंड-समाधि,ज्ञान,चिंतन, कुंडली जागरण, एकात्म-भाव, इश्वर-दर्शन,तटस्थता,आत्म-संयम,वसुधैव-कुटुम्बकम भाव की प्राप्ति.
येही ३२ कलाएं हैं जिनसे परिपूर्ण मनुष्य पूर्ण गुणों युक्त कहलाता है.यन्त्र के मध्य में वृत्त और उसके बीच में चौकोर फिर पुनः वृत्त का तात्पर्य पूरे ब्रह्माण्ड में निहित शक्तियों को अपने में समाहित कर सिद्ध होने का भाव है. इनमे अंकित अक्षर समस्त ब्रह्माण्ड को अवलोकित करने का भाव है या दूसरे शब्दों में समस्त चक्रों का भेदन कर सहस्त्रार प्राप्त करने की क्रिया है. मध्य स्थान से चारों तरफ़ निकले त्रिशूल विश्व की रक्षा और आत्म-बल द्वारा विश्व कल्याण की भावना से संगुम्फित है.
इस प्रकार ये यंत्रात्मा को परमात्मा में विलीन करने तथा ब्रह्माण्ड की सिद्धियों को समाहित करने की क्रिया है.इसके प्रयोग द्वारा साधक मिटटी के धेले को भी स्वर्ण में परिवर्तित कर अतुलनीय संपदा का स्वामी बन सकता है .
तात्कालिक लाभ के लिए इनका स्थापन कर अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए कार्य अनुसार भगवान् भैरव का सात्विक,राजसिक या तामसिक ध्यान का नित्य ११ बार उच्चारण ही पर्याप्त रहता है….
सात्विक ध्यान से-अकाल-मृत्यु योग का नाश,आयु-वृद्धि, आरोग्य तथा मुक्ति प्राप्ति
राजसिक ध्यान से-धर्म,कामनाओं की पूर्ति,आर्थिक सफलता.
तामसिक ध्यान से-शत्रु कृत अभिचार का निवारण,शत्रुओं पर विजय मुक़दमे में सफलता.भूत-प्रेत बढ़ा से मुक्ति और सिद्धि/
इसी प्रकार जो अपने जीवन में व्यवसाय या जॉब में लगातार उन्नति चाहते हैं ,वे यदि ५-११ बार इस यन्त्र के सामने कनक-धारा स्तोत्र का पथ यदि करते हैं तो होने वाले परिवर्तन को अति शीघ्र स्वयं ही देख कर आश्चर्य चकित रह जायेंगे. जिन साधको को पारद विज्ञानं में सफलता पानी है उन्हें तो यह साधना करनी ही चाहिए. बात सिर्फ़ पढने की नही अपितु अपनाकर देखने की है अन्यथा…….
अपनी कुंडली देख कर अपने भाग्य पर रोने के आलावा कोई उपाय नही रह जाएगा. वैसे भी समस्याओं की चर्चा पर ध्यान देकर समय बेकार करने से कही बेहतर उसका समाधान करना है,अब मर्जी है आपकी ,आख़िर जीवन है आपका.
आपका ही
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