Sunday, January 31, 2010

श्वेत बिंदु,रक्त बिंदु रहस्य-३


अभिभूत ही हो गया था मैं उस अद्भुत दृश्य को देखकर , मुझे कभी सदगुरुदेव ने बताया था की कायाकल्प के रहस्यों की तलाश में सिर्फ एक रस् शास्त्री ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक भी लगे हुए हैं, और ये सत्य ही है की हमारे समृद्ध आयुर्वेद में ही इस विद्या का रहस्य छुपा हुआ है , चाहे निर्गुण्डी कल्प की बात हो, अंकोल कल्प की बात हो, या फिर सिद्ध श्रीमोदक , इन सबके मूल में ही पारद कही न कही दृश्य या अदृश्य रूप में विराजमान है . कायाकल्प का चिंतन भी इसके बिना संभव नहीं है. और कहा भी गया है की.............
वो सृजनकर्ता ,वो परम तत्व रस ही तो है . और यही वजह है की जीवन में पूर्णता की बात हो तो उसमे रस का समावेश करना ही पड़ेगा. और रस शब्द ही व्यापक अर्थ लिए हुए है . विद्या, मान-सम्मान, धन ,निरोगी काया आदि उसी रस का रूप है ...... रस युक्त वो परम शक्ति ,माँ पराम्बा, आदि शक्ति सरस्वती के रूप में उपास्य हैं.
खैर उस दृश्य को देखने के बाद मुझे श्वेत बिंदु और रक्त बिंदु के रहस्य को समझने की कही अधिक बैचेनी थी .......... जब हम फिर साथ में बैठे तो मैंने बगैर देर करे कहा की ... आप मुझे कुछ बता रहे थे . तो उन्होंने कहा की अरे धीरज धरो एक रस शास्त्र के पथिक को इतना व्याकुल नहीं होना चाहिए . जब सदगुरुदेव ने यहाँ भेजा है तो मैं तुम्हे शांत कर के ही यहाँ से भेजूंगा .हाँ तो मैं
श्वेत बिंदु और रक्त बिंदु के बारे में बता रहा था. निश्चय ही अब तक तुम समझ ही गए होगे की श्वेत बिंदु शिव वीर्य या पारद को कहते हैं ,पर अलग अलग सम्प्रदाय में इसके जो भिन्न भिन्न नाम रखे गए हैं उनके पीछे बहुत गूढ़ रहस्य हैं जो मैं वार्तालाप के मध्य तुम्हे बताता रहूँगा.
अब जो मैं बताने जा रहा हूँ वो ध्यान से सुनो और आत्म-सात करो क्यूंकि यही आंतरिक कीमिया की वास्तविक कुंजी है और रस-सिद्धों का परमलक्ष्य भी............
पशुं और मनुष्यों में क्या अंतर है ,क्या तुम जानते हो ?????
पशु को समय का आभास नहीं होता ,उसे ये मालूम नहीं होता है की समय के साथ साथ उसकी अवस्था में क्या परिवर्तन होता जा रहा है ,मनुष्य को समय का आभास भी होता है और होने वाले परिवर्तन की जानकारी भी . अब हम समय को जी रहे हैं या समय हमें ये कहना तो मुश्किल है एक सामान्य मनुष्य के लिए......
हम कालाग्नि में प्रतिक्षण जलते जा रहे हैं और हमें इसका पता भी नहीं लगता. ये कालाग्नि समय का ही रूप है और समय आत्मा का ही पर्याय है . हमारी दृष्टि क्षुद्र होती है अर्थात हमें एक निश्चित दूरी तक ही दिखाई देता है .या ये कह लो की वर्तमान काल में भी सिर्फ वर्तमान का वर्तमान ही दृश्यमान होता है. वो व्यतीत वर्तमान और अनागत वर्तमान को भी नहीं देख पाता. यही कारण है की कालाग्नि उसे जलती रहती है .भूत और भविष्य तो उसकी कल्प्नादृष्टि से भी परे है . तब ऐसे में पैदा होना और मर जाना ही उसकी नियति बन जाता है . लेकिन समय को पकड़ कर यानि अपने आत्म-ज्ञान को चैतन्य कर जो तीनों कालों को दृष्टि पथ पर सदैव बनाये रखता है , उसे भली भांति देख लेता है, वो कर्म के फलाफल से परे हो जाता है तब वो जीवन तो जीता है लेकिन दृष्टा बनकर कठपुतली बनकर नहीं, कालाग्नि उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाती. ये अवस्था सिद्ध की होती है . अब या तो यहाँ रुक जाओ या इसके आगे बढ़ जाओ . इस जीवन से परे विगत जीवन या आगत जन्म को भी जो जान लेता है और आत्मज्ञान को उस स्तर पर ले जाता है जहाँ वो उन जन्मो के रहस्य से न सिर्फ अवगत हो जाता है बल्कि आत्म-प्रकाश में उन कर्म-फलों को भस्मी भूत कर कल्याणकारी हो जाता है ,ये अवस्था महासिद्ध अवस्था कहलाती है . पर जो सभी जन्मों से परे जाकर अपने मूल बिंदु को ही देख लेता है अर्थात उद्गम को ही खोज लेता है और अपने आत्म-प्रकाश को परम प्रकाश में बदल देता है ,तब उसकी विराटता से समस्त ब्रह्माण्ड ही आलोकित हो जाता है ,सर्व जन्म रहस्यों से परे ये परम ज्योति रहस्य को प्राप्त कर लेने की अवस्था ही परम सिद्ध अवस्था कहलाती है ,जहा वो ही कर्ता,वो ही पालक और वो ही विलय कारक हो जाता है. वो समय प्रभाव में नहीं आता बल्कि उसे समय अर्थात आत्मा का मूल ही ज्ञात हो जाता है और ज्ञान हो जाता है उस आत्मा की परिपूर्णता की.
वैसे तो तीनो ही स्तर पर आप को निर्जरा देह की प्राप्ति हो जाती है पर, वासना शरीर से ऊपर उठकर ज्ञान देह या देह विहीन देह दिव्य देह की प्राप्ति साधक के स्वचिन्तन का विषय है ..........
अब आप ये कहोगे की श्वेत बिंदु और रक्त बिंदु का इस बात से क्या लेना देना है .... तो आप ये समझ लीजिए की आत्मा को ही पारद या बिंदु कहा गया है, कालाग्नि से परे तो आप तभी जा सकते हैं जब आप की पकड़ आत्मा पर हो या ये कहे की आपकी आत्मा प्रकाशित हो , क्यूंकि देखने के लिए प्रकाश का होना अनिवार्य है . और आत्म प्रकाश में ही तो आप इस जीवन के तीनो कालो , या पूर्व जन्म, पुनर्जन्मों के कर्मो या उससे भी परे आत्म-उद्गम और गमन के रहस्यों को जान पाते हैं. पहले स्तर पर आपकी क्षुद्रता का त्याग हो जाता है और आप विराटता की और कदम बढ़ा देते हैं अंतिम अवस्था में आप स्वयं अपनी विराटता को जान जाते हैं.
और ये क्रिया असंभव भी नहीं है यदि हम श्वेत बिंदु का आश्रय ले लें तो......
इतना कहकर महानुभाव चुप हो गए ..........
मैंने कहा की ये बात तो सत्य है की रस के आश्रय को लेकर ही हम रसमय अर्थात पूर्ण हो सकते हैं पर ये क्रियात्मक रूप से कैसे संभव है???????????
उन्होंने कहा की सदगुरुदेव ने इस रहस्य को समझते हुए कहा था की “पूर्ण संस्कार युक्त पारद से जिसमे समस्त रत्नों का जारण और चारण किया गया हो ,दिव्य ओषधियों तथा सिद्धौश्धियों से जिसका मर्दन किया गया हो ऐसे पारद से अद्भुत संयोगो में पूर्ण शिव स्थापन तथा पूर्ण लक्ष्मी स्थापन क्रिया संपन्न कर रसेश्वर का निर्माण किया जाये तथा उस शिवलिंग में सप्त तत्वों “भू,भुवः,स्वः ,मह,जनः, तपः, सत्यम” का स्थापन कर यदि त्रिनेत्र मंत्र का जप किया जाये तो निश्चय ही प्राण चक्षु जाग्रत हो जाते हैं . और तब साधक के लिए विगत और आगत दोनों ही जन्म सहज दृश्य मान हो जाते हैं , न सिर्फ अपना बल्कि अन्य लोगो का भी.
ऐसे रसेश्वर को स्पर्श करते हुए जिस भी देवता का आवाहन किया जाता है ,वे प्रत्यक्ष होते ही हैं, पहले बिम्बात्मक और उच्च स्थिति में पूर्ण प्रत्यक्ष भी ,और ऐसा होता ही है .
ऐसे ही विग्रह पर आप बिंदु साधना, नाद साधना,दिव्य साधना,अक्षुण साधना,सिद्ध साधना,परमेष्ठी साधना,चिन्तापुर्ती साधना,अदृष्ट साधना, सिद्धाश्रम साधना,निरंजन साधना और परम साधना कर महा सिद्ध और परम सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं. इन साधनों का महत्व तो वही जान सकता है जिसने इन्हें प्राप्त किया हो ,एक एक साधनाएं बेशुमार मोतियों से तोलने योग्य हैं. किसी भी एक साधना से जीवन परिवर्तित हो जाता है और देखने के लिए मिल जाती है एक नवीन आत्म-दृष्टि.
ये पारदेश्वर वस्तुतः आपका ही आत्म रूप होता है जिसे पिंड या विग्रह रूप में आप स्थापित करते हो, जिन सप्त लोकों के बारे में मैंने ऊपर बताया है वो सप्त तत्व आपके सप्त शरीर का ही तो प्रतिनिधित्व करते हैं .जिनका सम्बन्ध जैसे ही रस-लिंग से होता है आपका रस ,आपका बिंदु भी चैतन्य होते जाता है .और जैसे जैसे उसकी चैतन्यता बढती जाती हैं वैसे वैसे आपका आंतरिक कायाकल्प होते जाता है और दीर्घायुष्य के साथ प्राप्त होता है दृष्टा भाव भी.
यदि साधक ऐसी साधना नहीं भी कर पाए तो भी अकाल मृत्यु, अकाल कष्ट से मुक्ति तथा ऐश्वर्य युक्त जीवन तो मिलता ही है . एक भी उदाहरण मैंने अपने जीवन में नहीं देखा जब मेरे सद्गुरुवर के ये वचन मिथ्या हुए हों. शर्त बस यही है की रस-लिंग वैसा ही बना होना चाहिए जैसा की ऊपर वर्णित है .
(यहाँ एक बात बताना मैं अपना धर्म समझता हूँ की मैंने ऐसा ही रस-लिंग स्थापित किया है और आज जो भी कुछ मुझे मिला है वो इन्ही रस लिंगम के आशीर्वाद से ही है )

पुनः वार्ता को आगे बढ़ाते हुए महानुभाव कहने लगे की श्वेत बिंदु का ही दूसरा रूप व्योम तंत्र या व्योम विज्ञानं है जिसके द्वारा आकाश गमन और पक्ष्छेदन की क्रिया संपन्न होती है . तथा संपन्न होती है महा अचरजकारी “क्षं” गुटिका की प्राप्ति जो अन्य लोको से आपका संपर्क कर देती है........

अगले लेख में श्वेत बिंदु और रक्त बिंदु के द्वारा चक्र भेदन की गोपनीय प्रक्रिया का विश्लेषण ......

****आरिफ****

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