सदगुरुदेव के सानिध्य में मैं निःसंकोच अपनी जिज्ञासाओं को उनके समक्ष रख देता था और बहुतेरे बार तो जिज्ञासाओं को रखने के पहले ही उनका समाधान उनके द्वारा मुझे दे दिया जाता था . ऐसे ही एक अवसर पर जब मैं उनके श्री चरणों में बैठा था तब मैंने उनके समक्ष अत्यंत ही विनीत भाव से अपने प्रश्न को रखा- की गुरुदेव शिष्यता का मापदंड क्या है ?
कैसे सही अर्थों में शिष्य कालंजयी हो सकता है?
और कब उसकी शिष्यता सार्थक होती है ?
काल का अर्थ क्या होता है?
क्या हम काल पर विजय पा सकते हैं?
ये कहकर मैं चुप चाप उनके अद्भुत तेजस्विता से भरे चेहरे की और देखने लगा.
तब सदगुरुदेव ने मुझे प्यार से मेरी जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा की – वास्तव में शिष्य बनना या शिष्यत्व के गुणों को प्राप्त कर पाना अत्यधिक कठिन है , यही वजह है की बहुत से साधक आवेश में दीक्षा तो ले लेते हैं लेकिन शिष्यत्व की भावभूमि पर उनकी चेतना स्थिर ही नहीं होती है और इसी कमी के कारण उनका जीवन पूर्णत्व नहीं प्राप्त कर पाता.
ये तो हम सभी जानते हैं की मनुष्य शरीर का निर्माण पञ्च महाभूतों से होता है अर्थात पृथ्वी,तेज,गगन,वायु और जल से इस शरीर का निर्माण हुआ है . परन्तु ये निर्माण शारीरिक स्तर पर हुआ रहता है और जब तक इन महाभूतों को पञ्च तत्वों से योग नहीं कराया जाता , तब तक आत्मिक विकास या मानसिक विकास नहीं हो पाता . बल्कि ये समझ लो की यदि जीवन में पंचमहाभूतों का संस्कार नहीं हो पाता तो साधक या व्यक्ति सामान्य स्तर पर ही जीवन जीता रहता है और अन्न मय कोष पर ही उसका जीवन टिका रहता है , और अन्नमय कोष के मूल में होती है दमित वासनाएं . यदि साधक सच में जीवन में उच्चता प्राप्त करना चाहता है, पूर्णत्व प्राप्त करना चाहता है तो उसे अन्नमय कोष से प्राणमय कोष और वहाँ से भी मनोमय कोष में अपने आपको पंहुचा कर अवस्थित होना पड़ता है .
वेद
पुराण
उपनिषद
स्मृति
श्रुति
ये पञ्च तत्व हैं जिनके द्वारा शरीर के निर्माण मूल पंचमहाभूतों का संस्कार किया जाता है , यहाँ पर इन पञ्च तत्वों का लौकिक नहीं बल्कि गूढतम पक्ष समझना ज्यादा अनिवार्य है .
वास्तव में वेद का जो अर्थ हम समझते हैं , वेद तो अत्यधिक गूढतम हैं और वर्तमान में जो वेद प्रचलित हैं इनका भी तो क्रियात्मक पक्ष गोपनीय ही रखा गया है. इनके उच्च मन्त्रों को गुह्यतम रूप से कूट भाषा में ही रखा गया है जिससे की अपात्र इसका दुरूपयोग न कर सके . ठीक इसी प्रकार पुराण और उपनिषदों के भी सार को समझ कर प्रयोग किया जाये न की पढकर . वेद अपौरुषेय हैं अर्थात इनका निर्माण किसी मनुष्य या देवी देवता ने नहीं किया है , उपनिषद उन वेदों की व्याख्या है जिससे की जन सामान्य उन वेदों में छुपे गुप्त और महाप्रभाव्कारी ज्ञान से अपने आपको जोड़ सके और उन्हें समझ सके . परन्तु वास्तव में हम जो अर्थ वेद, पुराण, उपनिषद का समझते हैं वो आभास मात्र हैं. क्यूंकि इन्हें समझने के लिए हमें श्रुत बनना पड़ेगा.
यदि मैं श्रुति को सामान्य शब्दों में परिभाषित करूँ तो वो ये है की- किसी महापुरुष से उने अनुभवों को सुनना और पूर्ण रूपें आत्मसात कर लेना श्रुति है और इस सुनी बात को बगैर क्रियान्वित करे आगे हम जो कहते हैं वो स्मृति होती है . हम जो ग्रहण करते हैं और फिर हमसे आगे जो ग्रहण करता है उसमे बहुत अंतर होता है .
आपकी बातें तभी तक स्मृति रहती है जब तक आप उसे ठीक उसी प्रकार से अनुभूत नहीं करते जैसे की वो आपको मिली थी थी और यदि हम उन्हें पूर्ण अनुभूत करके आगे पहुचाते हैं तो वे भी स्मृति न होकर श्रुति ही तो बन जाती है.
सही अर्थों में ज्ञान को पूर्णता के साथ पी जाने की क्रिया ही श्रुति कहलाती है
हमारे देश का दुर्भाग्य ही ये रहा है की हम श्रुतियों के सहारे नहीं स्मृतियों के सहारे जी रहे हैं. मतलब हमारा कुछ भी अनुभूत किया हुआ नहीं है अपितु हमने जो अपने पूर्वजो से सुना है बस उसी मिथ्या अभिमान अहंकार में निरंतर डूबे हुए हैं. यदि हमारा देश सोने की चिड़िया था तो उस बात को पहले खुद परखते फिर बताते लेकिन हमने कभी गुरु के ज्ञान और चिंतन को प्रयोगात्मक रूप से आत्मसात करने की कोशिश ही नहीं की , और इसका मूल कारण था की हम स्मृतियों में जीते हैं श्रुतियों में नहीं . आज धर्म का जो विकृत स्वरुप है वो स्मृतियों की वजह से ही है. जैसा उस धर्म प्रवर्तक ने कहा हमने उसका वो अर्थ नहीं लगाया जो की उनका चिंतन था बल्कि उस श्रुति को अपने विचारों से जोड़ कर स्मृति में परिवर्तित कर दिया .
आध्यात्म का पतन भी तो इसी कारण से है, यदि भगवन कृष्ण ने गीता में जो कहा और हमने उसे पूर्ण रूपें श्रुति किया तो उसकी विभिन्न अर्थ लिए हुए हजारों टीकाओं का अर्थ क्या है , इसका तो एक ही अर्थ है की हमने उसका अपने अपने अनुसार अर्थ निकाला है और यदि ऐसा किया है तो जो अर्थ हमारे सामने है उसका हमारे लिए क्या महत्त्व? क्यूंकि तब वो टीका तो हमारे लिए स्मृति हो गयी है. और हम बगैर भगवान कृष्ण के मूल चिंतन को समझे कैसे उस गीता के भावार्थ को समझ पाएंगे. हम शिष्य बनने का ढोंग करते हैं पर जो गुरु का चिंतन होता है , उनकी मूल अवधारणा को बगैर पूर्ण आत्मसात करे , बगैर उस क्रिया को समझे आगे फैलाते हैं , जिससे क्रियात्मक दोष होना स्वाभाविक है और मूल धारण की आत्मा तो समाप्त प्रायः ही समझो.
जीवन में जब हमारे पंचमहाभूतों का संस्कार हो जाता है तभी हमारे अणु,परमाणु चैतन्य हो पाते हैं और हम गुरु की चेतना से एकाकार होते हुए , उनके समस्त ज्ञान को आत्मसात करते हुए पूर्णत्व प्राप्त कर पाते हैं , क्यूंकि तब हम ज्ञान को प्राप्त नहीं करते अपितु ज्ञान को समाहित करती है हमारी प्राणश्चेतना.
शिष्य बनने के लिए तीन आवश्यक तथ्य होते हैं. मनुष्य होना,मुमुक्ष होना और सद्गुरु की प्राप्ति होना.
वेदों, पुराणों,उपनिषदों,स्मृतियों को पूर्णरूपेण उनके सही चिंतन के साथ तभी आत्मसात किया जा सकता है जब हम सही श्रुति बने हो. जीवन का सौभाग्य होता है सही श्रुति बनना , पूर्णत्व तभी प्राप्त हो सकता है. श्रुति से ही चैतन्य और जाग्रत हुआ जा सकता है . हम जब इन पञ्च महाभूतों के संस्कार से युक्त हो जाते हैं तो गुरु और हम्मे कोई भेद नहीं रहता . सीधा संपर्क स्थापित होने से क्रियाओं का प्रामाणिक ज्ञान हमें ज्ञात होता है फिर गुरु चाहे कही भी हो . फिर कोई और इष्ट नहीं होता हम स्वयं ही इष्ट होते हैं स्वयं ही झरना होते हैं. फिर गुरु वाक्यों का, वेदों का, कोई और अर्थ नहीं निकलता, बल्कि हम उनके मूल चिंतन को ही आत्मसात करते हैं और प्रयोगात्मक रूप से उसमे सफलता भी प्राप्त करते ही हैं. परन्तु शिष्यत्व को तभी प्राप्त किया जा सकता है जब अहंकार को पूर्णरूपेण त्याग कर गुरु चरणों में साधक जाये और पूर्ण मुमुक्ष बनकर अपने आपको गुरु चरणों में प्रस्तुत करे , जब गुरु के चरणों में सभी तीर्थ दृश्यमान हो.और हमारे पंचमहाभूतों का संस्कार हम उनके कर कमलों से करवा सके . तभी हम पूर्ण श्रुति बन पाते हैं और श्रुति बनकर सार को ह्रदयंगम करके उसी सार को आगे प्रवाहित कर पाते हैं, तब श्रीती की क्रिया सिर्फ कानो से नहीं होती बल्कि पंचो कर्मेन्द्रिय और पंचो ज्ञानेन्द्रियाँ उस ज्ञान को सुनकर आत्मसात कर क्रियान्वित कर लेती हैं.तभी सही शिष्यत्व प्राप्त होता है और साधना के सभी गुह्य पक्ष खुल जाते हैं जिससे पूर्णता प्राप्त होती ही है.
और रही बात काल की या कालंजयी बनने की तो इसके लिए सबसे पहले तंत्र को समझना होगा.
तंत्र देववाद पर नहीं चलता बल्कि वो मनुष्य को शुरू से ही शक्ति का उपासक बना देता है . क्यूंकि ये मूल तथ्य है की या तो आप विभिन्न देवों की पृथक उपासना करते हुए आखिर में उस परमशक्ति की उपासना करो जिनकी उपासना सम्पूर्ण देव शक्तियां या त्रिदेव भी करते है . या फिर सीधे ही गुरु चरणों का आश्रय लेकर उस परमशक्ति का सानिध्य प्राप्त कर लो . इसे ऐसे समझों की हम किसी भी देवता की साधना क्यूँ करते हैं. उससे शक्ति की प्राप्ति के लिए ही ना. और तुम्हे वो शक्ति कहाँ से देगा???? उसी परम शक्ति से प्राप्त करके. तो जब शक्ति प्राप्ति का मूल स्त्रोत वही परम शक्ति है तो फिर सीधे सीधे उसी परम शक्ति की साधना करना क्या उचित नहीं होगा.
तंत्र सिर्फ दो जाति को मानता है स्त्री और पुरुष. और पुरुष को भी समस्त क्षमताओं की प्राप्ति उसी परम शक्ति से ही होती है देखो विष्णु को पालन की , ब्रह्मा को सृजन की और महेश को संहार की शक्ति उसी पराम्बा से प्राप्त होती है अर्थात सभी की मूल प्रकृति के सभी क्षेत्रों में वही पराम्बा केंद्रस्थ हैं. तंत्र पशु भाव से ऊपर उठकर वीरभाव तक पहुचने की क्रिया है और ये यही नहीं रूकती बल्कि वीरभाव से भी ऊपर उठाकर साधक को देवत्व पद पर अवस्थित कर देता है. यही मानव जन्म की सार्थकता है . जब हम अपने अस्तित्व के मूल तक पहुचकर अपना विस्तार अखिल ब्रह्माण्ड में कर दे . परन्तु इस अनुभव को परिभाषित नहीं किया जा सकता , ये अनुभव काल अर्थात समय और स्थान की सीमा से परे है.
इसे तभी समझा जा सकता है जब हम अपने मन को पूर्ण विकसित कर ले , और ऐसा तभी संभव हो पाता है जब हम गुरु निर्दिष्ट प्रक्रियाओं को और मन्त्र को जप करे . ये मन्त्र अपने भीतर की सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत कर देते हैं . तथा व्यक्तिगत चेतना को नयी दिशा देता है . ये एक महत्वपूर्ण तथ्य है जब भी हम किसी मन्त्र का उच्चारण करते हैं तो वो ध्वनि किसी न किसी मात्रा में उर्जा उत्पन्न करती है तथा निर्दिष्ट ज्यामितीय आकार भी निर्माण करती है जिसको की सामान्य नेत्रों से देख पाना संभव नहीं है . ये आकृतियाँ काल्पनिक नहीं होती है.
तांत्रिक प्रक्रियाओं में अपनी भावनाओं और संस्कारों को दबाया नहीं जाता है अपितु इन्हें स्वीकार कर लिया जाता है , क्यूंकि तंत्र जानता है की इन्हें दबाने से साधक विभिन्न मानसिक रोगों से ग्रस्त हो सकता है. मन के बंधनों को तोडकर उसे स्वछंद गति में विस्तृत करना ही तो तंत्र का मूल लक्ष्य है. सभी बंधनों, पाशों से मुक्त कर स्वयं की उर्जा से युक्त करना ही तंत्र का उद्देश्य है और इसी उर्जा से तो ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुयी है . उर्जा का प्रवाह उसी प्रनाश्चेतना के बिंदु से होता है और ये हम जानते हैं की बिंदु का विस्तार ही तो ब्रह्माण्ड है . बिंदु को जैसे जैसे बढ़ाते हैं तो जो वृत्त बनता है उसी वृत्त की परिधि में समय(काल), अंतराल,लक्ष्य और भावातीत चेतना होती है. और केंद्र का बिंदु उस परम शक्ति का प्रतिक है जिससे अतिन्द्रियता की प्राप्ति होती है .
मन के अंतर्गत ही ये काल और अंतराल आते हैं , वस्तुतः ये दोनों ही बहुत दूर दूर हैं, एक इस छोर पर है तो दूसरा दुसरे छोर पर . एक शिव का प्रतिक है तो दूसरा शक्ति का . जब हम शरीरस्थ बिंदु का योग त्रिकुट से अपनी प्राणश्चेतना के बल पर करते हैं या ये कहे की उस बिंदु को उर्ध्व गति देते हैं तो त्रिकूट पर काल और अंतराल अर्थात शिव और शक्ति दोनों का ही योग हो जाता है ,और जैसे ही योग होता है एक तीव्र विस्फोट होता है जिससे निसृत उर्जा से मन के असंख्य टुकड़े होते हैं और ये प्रत्येक कण एक नवीन ब्रह्माण्ड को जन्म दे सकते हैं. यही विस्तार तो साधक को ब्रह्माण्ड स्वरुप ही कर देता है जो की तंत्र का परम लक्ष्य होता है . और यही काल पर विजय प्राप्त कर कालंजयी हो जाने की स्थिति होती है. जहा साधक सर्वसमर्थ होने के बाद भी प्रकृति का सहचर ही होता है और उसका सहयोग ही करता है , अब ये साधक के ऊपर होता है की वो इस कालंजयी अवस्था में अपने आपको कितना विस्तारित कर पाता है .
क्या इसके लिए कोई विशेष क्रिया है????? मैंने पुनः प्रश्न किया .
हाँ है क्यूँ नहीं , एक विशेष मंत्र को नित्य प्रति दो घंटे तक एकाग्र मन से जप किया जाये और ऐसा २१ दिन तक करके सद्गुरु के चरणों में उपस्थित होकर पंचमहाभूत संस्कार दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की जाये तो करुणाशील सद्गुरु शिष्य को इस मंत्र से सम्बंधित पंचमहाभूत दीक्षा दे कर पूर्णत्व के पथ पर आगे बढ़ाते ही हैं, फिर कोई तंत्र कोई पद्धति गुप्त नहीं रह पाती उस साधक से . सफलता को वरन करना ही पड़ता है उस साधक का और वो सही मायने ने श्रुति बन पाता है , तब गुरु से दूरी और काल का कोई अर्थ नहीं रहता साधक के समक्ष , वो कभी भी कही भी सीधे उनसे ज्ञान को प्राप्त कर सकता है और सही मायने में शिष्यत्व की पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेता है.
तब उन्होंने मुझे उस मंत्र को प्रदान किया और उचित समय पर उस अद्भुत पंचमहाभूत संस्कार दीक्षा को प्रदान कर कृतार्थ किया . आज जो भी मेरे पास है उसका आधार है ये दीक्षा और ये अद्भुत मंत्र. अज्ञात रहस्यों का एक नवीन पृष्ठ ही खुला था उस दिन मेरे सामने. मैं उस पूर्ण प्रामाणिक मंत्र को भी सदगुरुदेव से प्रार्थना करके आप लोगो के समक्ष बता रहा हूँ.
मंत्र- ऐं ह्रीं क्लीं प्राण उत्थाय चैतन्य क्लीं ह्रीं ऐं फट .
मुझमे जिज्ञासा आती है तो मैं बिना किसी झिझक के अपने सद्गुरु के समक्ष उसे रख कर उसका समाधान प्राप्त करता हूँ पर आप सभी ऐसा क्यूँ नहीं करते . आज हमारे समक्ष हमारे गुरु त्रिमूर्ति है , फिर हम ऐसी अद्भुत दीक्षा के लिए क्यूँ प्रार्थना नहीं करते जिससे की जीवन में पूर्णत्व एवं सिद्धाश्रम की प्राप्ति हो जाये. क्या अब भी आप विचार करते रहेंगे!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
In Sadgurudev ji presence ,Without any hesitation simply put my question in his divine holy feet , and many times I received answer of mine queries even much before I put them. One such a occasion when I was sitting in his divine presence, very politely I asked him
“Gurudev what is the bench mark of shishyta (being a true disciple). ?
How a shishy can become kaljayi ( one who control kaal i.e .samay)?
And when his shishyta (discipleship) became reaches its truthiness in real sense.?
What is the meaning of kaal?
Can we get victory /control over kaal?
After asking the questions I was just saliently watching his face full of divine radiance .
Than Sadgurudev ji very lovingly and blissfully replied me that “ to become a shishy or to absorbs the true shishyta’s quality is very difficult ,that’s the reason many of the sadhak due to emotion take Diksha but their chetna (mental quality) does not keep stand still on the bhav bhumi of shishyta . that’s why lacking of such ability ,their life also not reach purntav (full and true meaning of life).
That we all know that human body is made of panch maha bhut ( basic five great element ) means that prathvi (earth) ,jal (water) , gagan(sky), vayu(air) ,agni(fire) . Butt his creation happened only on the physical level and till than these panch mahabhut associated with five element , spiritual or mental progress can not be possible .understand that way until that panchbhut get Sanskarised(a special way to purified) till than sadhak /person lives only on the general plain and his life is based on Annmaykosh (one of the special five body lies in human body).and his suppressed vasnaye (unfulfilled wishes )lies in base root of his Annmay kosh .if sadhak truly want to achieve highness and completeness in his life than he has to go for Annmaykosh to Pranmaykosh and from that to anomay kosh(another higher body).
Veda
Purana
Upnishad
Samiriti
Shruti
Theses are the five element by which the Sanskar of pannch mahabhut can be done . but here the true secretive aspect of theses five element is need to be understand instead of their material meaning .
In reality what we understand the meaning of veda, veda’s real meaning are very secretive, and veda that they are in existence today their kriyatmak paksha is being kept secretive. Their highly effective mantra mentioned in that very secretive way, only the reason that any misuse of that could not be possible. Like that way punished and purna should be practiced ,not only by the way of only reading. Veda are Apourushey meant that they are not made by any human nor devi , daivta .upnishad are the elaboration of veda through which general masses can associate themself with the highly effective ,secretive gyan of veda.. but in reality what we understand the meaning of vead and purna and upnishad is just a shadow .since to understand that we have to became shrut .
If I literally define what is shrut , that is .. to attentively listening the experience of any great person and absorbs that facts and experience in our life in full/true sense is shrut. And without applying the this gyan if we express others than that becomes smriti. What we have got directly and what other get from us there is much difference.
Your knowledge/talk till become smiriti until you experienced in the same way as you have been told , and after that real experiencing if we pass this gyan to other than that becomes converted to smiriti to shruti .
Any kriya (action ) by which In true and in full sense absorbing any knowledge is possible is known as shrut.
That is misfortune of this country that we are living in memory …smiriti instead of shruti .means we have not experienced any thing but what we listen from our forefather and still living and absorbing in base less ego .if our country was a golden bird then we first experience that and than we have to told /pass this too others. but we never tries to understand guru ‘s gyan and chintan (mental foresightedness ) in practically. And that happens since we live in smiriti not in shruti. Today’s dharma also in misunderstood forms only because of smiriti. What the founder had said to us ,we had not taken the meaning what he wants to say we take that according to our limited way. through adding to our limited thought to shruti we converted that in smiriti.
The downfall of spirituality also happened because of that . what Bhagvaan Krishna told us in Gita if we truly understand that , what is the necessitates of so many teekas (books containing the meaning of that ). That simply show that we have taken the meaning of his divine word through our understanding. if that happens than we is the meaning of that . than the said teeka becomes smiriti for us. Without understanding the true real managing chintan how we can understand what is the real meaning of gita.
We falsely behave that we are the shishya and without understanding/absorbing the real meaning of that if we spread that than its natural that kriyatmak dosha will come. basic root soul of that almost died.
Whenever in our life ours paanch bhut get sankarised than all our atoms energized and we through becoming one to gurus chetna achieve fullness and completeness in life than we not onl;y receive gyan but it has been absorbs in our pranschetna (soul’s ).
There are three main necessary things need to have ..be human ,be ready to learn , to have Sadgurudev.
We can only understand and absorbs in heart the true meaning of veda ,purna and upnishad only if we became truly shrut. Life get fortunate if we became shrut. and completeness can be only achieved. Through shriti , chaitnyata and jagrat ( complete awakening and mental attentiveness) can be gained. When we be with this panchch mahabhut Sanskar ,than there is no difference between him and us. Through direct contact to him , we always get the authentic gyan kriya its not the matter where our guru is .than there is no isht, we became our self isht. we our self become the fountain , than there is no other meaning of guru vaky and veda opens us since we receive their true chintan (real meaning). And practically get successful.
But shishytav only can be achieved if we set aside completely our ego and fully became mumukshu , and offer ourselves to guru’s lotus feet. and than all the holy teerth visible in his lotus feet and also through their divine hand we get sanskarised our panch bhuta. Than we became shriti and through that we absorbs essence and flow onward that essence. this shruti kriya happened not only through ear but all our five karamendriya and gyannedriya work together than true shishytav achieved all the secretive doors of sadhana opens us, than completeness finally achieved us.
And the question of kaal or becoming kaaljayi , we need to understand tantra first.
Tantra is not based on dev vaad. But in the beginning this made a person to worshipper of shakti . that’s the grass root fact that through either worshipping various different daivta and lastly worship param shakti whom tri dev also worship or directly taking help from gurus lotus feet reach to param shakti, understand this way, why we worship various different daivta just to gain shakti/power. And from where that daivta give you power? He also receive that from param shakti. So worshipping directly that pram shakti is not better.
Tantra believes in only two section man and woman. And all the power of man is also comes from the param shakti, brahma’s creative power, Vishnu caring power and destruction power of shiv where it comes from , from that param shakti . parammaba is the centre of all the shakti in universe. Rising from pashu bhav to reaching veer bhav is through a process known tantra. And that not stop here it raise sadhak upto daivtv bhav. Becoming/ reaching that is the real true meaning of being a taking birth as a human. this the fact when we raise our existence root to spread it that in whole universe. This experience can not be define ,this experience is beyond the limit of time and place.
This can only be understand when our mind reaches its completeness and this became possible only when we do kriya and mantra jap as directed by our guru, theses mantra awaken the dormant power inside us. And gives us a new direction to our mental attentiveness . this is well known fact that when we do jap of any mantra , energy gets generated in any amount .and also various geo metrical shape also created that we can not see through hour naked eyes, theses figure are not imaginary one.
In tantra kriya , it is not advocated to suppress our feeling sand wishes but to accept that since tantra knows that through suppression various mental dieses can be possible, to break all the bounding string of the mind and move freely in his way is the basic aim of tantra. To free from all the bonding and pasha and become energized through self energy is the aim of tantra. The universe is created by that energy. The flow of energy is starts from that metal awaking point and theses all we know that the expansion of bindu is the universe. When we expanse bindu the circle is created, and in the circumference of that time , gap(space),aim, bhavatit chetna (transdentional meantal attentiveness lies. And the bindu at the centre represent that pram shakti through that atiindriyta can be achived.
Time and space both are in the mind .in reality they are both apart , if one lies in the end than others on the other end. One represent shiv other is shakti. When we contact our bindy lies in physical body to our trikut though our pranuschetana ( menatal attentiveness) or say that raise bindu to upward motion than on trikut .shiv and shakti kaal and space meets . and through this meeting or adding ,a explosion occurs, by that energy ,mind /man is divided in uncountable parts. All theses single part can create a new universe. and this expansion can became a sadhak universal un limit. and that is the ultimate goal /aim of the tantra. and this stage also called kaal jayi stage. Where the sadhak after attaining all the ultimate power still behave a fellow to nature and help her. Now this depend upon the sadhak that how far he can expand himself in this kaaljayi stage.
Is that any special kriya for achieving that .i again questioned.
Yes it is why not. If daily two hours reciting/chanting of a special mantra for continuous 21 days through full concentration if any sadhak does and also reach to Sadgurudev holy feet in person and ask to have this PANCHMAHABHUT SANSKAR DIKSHA , than very compassionate Sadgurudev through giving this great Diksha to him , clears a way to go for this great holy path to become purntav. Than no kriyas related to tantra is became secretive to him. success definitely achieved by that sadhak. In real sense he became shrut ,so time and distance dose not matters for that, he can ever get directly gyan from Sadgurudev any place and any time reaches the ultimate heights of shishyta.
Than he gave me the mantra and PANCH MAHABHUT SANSKAR DIKSHA on appropriate time, the mantra still with me and the foundation of what ever achieved by me till date. new page of secretive gyan opens that day to me. I am here mentioning you the same mantra after praying to Sadgurudev ji.
Mantra :
Aing hreeng kleeng praan utthay chaitanya kleeng hreeng aing phat.
When ever any curiosity comes, without any hesitation I put in front of Sadgurudev ji and get the solution of that why all of you do not do that way. Through that completeness in life and reaching to siddhshram is possible. Still are you thinking ?
****NPRU****
PLease tell us what is the asana, DirectionStart day etc for this mantra jap?
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