“Tat Srishtitav Tad Ev Pravishtaat”
The above quote is
taken from Upnashid which means that “After creating
Universe, Brahma Ji became embedded in it” and if we look at the other
side of this quote then we all know that whole universe is embedded within us.
According to which we are time or in other words we are the Kaal itself and all
the incidents happening in this Kaal also rises within ourselves…….if we
understand it in more plainer language then we can say that “we ourselves are Brahma and we should create ourselves
considering ourselves as being present in entire universe”
In whole universe there
is only one creature which we call as Brahm …..”Never Changing Permanent
Authority!”
for which nothing concrete can be said. But whenever we are in state of deep
sleepiness then the difference between us and this
permanent authority vanishes……we also like Brahma create human, animal-world,
nature etc. in our dreams and become ourselves the scene, the one who says the
scene and vision but what happen after we get up from our sleep…..everything is
finished. It was we who slept and we who got up .The existences of universe
created by us in the dream vanishes because reality can never be deviated.
And reality is that luster present in Sun, air and water is same as that
present inside us…..i.e. Shivoham! Shivoham! Meaning that I am Shiva ….I am the
same”. We are virtue and the also the consequence of it, we ourselves are
thieves and also victim of him. The purpose behind writing all this is that you all can
imbibe today’s subject so that after doing this sadhna, while doing other
sadhnas or daily poojan, your mind remains within your control. Because the
great truth that there is no difference between us and god, but at the same
time there is also other great truth similar to the one stated in previous
sentence that at the time of doing sadhna something unusual happens with God
present inside us. At the time of doing sadhna either it starts feeling
tiredness or feeling sleepy……In such a condition we experience both laughter
and anger in same proportion.
But
in deep darkness of problem, a ray of hope/solution is hidden. The leaf falling
from the tree itself creates its own path towards the earth. In the similar
manner, we ourselves should find the solution to problem arising out of our
illusions. In the body of human, God is present i.e. we ourselves have complete
existence of our own then how one complete authority
can be divided into two parts and how it is possible that one portion who is
continuously working ( our
consciousness) does not recognize
other portion (our body).
Our
consciousness can never be separated from us, thoughts come and go but sense of
consciousness always remains. For it we should know the difference between the
unalterable existence and illusory existence. It is right that nothing real
happens in our dreams but still we are bound to happiness and sorrow. Every
incident happening in illusion of our dreams leaves a mark in our mind which
can only be got rid of by one way “If we have to save
ourselves from illusion then we should abandon all the benefits and loss
arising out of illusion”.
This
fact ,you have to follow in your sadhna life rigidly because whenever we sits
on our aasan with our purpose of sadhna, all such things happens with us , all
the things which we have never thought before ,taking the form of thoughts
happens in front of our eyes. Instead of focusing on our sadhna, we get
entangled in this illusion web of our thoughts but we should be like spider.
Like it creates web and gather it back also, in the similar manner we should
see the thoughts arising in our mind like a mute spectator. But we should not
participate in it because if we are the creator then something or the other
will be getting formed inside us. It may be in form of thoughts also, but if we
do not let thoughts to be partners in our Kriya Shakti (power to do things)
then after reaching the pinnacle these thought will vanish themselves. Ultimate
result will be one deep Samadhi (meditation) in which there is neither a feeling of happiness nor the
feeling of sorrow.
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“तत् सृष्टित्व तद इव प्रविश्तात्”
यह कथन
उपनिषद से हैं जिसका अर्थ है “ ब्रह्मांड की रचना करने के
पश्चात ब्रहमा जी इसी में समा गए “ और इसी कथन के यदि दूसरे पक्ष को देखा
जाए तो हम सब जानते हैं कि एक पूरे का पूरा ब्रह्मांड हम सब में समाया हुआ है. जिसके
अनुसार समय या यूँ कहें कि काल भी हम है और इस काल में घटित होने वाला घटनाक्रम भी
हम में ही जनम लेता है....इसे और ज्यादा सुगमता से समझा जाए तो मात्र हमको इतनी सी
बात याद रखनी है कि “ हम ही ब्रह्म है और हमें स्वयं को
समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त समझते हुए स्वयं के निर्माण का कार्य करना है “
इस पूरे ब्रह्मांड
में एक ही जीव है, जिसे ब्रह्म कहते हैं....” अपरिवर्तनीय
शाश्वत सत्ता ! “ जिसके बारे में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा
सकता. पर जब हम गहन निद्रा में होते हैं
तो हममें और इस शाश्वत सत्ता में कोई भेद नहीं रहता....हम
भी उसी ब्रह्म के समान अपने सपनों में मनुष्य, पशु-जगत, प्राकृति इत्यादि की रचना
करते हैं और खुद ही दृष्, दृष्टा और दृष्टी बन जाते हैं पर अंतः निद्रा टूटने पर
क्या होता है.....सब खत्म हम ही सोये थे और उठते भी हम ही हैं, हमारे द्वारा
स्वप्न में निर्मित ब्रह्मांड का कोई अस्तित्व नहीं रहता क्योंकि वास्तविकता कभी
विचलित नहीं होती.
और वास्तविकता यह है कि सूर्य, हवा, पानी में
वही आभा विधमान हैं जो हम में है....अर्थात शिवोहं ! शिवोहं ! यानी मैं शिव
हूँ.....वही मैं हूँ. “ पुण्य भी हम और उसका परिणाम भी हम, चोर भी हम और उसका
शिकार भी हम खुद. इतना सब लिखने का अभिप्राय यह है कि
आज का विषय आपके अंदर तक उतर जाए क्योंकि इस साधना को करने के पश्चात अन्य साधनाएं
हो या आपका दैनिक पूजन उसे करते समय आपका मानस आपके बस में रहे. क्योंकि जितना बड़ा
सच यह है कि हममें और ईश्वर में कोई भेद नहीं है उतना ही बड़ा सच यह है कि साधना
करते समय हमारे अंदर के ईश्वर को ना जाने क्या हो जाता है. साधना के समय उसे या तो
बहुत थकान महसूस होने लगती है या नींद आने लगती है....ऐसी स्थिति में जितनी हंसी
आती है उतना ही क्रोध भी.
पर समस्या
के गहरे अँधेरे में समाधान की किरण भी छुपी होती है. पेड़ से गिरने वाला पत्ता ज़मीन
तक पहुंचने के लिए अपना मार्ग स्वयं बनाता है उसी तरह अपने भ्रम से उपजी समस्याओं
का समाधान भी हमें खुद को करते आना चाहिए. इस मनुष्य रूपी काया में ईश्वर विदमान
है मतलब हम अपने आप में एक सम्पूर्ण सत्ता है तो एक एक
सम्पूर्ण सत्ता दो हिस्सों में कैसे बाँटी जा सकती है और यह कैसे सम्भव हो सकता है
कि एक हिस्सा जो निरंतर कार्यशील है ( हमारी चेतना ) अपने ही दूसरे हिस्से ( हमारा
शरीर ) को ना पहचाने.
हमारी चेतना कभी भी हमसे अलग नहीं होती, विचार
आते रहते हैं परन्तु चेतना का बोध वही रहता है. इसके लिए अटल सत्ता और भ्रमित
सत्ता में भेद करना आना चाहिए. भले ही स्वप्न में कुछ भी असल नहीं होता पर हम तब
भी अपने सुख दुःख से बंधे रहते हैं, स्वप्न रुपी भ्रम में घटने वाली हर घटना हमारे
मानस पटल पर अपनी छाप छोडती है जिससे छुटकारा पाने का एक ही रास्ता है “ यदि भ्रम से बचना है तो भ्रम से होने वाले फायदों और नुक्सान
को तिलांजली दे दो “ .
यही एक
तथ्य आपको अपने साधनात्मक जीवन में दृढ़ता के साथ अपनाना है, क्योंकि हम जब भी
साधना करने के उदेश्य से अपने आसन पर बैठते हैं तो हमारे साथ यही सब तो होता है,
जिन चीजों के बारे में हमने कभी नहीं सोचा होता वो विचारों का रूप लेकर हमारी
आँखों के सामने घटित होने लगती हैं. साधना पर केंद्रित होने कि जगह हम विचारों के भ्रम
जाल में फंस जाते हैं, पर हमें बिलकुल मकड़ी के जैसे बनना चाहिए. जैसे वो खुद अपना
जाल बनाती है और उसे समेट भी लेती है ऐसे ही हमें भी साधना करते समय हमारे मानस
में उठने वाले विचारों को केवल एक मूक दर्शक की तरह देखना है किन्तु उसमें
भागीदारी नहीं करनी क्योंकि यदि हम सृजनकर्ता हैं तो किसी ना किसी चीज का सृजन
हमारे अंदर होता ही रहेगा फिर चाहे वो हमारे विचार ही क्यों ना हो, मगर यदि हम उन
विचारों की क्रियाशक्ति में कोई सहभागिता नहीं देंगे तो अपने चर्म पर पहुंच कर वो
विचार अपने आप खत्म हो जाएगा. जिसका नतीजा होगा एक गहरी समाधी जिसमें किसी सुख
दुःख की अनुभूति नहीं होती.
****ROZY
NIKHIL****
****NPRU****
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