जय सदगुरुदेव
स्नेहिल
स्वजन !
वो
समय आ गया है जब कि मै आरिफ जी के
पदचिन्हों पर चलते हुए आपको तंत्र मंत्र साधना और ज्ञान के अनेक आयाम जहा से हम
लोग गुजरकर यहाँ तक पहुंचे और इस राह में अनेक साधक अनेक गुरु भाई बहिन अनेक
सन्यासी साधकों ने हमारा मार्गदर्शन किया उन सबके बारे में जानना आपका अधिकार है
क्योंकि ये एक अकाट्य सत्य है कि कोई भी व्यक्ति सरलता से साधन के अयामो को बल्कि
उच्च आयामों को छू भी नहीं सकता
हम
बहुत भाग्यशाली हैं कि सदगुरुदेव परमहंस स्वामी निखलेश्वरानंद जी (डॉ नारायण दत्त
श्री माली जी) का वरद हस्त हमारे शीश पर्थ और उन्होंने प्रत्येक पल हमारी ऊँगली
थाम कर हमें इस मार्ग पर चलाया |
अपने जीवन के उन पड़ावों को (जहाँ मैंने साधना
सिद्धि प्राप्त की और जैसे मुझे गुरुदेव का मार्गदर्शन मिला साथ हि उनकी आदेश से
जिन लोगों ने मुझे सिखाया) मै एक सीरिज के माध्यम से शेअर करती जाउंगी ताकि आप भी
उस ज्ञान और उन व्यक्तित्व से परिचित हो सकें,
मैंने तंत्र को हि जिया और अभी भी तंत्र को ही जानने और समझने की कोशिश करती रहती हूँ इससे पहले कि मई अपनी यात्रा का विवरण आपसे शेअर करूँ आप सभी इसे समझे फिर आगे बढ़ेंगे
के समाधान की एक गुप्त रचना कर रखी है... या यु कहे की पहेली की रचना ही
इसीलिए हुई की वो गुप्त रचना सृष्टि में प्रथम बार घटित हो कर एक अध्याय रचने
के लिए तैयार हो सके. और इसि गुप्त रचना कों हम प्रश्न का उत्तर या ताले की कुंजी
कह कर भी संबोधित करते है. और साक्षर पांडित्य शब्दों में इसे तंत्र की संज्ञा दी
गई..
तंत्र, एक ऐसा शास्त्र जो समस्त हिंदू धर्मं का विश्वकोष बन कर स्थापित हुआ. जहा
विभिन्न पद्धतियों से साधना और उपासना का मार्ग प्रशस्त हुआ. तंत्र की उत्पत्ति
सृष्टि के उत्पत्ति से पहले ही हो चुकी थी.. जेसा की उपरोक्त कथं में कहा है की किसी
भि प्रश्न का हल पहले से ही नियोजित है या दूसरे शब्दों में हल के प्रकटीकरण में ही
प्रश्न की उत्पत्ति हुई.
तंत्र शास्त्र मुख्य रूप से आगम और निगम इन दो श्रेणियों में विभाजित है... इन के
आलावा यामल, डामर, उड्डिश आदि नामो के वर्ग में भि विभाजित हुए और साथ
ही साथ उपतंत्र भि स्थापित हुए. इस उपलक्ष में प्राचीन काल में ही ऋषि मुनि
महान तंत्राचार्यो ने हस्त लिखित मनु स्मृतियों में पूर्व से ही काली काल के लिए
भाविश्यित कर दिया था की “काली काल में तंत्र की आगम निगमता के वैतिरिक्त
अन्य कोई शास्त्र पर्याय स्वरूप शेष नहीं रहेगा जीवन की विकटता से निपटने के
लिए”
काली काल अर्थात कलियुग में जीवित रहने के लिए तंत्र ही एकमेव श्रेष्ठ मार्ग
स्थापित होगा और इसी कारण विलुप्त होती इस विधा के जैसे अब तक त्रिदेवो ने
विशेष नायक स्वरूप अवतरित होकर इसकी काट संसार कों दी...और जब फिर
स्थिति के विचल होते ही इसी के पुनः संस्मरण और स्थापन के लिए परम
वन्दनीय श्री निखिलेश्वरानंद जी का अवतरण पूजनीयडॉ. नारायण दत्त श्रीमाली
जी के गृहस्थ रूप में हुआ और उन्होंने पुनः इस विधा कों एक नया श्वास प्रदान
किया है...उनकी एक सीख हमेशा याद रहती है की सब कहे पोथन की देखि पर मै
कहू आखन की देखि... वे मंत्र तंत्र यन्त्र या इतर विज्ञान के ना केवल रक्षक के रूप में
खड़े हुए अपितु वे इस काली काल के मंत्र तंत्र यन्त्र के सृष्टा भि हुए... उनके
अनगिनत पक्ष है जिस पर यहाँ लिखा जा सकता बस जगह कम पड़ती जायेगी
तंत्र अनुगमनता में प्राचीन काल से विभिन्न संप्रदायों की स्थापना की.. हालाँकि
बाह्य परिप्रेक्ष्यता से देखे तो सभी सम्प्रदाय शिव शक्ति के ही उपासक है.. इसलिए
जितने शास्त्र लिखे गए वे शाक्तागम और शैवागम पर ही निर्धारित है. केवल पद्धति
अलग होती है परन्तु उपासना फल एक सा ही होता है... अर्थात गंतव्य सदा से एक
ही रहा है उस ब्रम्ह का साक्षात्कार परन्तु मार्ग विभिन्न रहे है. मनुष्य सदा से
सर्जनशील रहा है और वही रचनात्मकता उसे एक से दो, दो से तीन संप्रदायों कों
रचित करने के लिए प्रेरित करती रही.. वह सदा से अद्वितीयता कों प्राप्त करना
चाहता रहा है और यही उसकी प्रेरक शक्ति भि रही है. तो यहाँ में संप्रदायों के
यथासम्भव प्राप्त विभिन्न नाम कुछ इस प्रकार से है –
१. कौल मार्ग जिसे कुल मार्ग कौल मत भि कहा जाता है.
२. पाशुपत मार्ग
३. लाकुल मार्ग
४. कालानल मार्ग
५. कालमुख मार्ग
६. भैरव मत
७. वाम मत
८. कापालिक मत
९. सोम मत
१०. महाव्रत मत
११. जंगम मत
१२. कारुणिक या कारुंक मार्ग
१३. सिद्धांत मार्ग जिसे रौद्र मार्ग भी कहा गया है
१४. सिद्धांत मत शैव मार्ग
१५. रासेश्वर मत
१६. नंदिकेश्वर मत
१७. भट्ट मार्ग
उपरोक्त मार्गो में से कुछ मार्ग बहुत ही प्रचालित रहे.. मतलब की उस मार्ग कों
अनुगमन करने वाले साधक की तादाद ज्यादा रही... परन्तु काल के फेर में कभी
कोई मार्ग बहिष्कृत होता तो कभी कोई.. इसी के चलते मान्यता प्राप्ति हेतु बहुत से
मतों का मिश्रण होकर नए मतों का अवतरण भि होता गया.. कुछ मार्ग बहुत ही
गुप्त रूप से अवलंबित होने लगे थे. जो केवल गुरुमुखी परम्परा में ही चलते है अब...
प्रश्न ये उद्भवित होता है की इतने विविध मत मार्ग क्यों? जब एक ही मार्ग से
अभीष्ट की प्राप्ति हो सकती है. लेकिन एक पक्ष विचारणीय बिंदु यही रहा है की
उपासना मार्ग में सबसे श्रेष्ठ मार्ग तभी प्रमाणित हो सकता है जब आपने सभी मार्गो
कों अवलंबित कर प्रत्येक साधना यात्रा कों अनुभूत किया हो.. और उसी के आधार
पर इसका निष्कर्ष संभव है. परन्तु फिर प्रत्येक का निष्कर्ष भिन्न हो सकता है.
क्युकी व्यक्ति भिन्न तो मत भी भिन्न...
अब दूसरा पक्ष कुछ इस प्रकार से हो सकता है की प्राचीन तंत्राचार्यो ने जब
संप्रदायों की पद्धतियों कों मिश्रित किया तो उसके परिणाम तीव्र एवं अत्यंत
प्राभावी मिले और समय अनुरूप भि...
जैसे किसी सम्प्रदाय के गुरु के पास अगर दूसरे सम्प्रदाय के शिष्य ने तंत्र ज्ञान की
याचना की. सुपात्र शिष्य कों गुरु स्वयं ढूढते है तो मिलने पर नाकारा कैसे जा
सकता है.. परीक्षित होने पर गुरु उसे शक्तिपात कर उस सम्प्रदाय की गुरु परंपरा
कों निर्वाहित करते है. और उसी ज्ञान के आधार पर शिष्य एक नविन अध्याय रचते
है.. और दो संप्रदायों का उनके सिद्धांतों का कुछ इसी तारह मेल एक नए सम्प्रदाय
के अध्याय कों जन्म देता रहा..यहाँ जरुरी नहीं की सभी शिष्यों से यह होता रहता
हज़ारो में से इक्का दुक्का ही इस इतिहास के रचयिता बने...
इसी प्रकार तंत्र की गुह्य से गुह्य जानकारी कों पुनः अगले लेख में प्रस्तुत करने की कोशिश करुँगी ....
निखिल प्रणाम
***रजनी निखिल ****
****NPRU ****
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