“मननात् त्रायते स्वस्य मंतारं सर्व भावतः”
अर्थात मंत्र वही तो है जो अपने जप करने वाले की सर्व विध,सभी प्रकार से रक्षा करे | मंत्र सिद्धि का सीधा सम्बन्ध कल्पनायोग के साकार योग में परिवर्तन से होता है |अर्थात जब मंत्र जप के द्वारा शनैः शनैः उन बीजाक्षरों या मात्राओं पर चढा हुआ कर्म जनित आवरण हट जाता है और वे दीप्त हो जाते हैं तो संकल्प शक्ति की तीव्रता से अभीष्ट शक्ति का कल्पनालोक से साकार्लोक में आगमन हो जाता है तथा वो साधक के सामने उसकी संकल्पशक्ति की तीव्रता या मंदता के आधार पर संलयित हो जाती है और उनके जिस रूप का ध्यान साधक ने कल्पना में किया था उसी रूप की साकार उपस्थिति साधक के सामने हो जाती है |
जिस प्रकार हम हमारे चहुँ और विविध आकृतियों को देखते हैं,उसी प्रकार कल्पनालोक में भी विविध आकृतियों का भी निवास होता है | तन्त्र शास्त्र में इन आकृतियों का वर्णन मिलता है |प्रत्येक प्रकार के शब्द का उच्चारण करने पर एक विशिष्ट कंपन होता है या ये कहा जाये की प्रत्येक वर्ण और अंकों का एक विशिष्ट कंपन होता है | जिसके फलस्वरूप ध्वनि की उत्पत्ति होती है | यदि आप मीमांसा शास्त्र का अध्यन करे तो उसमे स्पष्ट रूप से बताया गया है की देवताओं का अपना कोई आकार नहीं होता है,अपितु वे मन्त्र-रूप ही तो होते हैं | इसलिए आप जिस मंत्र का जप करते हैं उसमे उनके किन गुणों का सायुज्यीकरण किया गया है तदनुरूप ही उनका प्रकटीकरण साधक के समक्ष होगा | हमारे शरीर के ७ चक्रों में से ६ चक्रों में ५० मातृकाओं अर्थात अक्षरों की स्थिति होती है और जब हम उन अक्षरों या शब्दों का उच्चारण करते हैं तो यदि वे अन्य अक्षरों से संयुक्त होते हैं तो ऐसे में एकसाथ या क्रम से अलग अलग चक्रदलों पर प्रभाव पड़ता है | जैसे यदि हम “रं” का उच्चारण करते हैं तो यदि हम ध्यान से देखेंगे तो इसमें ‘र’,’अ’,’म’ ये तीन वर्ण हैं, अब देखिये-
‘र’ का उच्चारण मूर्धा से होता है |
‘अ’ का उच्चारण कंठ से होता है |
‘म’ का उच्चारण होंठ और नासिका से होता है |
अब यदि इनका सतत उच्चारण किया जाये तो मणिपुर चक्र के इस बीजमंत्र पर शरीरस्थ सप्तलोकों में से तीन विभागों का प्रभाव पड़ता है और ये अग्नितत्व की तीव्रता को बाधा देते हैं और ये अग्नि भी ऐसी वैसी अग्नि नहीं अपितु सूक्ष्म जगत की समस्त नकारात्मक शक्ति को भस्मीभूत करने वाली अग्नि | जब हम अपने पाप शरीर का को राख कर रहे होते हैं तब सिद्धासन की अवस्था में इसी बीजमंत्र का तो जप किया जाता है |
इसी प्रकार प्रत्येक शब्द अपने कंपन विशेष से विशिष्ट प्रभाव की उत्पत्ति कर सकता है | याद रखिये आकाश में प्रत्येक शब्द का अपना स्थान है और ग्रह विशेष का सम्बन्ध शब्द विशेष से होता है |
बीज मंत्र होते क्या हैं ??
दिव्यक्षरों का समष्ठिरूप ही तो बीज कहलाता है,जिसमे उसके देवता का सूक्ष्मरूप पूर्ण शक्ति और अपने सम्पूर्ण गुणों के साथ समाहित होता है |हमारे द्वारा किये गए जप से ये बीजमंत्र आकाश में स्थित अपने क्षेत्र विशेष में कम्पन्न करते हैं और यही कम्पन्न उनके प्रतिनिधित्व करने वाले ग्रहों में भी होती है और जैसा की मैंने ऊपर बताया है की प्रत्येक शब्द की अपनी ध्वनि या आकृति आकाश में भी निर्दिष्ट होती है तब इसी अनुसार बीजमंत्रों के सतत जप से समानांतर ध्वनि उत्पन्न होती है और उन ध्वनि के योग से वो देवाकृति संकल्प लोक में या भाव लोक में आपकी आत्मशक्ति और प्राणशक्ति का सहयोग लेकर प्रत्यक्ष होकर कार्य करने को बाध्य हो जाती है | ये व्याख्या अत्यधिक विषद हो सकती है किन्तु जिसने इस रहस्य को आत्मसात कर लिया उसके लिए शब्दों के स्थान विशेष को ज्ञात कर उस स्थान पर कितना आघात देकर उन अक्षरों का कैसे संयोजन करना कठिन नहीं होता है और तब उसके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं होगा |
खैर जीवन की विसंगतियों में आत्मोत्थान को संलग्न साधक ही अपना अभीष्ट प्राप्त कर पाते हैं | सम्मोहन शक्ति के द्वारा ही हम सफलता की प्राप्ति कर सकते हैं| सम्मोहन के विविध अर्थ हो सकते हैं किन्तु मैं जिसकी बात कर रही हूँ वो “प्राणसम्मोहन” के नाम से सिद्ध तांत्रिकों के मध्य जाना जाता है | मुझे मास्टर ने सदगुरुदेव से प्राप्त इस दुर्लभ किन्तु सरल प्रयोग को समझाया था| सम्मोहन के इस रूप में साधक को जिस शक्ति की प्राप्ति होती है वो ना सिर्फ समस्त नकारात्मक शक्तियों का नाश करती है अपितु हमारे आसपास उपस्थित व्यक्तियों की नकारात्मकता को भी दिव्यता में परिवर्तित कर देती है | बहुधा हम अपने भाई बहन,संतान,पत्नी और मित्र की बुरी आदतों से दुखी रहते हैं किन्तु कई बार उन आदतों का शिकार व्यक्ति चाह कर भी उन अवगुणों का रूपांतरण नहीं कर पाता है तब ऐसे में यदि हमने “प्राणसम्मोहन बीज” का यदि प्रयोग सिद्ध किया हो तो उनकी सहायता कर उन्हें अवगुणों से मुक्त कर सकते हैं | जो भी साधक नित्य १० मिनट इस विशिष्ठ बीज मंत्र का अभ्यास करता है, वो बाह्य बाधाओं से ना सिर्फ सुरक्षित रहता है अपितु दिव्यात्माओं का सहयोग भी उसे सतत मिलता रहता है और वो जिस भी पदार्थ,व्यक्ति,मनोरथ की पूर्ती के लिए प्रयास करता है उसे सफलता मिलती ही है,शर्त यही है की भाव की पवित्रता यहाँ सर्वोपरि है | ऐसे साधक के मष्तिष्क और मन का सम्बन्ध समीप और दूरस्थ नजदीकी आत्मीयों के मन से हो जाता है और वो अभ्यास की तीव्रता के बाद न सिर्फ उनके भावों को पढ़ सकता है अपितु उनमे सकारात्मक परिवर्तन भी कर सकता है | अपने अधिकारी,पड़ोसियों की मानसिकता से ग्रस्त होकर हार मानने की अपेक्षा उनके व्यव्हार को स्वनुकूल कर लेना ही वास्तविक विजय कहलाती है |
प्रातः या सांयकाल दैनिक पूजन और गुरु मंत्र के बाद वज्रासन में बैठ कर सामने घृत दीप प्रज्वलित कर उस दीपशिखा को देखते हुए, दोनों हथेली को धीएरे धीरे रगड़ते हुए “हुं ह्रीं क्लीं” (HUM HREENG KLEEM) मंत्र का १० मिनट तक उच्चारण करे, उच्चारण उपांशु होना चाहिए | आपकी हथेली में गर्माहट आते जायेगी, १० मिनट के बाद अपनी हथेलियों को दोनों आँखों और माथे पर लगा ले | कुछ दिनों के अभ्यास के बाद आपकी हथेली को चाहे आप कितना भी जप्काल में तीव्रता से रगद ले किन्तु उनका तापमान सामान्य ही रहेगा,ये भ्यास १ महीने का होता है और १ महीने में सफलता मिल भी जाती है | १ माह के बाद आप अपने व्यक्तित्व में तो परिवर्तन देखते ही हैं साथ ही साथ जैसे ही आप किसी उत्तेजित या क्रोधित व्यक्ति को देखकर उसकी और दृष्टि एकाग्र करते हैं और मन ही मन मंत्र का जप प्रारंभ करते हैं आपका हाथ गर्म होने लगता है तब आप अपने हाथ को नीचे किये हुए या अपने पीछे ले जाकर (जैसी आपकी सुविधा हो ) अपने अंगूठे से तर्जनी और माध्यम को धीरे धीरे मसलने लगे और आप जैसे ही इस क्रिया को प्रारंभ करेंगे धीरे धीरे सामने वाला व्यक्ति शांत हो कर आपके लिए अनुकूल व्यवहार करने लगता है,और उसके शांत या अनुकूल होते ही आपकी हथेकी सामान्य तापक्रम पर आ जाती है जिसका अर्थ क्रिया का सम्पूर्ण होना होता है |
इस साधना के विविध पक्ष हैं जिनका प्रयोग कर दिव्यात्माओं से संपर्क स्थापित किया जा सकता है, विचार परिवर्तन किया जा सकता है, विचारों को जाना जा सकता है,प्राण उर्जा को तीव्रता को बढ़ाया जा सकता है,मानसिक रोग की समाप्ति की जा सकती है,उन सब के बारे में निकट भविष्य में पूरी जानकारी रखूंगी, आप इस प्रयोग की तीव्रता को बगैर करे नहीं समझ पाएंगे,इसके लिए गंभीरता और वसुधैव कुटुम्बकम की भावना होना अनिवार्य ही तो है |
तब तक के लिए.....
अर्थात मंत्र वही तो है जो अपने जप करने वाले की सर्व विध,सभी प्रकार से रक्षा करे | मंत्र सिद्धि का सीधा सम्बन्ध कल्पनायोग के साकार योग में परिवर्तन से होता है |अर्थात जब मंत्र जप के द्वारा शनैः शनैः उन बीजाक्षरों या मात्राओं पर चढा हुआ कर्म जनित आवरण हट जाता है और वे दीप्त हो जाते हैं तो संकल्प शक्ति की तीव्रता से अभीष्ट शक्ति का कल्पनालोक से साकार्लोक में आगमन हो जाता है तथा वो साधक के सामने उसकी संकल्पशक्ति की तीव्रता या मंदता के आधार पर संलयित हो जाती है और उनके जिस रूप का ध्यान साधक ने कल्पना में किया था उसी रूप की साकार उपस्थिति साधक के सामने हो जाती है |
जिस प्रकार हम हमारे चहुँ और विविध आकृतियों को देखते हैं,उसी प्रकार कल्पनालोक में भी विविध आकृतियों का भी निवास होता है | तन्त्र शास्त्र में इन आकृतियों का वर्णन मिलता है |प्रत्येक प्रकार के शब्द का उच्चारण करने पर एक विशिष्ट कंपन होता है या ये कहा जाये की प्रत्येक वर्ण और अंकों का एक विशिष्ट कंपन होता है | जिसके फलस्वरूप ध्वनि की उत्पत्ति होती है | यदि आप मीमांसा शास्त्र का अध्यन करे तो उसमे स्पष्ट रूप से बताया गया है की देवताओं का अपना कोई आकार नहीं होता है,अपितु वे मन्त्र-रूप ही तो होते हैं | इसलिए आप जिस मंत्र का जप करते हैं उसमे उनके किन गुणों का सायुज्यीकरण किया गया है तदनुरूप ही उनका प्रकटीकरण साधक के समक्ष होगा | हमारे शरीर के ७ चक्रों में से ६ चक्रों में ५० मातृकाओं अर्थात अक्षरों की स्थिति होती है और जब हम उन अक्षरों या शब्दों का उच्चारण करते हैं तो यदि वे अन्य अक्षरों से संयुक्त होते हैं तो ऐसे में एकसाथ या क्रम से अलग अलग चक्रदलों पर प्रभाव पड़ता है | जैसे यदि हम “रं” का उच्चारण करते हैं तो यदि हम ध्यान से देखेंगे तो इसमें ‘र’,’अ’,’म’ ये तीन वर्ण हैं, अब देखिये-
‘र’ का उच्चारण मूर्धा से होता है |
‘अ’ का उच्चारण कंठ से होता है |
‘म’ का उच्चारण होंठ और नासिका से होता है |
अब यदि इनका सतत उच्चारण किया जाये तो मणिपुर चक्र के इस बीजमंत्र पर शरीरस्थ सप्तलोकों में से तीन विभागों का प्रभाव पड़ता है और ये अग्नितत्व की तीव्रता को बाधा देते हैं और ये अग्नि भी ऐसी वैसी अग्नि नहीं अपितु सूक्ष्म जगत की समस्त नकारात्मक शक्ति को भस्मीभूत करने वाली अग्नि | जब हम अपने पाप शरीर का को राख कर रहे होते हैं तब सिद्धासन की अवस्था में इसी बीजमंत्र का तो जप किया जाता है |
इसी प्रकार प्रत्येक शब्द अपने कंपन विशेष से विशिष्ट प्रभाव की उत्पत्ति कर सकता है | याद रखिये आकाश में प्रत्येक शब्द का अपना स्थान है और ग्रह विशेष का सम्बन्ध शब्द विशेष से होता है |
बीज मंत्र होते क्या हैं ??
दिव्यक्षरों का समष्ठिरूप ही तो बीज कहलाता है,जिसमे उसके देवता का सूक्ष्मरूप पूर्ण शक्ति और अपने सम्पूर्ण गुणों के साथ समाहित होता है |हमारे द्वारा किये गए जप से ये बीजमंत्र आकाश में स्थित अपने क्षेत्र विशेष में कम्पन्न करते हैं और यही कम्पन्न उनके प्रतिनिधित्व करने वाले ग्रहों में भी होती है और जैसा की मैंने ऊपर बताया है की प्रत्येक शब्द की अपनी ध्वनि या आकृति आकाश में भी निर्दिष्ट होती है तब इसी अनुसार बीजमंत्रों के सतत जप से समानांतर ध्वनि उत्पन्न होती है और उन ध्वनि के योग से वो देवाकृति संकल्प लोक में या भाव लोक में आपकी आत्मशक्ति और प्राणशक्ति का सहयोग लेकर प्रत्यक्ष होकर कार्य करने को बाध्य हो जाती है | ये व्याख्या अत्यधिक विषद हो सकती है किन्तु जिसने इस रहस्य को आत्मसात कर लिया उसके लिए शब्दों के स्थान विशेष को ज्ञात कर उस स्थान पर कितना आघात देकर उन अक्षरों का कैसे संयोजन करना कठिन नहीं होता है और तब उसके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं होगा |
खैर जीवन की विसंगतियों में आत्मोत्थान को संलग्न साधक ही अपना अभीष्ट प्राप्त कर पाते हैं | सम्मोहन शक्ति के द्वारा ही हम सफलता की प्राप्ति कर सकते हैं| सम्मोहन के विविध अर्थ हो सकते हैं किन्तु मैं जिसकी बात कर रही हूँ वो “प्राणसम्मोहन” के नाम से सिद्ध तांत्रिकों के मध्य जाना जाता है | मुझे मास्टर ने सदगुरुदेव से प्राप्त इस दुर्लभ किन्तु सरल प्रयोग को समझाया था| सम्मोहन के इस रूप में साधक को जिस शक्ति की प्राप्ति होती है वो ना सिर्फ समस्त नकारात्मक शक्तियों का नाश करती है अपितु हमारे आसपास उपस्थित व्यक्तियों की नकारात्मकता को भी दिव्यता में परिवर्तित कर देती है | बहुधा हम अपने भाई बहन,संतान,पत्नी और मित्र की बुरी आदतों से दुखी रहते हैं किन्तु कई बार उन आदतों का शिकार व्यक्ति चाह कर भी उन अवगुणों का रूपांतरण नहीं कर पाता है तब ऐसे में यदि हमने “प्राणसम्मोहन बीज” का यदि प्रयोग सिद्ध किया हो तो उनकी सहायता कर उन्हें अवगुणों से मुक्त कर सकते हैं | जो भी साधक नित्य १० मिनट इस विशिष्ठ बीज मंत्र का अभ्यास करता है, वो बाह्य बाधाओं से ना सिर्फ सुरक्षित रहता है अपितु दिव्यात्माओं का सहयोग भी उसे सतत मिलता रहता है और वो जिस भी पदार्थ,व्यक्ति,मनोरथ की पूर्ती के लिए प्रयास करता है उसे सफलता मिलती ही है,शर्त यही है की भाव की पवित्रता यहाँ सर्वोपरि है | ऐसे साधक के मष्तिष्क और मन का सम्बन्ध समीप और दूरस्थ नजदीकी आत्मीयों के मन से हो जाता है और वो अभ्यास की तीव्रता के बाद न सिर्फ उनके भावों को पढ़ सकता है अपितु उनमे सकारात्मक परिवर्तन भी कर सकता है | अपने अधिकारी,पड़ोसियों की मानसिकता से ग्रस्त होकर हार मानने की अपेक्षा उनके व्यव्हार को स्वनुकूल कर लेना ही वास्तविक विजय कहलाती है |
प्रातः या सांयकाल दैनिक पूजन और गुरु मंत्र के बाद वज्रासन में बैठ कर सामने घृत दीप प्रज्वलित कर उस दीपशिखा को देखते हुए, दोनों हथेली को धीएरे धीरे रगड़ते हुए “हुं ह्रीं क्लीं” (HUM HREENG KLEEM) मंत्र का १० मिनट तक उच्चारण करे, उच्चारण उपांशु होना चाहिए | आपकी हथेली में गर्माहट आते जायेगी, १० मिनट के बाद अपनी हथेलियों को दोनों आँखों और माथे पर लगा ले | कुछ दिनों के अभ्यास के बाद आपकी हथेली को चाहे आप कितना भी जप्काल में तीव्रता से रगद ले किन्तु उनका तापमान सामान्य ही रहेगा,ये भ्यास १ महीने का होता है और १ महीने में सफलता मिल भी जाती है | १ माह के बाद आप अपने व्यक्तित्व में तो परिवर्तन देखते ही हैं साथ ही साथ जैसे ही आप किसी उत्तेजित या क्रोधित व्यक्ति को देखकर उसकी और दृष्टि एकाग्र करते हैं और मन ही मन मंत्र का जप प्रारंभ करते हैं आपका हाथ गर्म होने लगता है तब आप अपने हाथ को नीचे किये हुए या अपने पीछे ले जाकर (जैसी आपकी सुविधा हो ) अपने अंगूठे से तर्जनी और माध्यम को धीरे धीरे मसलने लगे और आप जैसे ही इस क्रिया को प्रारंभ करेंगे धीरे धीरे सामने वाला व्यक्ति शांत हो कर आपके लिए अनुकूल व्यवहार करने लगता है,और उसके शांत या अनुकूल होते ही आपकी हथेकी सामान्य तापक्रम पर आ जाती है जिसका अर्थ क्रिया का सम्पूर्ण होना होता है |
इस साधना के विविध पक्ष हैं जिनका प्रयोग कर दिव्यात्माओं से संपर्क स्थापित किया जा सकता है, विचार परिवर्तन किया जा सकता है, विचारों को जाना जा सकता है,प्राण उर्जा को तीव्रता को बढ़ाया जा सकता है,मानसिक रोग की समाप्ति की जा सकती है,उन सब के बारे में निकट भविष्य में पूरी जानकारी रखूंगी, आप इस प्रयोग की तीव्रता को बगैर करे नहीं समझ पाएंगे,इसके लिए गंभीरता और वसुधैव कुटुम्बकम की भावना होना अनिवार्य ही तो है |
तब तक के लिए.....
****NPRU****
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Please post how to do other prayogs after attaining siddhi of mantra. Divyaatma se sampark, vicharon ko padna and other prayogs. Is it possible to do normal sammohan using this praansammohan prayog
ReplyDeletedear pretesh ji , in any coming post these subject will be covered in a separte post .but now we have to wait ..
ReplyDeletesmile
anu