Sunday, April 8, 2012

बीजोक्त तंत्र- तंत्र ज्योतिष और मनोकामना पूर्ती नव्य श्री चैतन्य कल्प

  तंत्र एक भाव है,दृष्टिकोण है, ये ना तो कभी किसी का भला करता है और ना ही कभी किसी का बुरा ही करता है | ये साधक को मात्र उस जगह ले जाकर खड़ा कर देता है,जहाँ से वो स्वयं निर्धारित करे की उसे किस भाव की और गति करना है | सदगुरुदेव के द्वारा कहा गया ये वाक्य तंत्र की सत्यता को हम सभी के समक्ष पूर्णता के साथ उजागर करता है| नभमंडल में दिखने वाले तारे मात्र चमकने का ही कार्य नहीं करते हैं,मात्र गणना करने का ही कार्य नहीं करते हैं अपितु सन्देश प्रवाहित करने का भी कार्य करते हैं | वह सन्देश जो किसी अन्य ब्रह्माण्ड से हमारे लिए प्रेषित किया जा रहा हो, आज विज्ञान भी हमारे महर्षि कणाद द्वारा कथित उन पुरातन सूत्र को मानने लगा है जिसमें कहा गया था की हमारी दृष्टि पथ पर संचालित या दिखाई देने वाले विश्व के साथ या ब्रह्माण्ड के साथ सामानांतर रूप से और भी ब्रह्माण्ड गतिशील हैं जहाँ पर क्रिया और प्रतिक्रिया निरंतर होते रहती है |

   किन्तु इस तथ्य को समझना इतना सहज नहीं है ये अणु विज्ञानं का विषय है, किन्तु ये भी सत्य है की हम भले ही इस तथ्य को पूरी तरह ना समझ पाए तब भी इसका लाभ हम अवश्य उठा सकते हैं | आपने सुना ही होगा की प्राचीनकाल में ज्योतिषों द्वारा की गयी गणना के आधार पर जो निष्कर्ष निकलते थे,वे इतने सटीक होते थे की व्यक्ति दांतों तले अंगुली दबाने को विवश हो ही जाता था | किन्तु समय के साथ साथ इन गणनाओं द्वारा किये गए फल कथन अत्यधिक त्रुटिपूर्ण हो गए |

आखिर ऐसा क्यूँ हुआ ?

इसका मुख्य कारण था हमने मात्र सूत्रों को ही आधार मान लिया और ये भी मात्र इन्ही के द्वारा हमारे कर्त्तव्य की इतिश्री हो जायेगी, किन्तु ये हमारी सबसे बड़ी भूल थी | यदि हम उन मनीषियों के जीवन और उनकी दिनचर्या का अध्यन करते तो हमें ज्ञात हो पाता की तंत्र का उनके जीवन में कितना प्रभाव था और वे सभी अपना कितना समय तंत्र और इन सूत्रों के समन्वय में लगाते थे | प्रत्येक विद्वान अपने इष्ट के प्रति समर्पित था और अपनी इष्ट कृपा से वे प्रकृति के गूढतम रहस्यों को भली भांति आत्मसात कर लिया करते थे | उन्होंने बाह्य ब्रह्माण्ड के साथ अन्तः ब्रह्माण्ड के रहस्य को भी समझने का भली भांति प्रयास किया, यदि किसी एक सूत्र की उन्हें प्राप्ति हुयी तो उसे परखा और तब लोगों के सामने रखा | उन्होंने ये भी समझा की तंत्र वस्तुतः जीवन जीने का तरीका है और प्रकृति में सभी सजीव और निर्जीव इसी व्यवस्था के अंतर्गत आते हैं, या तो यहाँ पर स्वतंत्र है या उससे कही ऊपर परातंत्र यहाँ मैंने परतंत्र की बात नहीं कही है,वो तो अत्यंत घृणित अवस्था है,तभी तो भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है की –

“स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मों भयावह”

किन्तु हम इस वाक्य को जातिसूचक मानते हैं जबकि ये धर्म से प्रेरित है|

धर्म अर्थात “धारयति इति धर्मः”

 जिसे अंगीकार किया जाये धारण किया जाये वही धर्म है | अपनी स्वयं की व्यवस्था में जीते हुयी प्रकृति की समरसता को समझ कर आत्मसात करना ही परातंत्र है,अर्थात एक ऐसी व्यवस्था जहाँ पदार्थ और तत्व आपसे संवाद करने लगते हैं तब कोई भेद नहीं रह जाता और सभी को सभी का रहस्य ज्ञात हो जाता है |और जब ये हो जाता है तो ज्योतिष के द्वारा नवीन सूत्र रचित हो सकते हैं और वे सूत्र कालातीत ना होकर सदा सदा के लिए अमर हो जाते हैं, संवाद और सूत्रों के उसी प्राप्ति का क्रम ही तो तंत्र ज्योतिष कहलाता है | तंत्र ज्योतिष अर्थात प्रकृति की व्यवस्था से ज्योतिष का योग | मास्टर कहते हैं की उन्हें सदगुरुदेव ने बताया था की जहाँ ज्योतिष समस्या का कारण ब्रह्मांडीय तारों और ग्रहों की गति का अध्यन करके समझता है वहीं तंत्र के द्वारा प्रकृति की व्यवस्था को समझकर उसका समाधान प्रकृति से ही प्राप्त कर लिया जाता है |

   सम्पूर्ण तंत्र ज्योतिष के सूत्रों की चर्चा तो असंख्य पृष्ठों में भी नहीं की जा सकती है,किन्तु जब हम यहाँ पर इस विधा का वर्णन कर रहे हैं तो एक उदाहरण दे कर इस की महत्ता समझाने का प्रयास करुँगी |

प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में किसी ना किसी कामना को पूरा होते देखना चाहता है,और ऐसा नहीं है की एक कामना पूरी हो गयी तो दूसरी कामना की चाह ही नहीं होगी | किन्तु प्रत्येक मनोकामना पूर्ती की चाबी भिन्न भिन्न ही होती है| जैसे हम एक सिद्धांत लेते हैं की १२ राशियाँ हैं यथा –

मेष

वृष

मिथुन

कर्क

सिंह

कन्या

तुला

वृश्चिक

धनु

मकर

कुम्भ

मीन

राशिओं का यह क्रम हम सब ने देखा हैं और हमे यह भी पता है की प्रत्येक राशि का स्वभाव हर दूसरी राशि से भिन्न ही होता है और जीवन में घटनाओं के घटित होने के काल विशेष की जानकारी के लिए उच्च ज्योतिषी राशि दशा का भी आलंबन लेते हैं अर्थात इन राशियों के काल को आधार मान कर घटनाओं का सही समय जाना जा सकता है किन्तु यदि जन्मपत्री ही त्रुटिपूर्ण हो तो किसी भी दशा का सहयोग लेकर घटनाओं का सताया ब्यौरा प्रस्तुत नहीं किया जा सकता| अब जिनकी जन्मपत्री सही नहीं है उनकी भी अपनी मनोकामनाएं हैं और जिनकी जन्मपत्री सही है उनकी अपनी मनोकामनाएं हैं तब ज्योतिष तो मात्र घटनाओं के काल का प्रस्तुतिकरण करता है वो भी तब जब गणना का आधार त्रुटि रहित हो, किन्तु यह नियम तो सत्य जन्मपत्री वालों के लिए है और वो भी तब जब गणना करने वाला विद्वान और कुशल हो| यह सम्भावना वर्तमान में ना के बराबर है और जब सत्य जन्म पत्री वालों का यह हाल है तो जिनकी जन्म कुंडली सत्य नहीं है वह तो मात्र तथा कथित ज्योतिषों के चक्कर में फसकर आजीवन मृगमरीचिका में भटकते रहते हैं और जब निर्देशित की हुई घटनाएँ घटित नहीं होती है तो ज्योतिष विज्ञान जैसे परम शास्त्र को कल्पना बता देते हैं|

 वास्तविकता तो यह है की यदि कोई भी ग्रह किसी भी राशि में प्रतिकूल हो गया हो तब भी तंत्र ज्योतिष के सहयोग से प्रकृति की व्यवस्था को अपने अनुकूल कर किसी भी श्रेष्ठ मनोकामना की पूर्ती की जा सकती है|  १२ राहियाँ सप्त ग्रहों में विभाजित हैं अर्थात राशिओं के दो ही वर्ग होते हैं – पहला उष्ण वर्ग जिसका अधिपति सूर्य होता है इसके आदिप्त्य में राजा होने के नाते सिंह राशि आती है, उसके बाद इसका युवराज बुध होता है जो कन्या राशि का स्वामी है फिर महामंत्री के रूप में शुक्र अपनी राशि तुला के साथ होते हैं, मंगल रुपी सेनापति वृशिक राशि के स्वामी हैं तब राजगुरु बृहस्पति शिक्षा अनुपालन और व्यवहार को सिखाने के लिए धनु राशि के स्वामी बनते हैं और जीवन में निष्ठा, सेवा और करम के प्रति कैसे जीवन दिया जाता है यह गुण शनि मकर के अधिपति होके सिखाते हैं| याद रखिये यह सभी राशियाँ और ग्रह सूर्य के आदिपत्य में हैं और सूर्य प्रतीक है आत्मा का जिसमें उष्णता और प्रखरता होना अनिवार्य गुण है अतः यह ६ ग्रह जीवन में तीव्रता और आत्म सम्मान को दर्शाते हैं. क्रम यही रहेगा किन्तु प्रकृति परिवर्तित हो जाती है जब बात शीत वर्ग राशियों की – यहाँ पर चंद्रमा राजा होते हैं कर्क राशि का स्वामी बनके, पुनः उपरोक्त क्रम अनुसार ही राजा के बाद युवराज बुध मिथु  राशि, महामंत्री शुक्र वृष राशि के, सेनापति मंगल मेष राशि के, राजगुरु ब्रस्पति मीन राशि के तथा करम को गति देने वाले शनि कुंभ राशि के स्वामी होते हैं|

 क्रम वही है किन्तु शीत प्रकृति में चंद्रमा चिंतन, मानसिकता और भाव के प्रतिनिधि होते हैं जिसका शीतल होना अनिवार्य है अर्थात निर्णय लेने के पहले समग्र चिंतन का आधार शांत मास्तिष्क ही होता है और उस चिंतन से संबंधित समस्त परिक्रियाओं से जुड़े हुए करम भी शांत ही होने चाहिए किन्तु जब चिंतन के परिणाम स्वरुप निर्णय प्राप्त होता है उसमें अडिगता और प्रखरता का होना अनिवार्य है और उस निर्णय को सत्य साबित करने के लिए किये गए करमों में भी तेजस्विता झलकनी चाहिए| सोचिये राशियाँ १२ हैं जो बटी हुई हैं ७ ग्रहों में, २ ग्रह राजा होने के नाते १-१ राशि का अपनी वशिष्ट प्रकृति के साथ नेतृत्व करते हैं किन्तु बाकी के ५ ग्रह २-२ राशियों के स्वामी हैं ,प्रकृति के दोनों गुणों से युक्त होकर अर्थात उष्ण और शीत| यदि जीवन में व्यक्ति के पास शांत मस्तिष्क है और आत्मा की प्रखरता से परिपूर्ण निर्णय और कार्यक्षमता तो आप ही बताईये ऐसा कौन सा स्वप्न, ऐसी कौन सी मनोकामना होगी जिसे साकार नहीं किया जा सकता और यही सूत्र तो तंत्र ज्योतिष का महत्वपूर्ण सूत्र है|

चलिए व्याख्या में ना उलझा कर इसका विधान ही बताती हूँ- भारत वर्ष में १२ श्री विग्रह ऐसे हैं जो राजराजेश्वरी श्री विद्या के विग्रह हैं और यह विग्रह भी प्रकृति के २ ही गुणों में विभाजित हैं अर्थात उष्ण गुण और शीत गुण तथा यह १२ विग्रह १२ राशियों के भी प्रतीक हैं| यदि इनका पूजन तंत्र ज्योतिष के आधार पर एक यन्त्र विशेष का निर्माण कर किया जाए १२ राशियों , अधिपति ९ ग्रहों और भगवती के १२ रूपों की कृपा और आशीर्वाद से परिस्थितियां अनुकूल होकर मनोकामना पूर्ती तथा स्वप्न को साकार करती ही हैं|

 “तन्त्रश्चर्या ज्योति:पुष्प” ग्रन्थ में वर्णित ये विधि इतनी सटीक है की प्रभाव देखकर मन आश्चर्य चकित हो जाता है | ये सम्पूर्ण ग्रन्थ तंत्र ज्योतिष के सूत्रों का अद्भुत ग्रन्थ है |  ग्रन्थ में ये विधि नव्य श्री चैतन्य कल्प के नाम से वर्णित है |

   किसी भी रविवार से अगले सोमवार तक ९ दिन इस प्रयोग को किया जाता है | साधना का समय प्रातः सूर्योदय को निर्धारित है | वस्त्र ऊपर सफ़ेद तथा नीचे पीला या केसरिया लाल होगा ऊपर सफ़ेद अंगवस्त्र तथा नीचे पीला या केसरिया लाल धोती या साड़ी धारण करना चाहिए | भोजन में केसर या पीला रंग मिश्रित मीठे चावल अनिवार्य हैनार्थ्त इन्ही का भोग लगाना है तथा अन्य भोज सामग्रियों के साथ इसे भी स्वयं खाना है | माला रुद्राक्ष की होनी चाहिए | नित्य २१ माला मंत्र जप होगा | साधना काल में नित्य सूर्य को अर्घ्य दिया जाना अनिवार्य है और अर्घ्य ताम्र पात्र से दिया जायेगा |

     स्नान कर अर्घ्य प्रदान कर साधना कक्ष में पूर्व दिशा की और बैठ जाए तथा “ओम” का उच्चारण तीन बार करे तथा सामने बाजोट पर सफ़ेद वस्त्र बिछाकर उस पर गुरु यन्त्र या चित्र और गणपति जी का स्थापन कर पंचोपचार पूजन करे तथा प्रयोग में सफलता हेतु आशीर्वाद की प्रार्थना करे |

   तत्पश्चात उसी वस्त्र पर “नव्य श्री चैतन्य कल्प यन्त्र” का निर्माण सिन्दूर से करे और जहाँ पर चित्र में रंग भरा हुआ दिख रहा है वहाँ कुमकुम भर दे| बीच का गोला खाली रहेगा और वहाँ कुमकुम से ही “श्रीं” अंकित करना है| सबसे पहले उस “श्रीं” का पूजन कुमकुम मिश्रित अक्षत से करे अर्थात निम्न मंत्र बोलते हुए कुमकुम मिले हुए चावल एक एक मंत्र बोलकर अर्पित करे |

ओम श्री रूपेण कामाक्षी स्थापयामि पूजयामि नमः

ओम श्री रूपेण भ्रमराम्बा  स्थापयामि पूजयामि नमः

ओम कुमारी स्थापयामि पूजयामि नमः

ओम श्री रूपेण अम्बा  स्थापयामि पूजयामि नमः

ओम श्री रूपेण महालक्ष्मी स्थापयामि पूजयामि नमः

ओम श्री रूपेण कालिका स्थापयामि पूजयामि नमः

ओम श्री रूपेण ललिता स्थापयामि पूजयामि नमः

ओम श्री रूपेण मंगलावती स्थापयामि पूजयामि नमः

ओम श्री रूपेण विंध्यवासिनी स्थापयामि पूजयामि नमः

ओम श्री रूपेण विशालाक्षी स्थापयामि पूजयामि नमः

ओम श्री रूपेण त्रिपुरसुंदरी स्थापयामि पूजयामि नमः

ओम श्री रूपेण गुह्यकेशी स्थापयामि पूजयामि नमः

  तत्पश्चात पंचोपचार विधि से उस “श्रीं” का पूजन करे और इसके बाद ५,६,७ इस क्रम से जहाँ गिनती लिखी है वहाँ पर कुमकुम मिश्रित अक्षत और पंचोपचार पूजन करें | अर्थात जहाँ ५ अंकित है वहाँ कुमकुम वाले अक्षत अर्पित करे इसके बाद जहाँ ६ लिखा है वहाँ पर और ऐसे १० की गिनती तक आये इसके बाद ४ फिर ३ फिर २ फिर १ फिर १२ और फिर ११ तक सफ़ेद अक्षत अर्पित करे |

५. ओम सिंह राशिधिपत्ये दिवाकराय मम आत्मप्रकाश प्रकाशय प्रकाशय नमः

६. ओम कन्या राशिधिपत्ये उष्ण बुधाय नमः

७. ओम तुला राशिधिपत्ये उष्ण दैत्य गुरुवे नमः

८. ओम वृश्चिक राशिधिपत्ये उष्ण अंगारकाय नमः

९. ओम धनु राशिधिपत्ये उष्ण बृह्स्पत्ये नमः

१०. ओम मकर राशिधिपत्ये उष्ण यमाग्रजाय नमः

 अब सफ़ेद अक्षत अर्पित करे –

४. ओम कर्क राशिधिपत्ये मम चिंत्य विचिन्त्य सुधाकराय नमः

३. ओम मिथुन राशिधिपत्ये शीत बुधाय नमः

२. ओम वृष राशिधिपत्ये शीत शुक्राय नमः

१. ओम मेष राशिधिपत्ये शीत भुमिसुताय नमः

१२. ओम मीन राशिधिपत्ये शीत देवगुरुवे नमः

११. ओम कुंभ राशिधिपत्ये शीत शनिदेवाय नमः

  क्रम ध्यान रखिये और अक्षत का रंग भी की कहाँ कौन से रंग का अक्षत अर्पित करना है फिर सम्पूर्ण यन्त्र का पुष्प और नैवेद्य से पूजन कीजिये और पूर्ण एकाग्र मन से स्थिर भाव से “ श्रीं ह्रीं ह्रीं श्रीं” (SHREEM HREEM HREEM SHREEM)  मंत्र का २१ माला जप करे, ये क्रम ९ दिनों तक करे और अंतिम दिन पूजन और जप के बाद सभी सामग्री किसी जंगल में रख दे और कुछ दक्षिणा शिवमंदिर और शक्ति मंदिर में अर्पित कर दे | माला को विसर्जित नहीं करना है |उसे आप पूजन स्थल पर रख सकते हैं या धारण भी कर सकते हैं, प्रयोग के दुसरे दिन ९ बच्चियों को भोजन या मिष्ठान अर्पित कर दे |

  ये हमारे जीवन का सौभाग्य है की ऐसा अद्भुत विधान हमारे समक्ष है जो जीवन की विपरीत परिस्थितियों में गिन्गिदाने की अपेक्षा विजय प्राप्ति के मार्ग पर चल कर मनोकामना पूर्ती की क्रिया को सफल बनाता है और वैसे भी तंत्र प्रयोग करने की क्रिया है इसका अनुभव पढकर नहीं अपितु क्रिया संपन्न कर ही किया जा सकता है |

“निखिल प्रणाम”


****ROZY NIKHIL****

   


                                                                                               
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