दिव्यदेहधारी महासिद्ध ने मेरे प्रश्न के उत्तर में बताया की साधक के लिए सब
से उपयुक्त क्षेत्र वही होता है जिसमे उसकी रुचि हो. साधक खुद ही उस क्षेत्र की तरफ आकर्षित होने
लगेगा जिस क्षेत्र की तरफ उसे बढ़ना चाहिए क्यों की जेसे की पहले ही कहा की साधक को चाहे अपने मूल के बारे में ज्ञान हो या ना हो उसके
अंतरमन में जरुर सारी स्मृति होती ही है और यही अंतरमन साधक को रिक्तता के बारे
में सूचित करता रहता है और अंत में वह साधना मार्ग पर आगे बढ़ ही जाता है, इस लिए यह सवाल नहीं है की साधक को किस क्षेत्र में सफलता मिलेगी.
सफलता हर एक साधक को हर एक क्षेत्र में मिल ही सकती है जब की साधक की तरफ से
उसके ज्ञान प्रदाता की तरफ पूर्ण रूप से समर्पण भाव हो इसके अलावा ज्ञानप्रदाता
अर्थात गुरु भी उस ज्ञान पर अपना आधिपत्य रखता हो, अगर गुरु के पास ज्ञान है तो उसका कर्तव्य है की वह उस
ज्ञान को अपने समर्पित शिष्यों को दे. और शिष्यों का भी यह कर्तव्य है की वह गुरु
की शरण में पूर्ण रूप से समर्पित भाव से ही रहे. दिव्यदेहधारी सिद्ध की बाते सुन कर कुछ कोंध सा गया मेरे
दिमाग में, लगा जेसे कुछ याद आ रहा है. लेकिन मेने अपने विचारों को सिद्ध की बातो पर ही केंद्रित करना उच्चित समजा.
सरे विचारों को मन से हटा कर वापस से सिद्ध की बातो की तरफ गौर करने लगा. सिद्ध ने अपनी बात को आगे बढ़ाया की कई बार सिद्धगुरु जन्म
नक्षत्रो के योग से यह सुनिश्चित करते है की साधक का पूर्व जीवन किस प्रकार की
साधनाओ में व्यतीत हुआ है और उसे किस क्षेत्र की
तरफ आगे जाना चाहिए क्यों की पूर्व स्मृति से अधिक से अधिक चेतना को प्राप्त किया
जा सके, इसके अलावा सिद्धगुरु अपने शिष्य के पूर्व
जीवन को देख कर भी यह निर्णय ले सकता है, इससे भी आगे अगर एक सद्गुरु चाहे तो वह अपने
शिष्य को किसी भी क्षेत्र में निपुण बना ही सकता है और एक से अधिक क्षेत्र में भी
निपुणता दे सकता है, वस्तुतः साधक के लिए यह प्रश्न है ही नहीं, यह प्रश्न गुरु के ऊपर है की साधक को किस क्षेत्र में कितनी सफलता वह दिला सके.
इस लिए साधको के हित में यही रहता है की वह जो भी साधना में रूचि हो करता रहे इस लिए नहीं की
वह पर मार्गदर्शन नहीं है वरन इस लिए की वह रास्ता उसके अंतरमन के द्वारा
निर्धारित है. साधक को उक्त समय पर निश्चित रूप से
मार्गदर्शन की प्राप्ति हो ही जाती है लेकिन एक निश्चित काल तक उसको अपना मार्जन
करने के लिए इस प्रकार से साधना करते रहना चाहिए.
मेने कहा क्या इसका अर्थ ये है की साधक को गुरु के सामने अपने कार्यक्षेत्र का
चुनाव करने की ज़रूरत नहीं है? सिद्ध ने कहा की जब साधक ने अपने आप को गुरु के चरणों में
समर्पित कर ही दिया है तब वहाँ पर चुनाव की बात ही कहा पर है? साधक एक खाली बर्तन होता है और यह गुरु के ऊपर होता है की वह उसमे क्या और
केसे भरे. सिद्ध की बात सुन कर वापस से ऐसा लगा जेसे कुछ याद आ रहा है
लेकिन समज नहीं पाया.
मेने पूछा की इसका अर्थ तो यह है की साधक को साधना करते रहना है और उक्त समय
पर गुरु का मार्गदर्शन उसे मिल ही जाता है लेकिन अगर गुरु की प्राप्ति नहीं हुई तो? महासिद्ध ने कहा की साधक को साधना पथ पर जिस प्रकार से गतिशीलता में मदद मिलती
है उस प्रकार से इस उसे तब तक किस तरह से और केसे साधना करनी है उस निर्णय में
उसकी सहायता स्वः लोक के सिद्ध भी करते है. इस लिए साधक के लिए चिंता का विषय है ही नहीं.
साधक को सिर्फ इतना करना है की वह साधना करे और पूर्ण समर्पण भाव से युक्त हो
कर करे और करता रहे.
बाकी इसकी पूरी गतिशीलता के ऊपर कई सिद्धमंडल तथा स्वः लोक के सिद्धो का होता
ही है. लेकिन जो इससे भी उच्चतम सिद्धसदगुरु होते है वह पहले से ही निर्धारण कर के रखते है
की उनके शिष्य किस प्रकार से क्या करेंगे और प्रकृति एसी सिद्धो के विचारों को
अपनी आज्ञा मान कर उसका पालन करने के लिए तत्पर होती है. इस लिए साधक का हर एक साधनात्मक पल इसे महा
सिद्धो से पूर्वनिर्धारित होता है. मेने कहा की इसे गुरु की प्राप्ति केसे संभव है और किस प्रकार से? उन्होंने कहा की इसे गुरु की प्राप्ति सिर्फ तभी हो सकती है जब व्यक्ति पूर्ण
रूप से अपना समर्पण भाव सामने रखे और पूर्ण प्रेममय रहे. इसे महा सिद्धो का दर्शन करना भी जीवन में
उच्चतम साधनात्मक सौभाग्य ही है लेकिन तंत्रग्रंथो में विवरण है की अगर साधक स्वः लोक
से सबंधित सिद्धो से दीक्षा प्राप्त करना चाहे तो गुरुकृपाप्राप्ति मन्त्र गुं गुरुभ्यो नमः का शत लक्ष (एक करोड) जाप करना करना पड़ता है. में मन ही मन तुरंत ही ये सोचमे पड़ गया की सदगुरुदेव की
करुणा कितनी है हम लोगो पर, की वह हमें इतने प्रेम से दीक्षा दे कर हमारा
सारा भार अपने कंधो पर ले लेते है, जब की उसके लिए जो विधान है वह हम कभी जिंदगी
भर भी ना कर पाए.उम्र बीत जाती है सिर्फ इसी आस में की एक दिन
किसी सिद्ध की कृपा प्राप्त होगी लेकिन सदगुरुदेव ने प्रेमपूर्ण हमें जो दिया सायद उस अमूल्य का हमारी
द्रष्टि में कोई मोल ही नहीं है. कितने प्रेम माय हो कर वह हीरक खंड लुटा रहे
थे और हम बस देखते ही रहे.
मन भर आया एक क्षण खुद के लिए ही क्षोभ से.आज इस ज्ञान को प्राप्त कर मन ही मन प्रणाम कर लिया मेने उस
प्रकाशपुंज को जिसने मुझे वापस एक बार यह ज्ञान दिया था की सदगुरुदेव हमें कितना प्रेम करते है.
हाँ एक बात बताना चाहूँगा, ऐसे महासिद्ध जो स्वःलोक से भी कई गुना ऊपर हो वह अपने मूल
रूप में कभी कभी ही दर्शन देते है क्यों की उनके तेज को सहन नहीं किया जा सकता और
उस समय जो शक्ति संचार होता है वह इतना अधिक होता है की साधक अपना आपा खो बेठे.
इस लिए ज्यादातर वह एक प्रकाशपुंज के रूप में ही दर्शन देते है. मुझे जो सिद्ध अभी ज्ञान प्रदान कर रहे थे वह भी ऐसे ही एक
सिद्ध थे. मेने मन ही मन वापस एक बार उस हलकी सी स्वर्ण
चमक लिए हुए शुभ्र प्रकाश पुंज को प्रणाम किया.
Maha
Siddh having the divine body answered my question and said that the suitable
field for the sadhak is the one in which he has interest. Sadhak himself will
start getting attracted towards that field in which he has to move forward. As
I earlier told you this is due to the fact that sadhak may or may not know
about his root/origin, but his subconscious mind definitely have the entire memory.
This subconscious mind of him informs the sadhak about the void and eventually,
he moves forward on the path of sadhna. Therefore the question to ponder over
is not that sadhak will get success in which field. Every Sadhak can get
success in every field provided sadhak has completely surrendered himself to
knowledge-provider. Besides this, knowledge-provider i.e. Guru should have
command over the knowledge. If guru has the knowledge, it is duty of him to
provide it to dedicated disciples. It is also the duty of disciples to
completely surrender themselves beforeGuru. After listening to talks of Siddh,
something struck my mind; felt that I am remembering something but I felt right
to focus my thoughts on the talks of Siddh. Getting rid of all thoughts in
mind, I started paying attention to Siddh’s talks. Siddh told that sometimes
the siddh guru ensures through the combination of birth constellations that
what were the types of sadhnas sadhak did in previous birth and in which field
he should be taken forward.This is due to the reason that he can gain more and
more consciousness from the previous memory. Besides this, Siddh Guru can also
take the decision after seeing the previous life of the disciple. Beyond this,
if Sadguru wishes, he can make his disciple competent in any of the field and
can give competence even in more than one field. Actually, this is not the
question for sadhak; rather it is for Guru that in which field and how much the
success can be given to the sadhak. Therefore it is in interests of sadhak to
pursue the sadhna in which he has the interest. Not because, he does not have
guidance rather this path has been decided by his subconscious mind. Sadhak
definitely get the guidance at correct time but for a definite period, he
should do sadhna in this manner to cleanse himself. I asked does this mean that
sadhak does not have any needto choose the area of interest in front of Guru.
Siddh told when sadhak has completely surrendered himself to the feet of Guru,
then where the question of choice. Sadhak is like an empty vessel and onus lays
on the Guru what to fill in it and how to fill. After listening to talks of
siddh I felt again that I am remembering something but could not understand. I
asked this means that sadhak has to continuously be in sadhna and at the right time,
he gets the guidance of Guru. But if he does not acquire Guru? Maha Siddh
answered that the way sadhak gets assistance in moving forward on the sadhna path,
in the same way siddhs of Swah lok also helps him to decide in what manner he
has to do sadhna. Therefore, it is not a point of concern for sadhak. Sadhak
just has to do sadhna and do it with complete dedication, the burden of his
dynamism lies upon the Siddh Mandal and siddhs of Swah lok. But the highest
siddh Sadguru among them have fixed in advance that what their disciples will
do and in what way and nature simply considers the thoughts of these siddhs as
orders and follow them. That’s why every sadhna-centric moment of these sadhak
is pre-decided by these Maha Siddhs. I asked how one can attain Guru and in
what manner? He told that attainment of Guru is possible only when person is
completely dedicated and remain completely in love. Getting darshan of such
Maha Siddhs is highest fortune in sadhna field but it is mentioned in tantra
scriptures that if sadhak wants to take Diksha from siddhs associated with Swah
lok then he has to chant GuruKripa Prapti Mantraगुं गुरुभ्यो नमः(Gum GurubhyoNamah) 1 crore times. I thought for a moment that how much
compassion Sadgurudev has for us that he
gives Diksha lovingly and take entire burden of us on his shoulders. Whereas
the process for it, maybe we will not be able to do the entire life. The whole
life passes away in the hope that one day we will get blessings of any siddh
but which Sadgurudev has given us with love that is invaluable. How he was
giving away indiscriminately the diamond pieces and we only remained the
spectator. I felt emotional for myself out of agitation. After getting this
knowledge today, I thanked mentally the prakash Punj (collection of light) who
gave me again the knowledge that how much Sadgurudev loves us. I would like to
share onething with you that such Maha siddhs who live much beyond the Swah
lok, they give darshan in their basic form rarely because one can’t bear their
intensity and at that time the power that is circulated is very high. There is
likelihood of sadhak to lose the mental balance. Therefore they mostly give
darshan as Prakash Punj only. The siddh who was providing me the knowledge was
one of such siddhs only. I mentally prayed again to white Prakash Punj having
little golden radiance.
****NPRU****
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