तदा मुक्तिमवाप्नोति योगी
नियतमानस: ||”
योगी निरंतर अभ्यास के द्वारा ही स्वयं को
स्वयं के भीतर देखने में समर्थ हो पाता है और ऐसा हो जाने पर निश्चय ही उसके मन और
नियति से वो मुक्त हो जाता है |
किन्तु कैसा अभ्यास,कैसी क्रिया का प्रयोग
साधक को मन: शक्ति का स्वामी बनने में सहायक होता है,उसके पहले ये समझना ज्यादा
महत्वपूर्ण है की आखिर मन की उपयोगिता साधना की सफलता के लिए इतनी जरुरी क्यों है
?
आपने कहावत तो सुनी
ही होगी की – “मन के हारे हार है और मन
के जीते जीत”
अर्थात यदि आप किसी कार्य को करना चाहते हैं तो
आपको आपके मन का पूर्ण सहयोग आवश्यक होगा,यदि जरा सी भी न्यूनता रही तो एक सरल
कार्य को भी परिस्थितियाँ इतनी जटिलता दे देती हैं की आपका सफल होना नामुमकिन ही हो
जाता है |
ये तो हुआ कहावत का सामान्य अर्थ किन्तु एक
साधक अपने मतलब का अर्थ इस कहावत में ऐसे ढूँढ लेता है की यदि आप जीवन युद्ध में अपने मन से हार जाते हो तो भविष्य में आप कभी
नहीं जीत पायेंगे,किन्तु यदि आपने मन को अपना स्वामी बनाने की अपेक्षा खुद उस पर
नियंत्रण स्थापित कर उसका स्वामी बन जाए तो,तब ऐसे में वो मन की अनंत शक्तियों का
प्रयोग कर प्रत्येक परिस्थिति को अपने अनुकूल बना सकता है |
मन के दो पक्ष होते हैं –
१.
बाह्य
पक्ष या बाह्य मन
२.
अंतर
पक्ष या अन्तः मन
वास्तव में ये दो मन
ना होकर मन के दो पहलु होते हैं | और सम्पूर्ण तंत्र क्रिया की सफलता इन्ही दोनों
पहलुओं को आपस में मिलाने से सिद्ध होती हैं, बाह्य से भीतर की यात्रा ही तो तंत्र
योग या साफल्य योग कहलाता है | अपरा से परा पथ पर अग्रसर होने की क्रिया मन के
इन्ही दोनों पक्षों का योग करने से पूरी होती है तब जाकर मन पर ना सिर्फ नियंत्रण
हो पाता है अपितु वो अपनी अनंत शक्तियों से साधक को परिपूर्ण कर देता है |
१.अनियंत्रित मन या अर्धनियंत्रित मन साधक के जीवन में मात्र भटकाव
ही लाता है |
२. ऐसी स्थिति में साधक ना तो गुरु के प्रति समर्पित हो पाता है और ना
ही साधना के प्रति वो पूर्ण श्रृद्धावान रह पाता है |
३.चरित्र की स्वच्छता मन के सहयोग पर ही तो निर्भर करती है, मन ही
हमें संबंधों के प्रति निष्ठावान बनाता है |अन्यथा विकृत मन किसी भी रिश्तों की
मर्यादा हमें समझने नहीं देता, तब ऐसे में माँ,बहन,बेटी जैसे पवित्र रिश्तों के
प्रति भी आपका स्नेह कामुकता में परिवर्तित हो जाता है | आज हम जो भी ऐसी खबरे
सुनते,देखते या पढते हैं,वो सभी इसी विकृत मन के दुष्परिणाम ही हैं |
४. मन ही प्राण और आत्मा के साथ योग कर आपको पूर्णता देता है,और जब
किसी में इनके मध्य का बल कमजोर हो जाता है तो ऐसे में व्यक्ति ना सिर्फ कमजोर
मनोबल का स्वामी होता है बल्कि उसकी किसी भी क्षेत्र में सफल होने की संभावना ना
के बराबर ही होगी |
५. ऐसा व्यक्तित्व अपने जीवन में किसी को प्रभावित नहीं कर सकता,और ना
ही वो अपने लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त कर पायेगा |
६. ऊपर के बिंदु पढ़ने के बाद क्या ये नहीं लगता है की साधना में सफलता
तो बहुत दूर की बात होगी |
किन्तु यदि किसी क्रिया विशेष से मन के दोनों
पक्षों का योग करवा दिया जाये तो मनोबल,प्राणबल और आत्मबल के पूर्ण योग से साधक
पूर्णत्व को प्राप्त करता ही है | ये दो प्रकार से संभव है |
१.
क्रिया
योग द्वारा
२.
तंत्र
साधना की क्रम साधना के द्वारा
सदगुरुदेव ने बहुत पहले “क्रिया योग” पर
पूरा ८ दिवसीय शिविर लगाया था और इस क्रिया को प्रायोगिक रूप में संपन्न करवाया था
| वास्तव में मन की दोनों अवस्था का योग करने पर साधक अनंत रहस्यों की कुंजी पा
लेता है तब दीर्घायुष्य, दिव्यता उसे सहज ही प्राप्त हो जाती है |
मानव शरीर में जो सप्तचक्रों का विवरण आता है
वो प्रतीक है उन सप्त अवस्थाओं का उन सप्त अवस्थाओं का जो अपूर्णता से पूर्णता की
और बढते हुए क्रमशः हस्तगत होते जाती है, सदगुरुदेव कहते हैं की वैसे सम्पूर्ण
शरीर में चक्रों की संख्या १०८ होती है किन्तु मूल शक्ति केन्द्रों के रूप में सात चक्रों को
मान्यता दी गयी है | हमने ऊपर मन के दो पक्षों की बात की है या दो अवस्थाओं की बात
की है | किन्तु इन अवस्थाओं के बीच में सात परते होती हैं जिनका क्रमिक भेदन करने
के बाद ही दोनों पक्ष एक हो पाते हैं, तब ना बाह्य चेतन मन होता है और ना ही अचेतन
मन, तब होता है तो मात्र पूर्ण
संचेतन मन | और इसी की
प्राप्ति एक साधक का अभीष्ट होती है |
मन
के ये सात स्तर निम्नानुसार होते हैं -
१.
चेतन
२.
स्मृति
३.
अवचेतना
४.
सर्जना
५.
जीवनात
६.
गर्भसुविस्तृता
(अन्तश्योग)
७.
ब्रह्माण्ड
चेतना
और मन के दोनों पक्षों के मध्य इन्ही सात परतों
से विभक्त है | सामान्य मानव बाह्य मन की अवस्था में ही जीता है और फिर वैसे मर
जाता है,ना तो कोई उपलब्धि उसे प्राप्त होती है और ना ही जीवन का कोई लक्ष्य ही |
मैं मात्र इतना बता दूँ की सदगुरुदेव हमेशा से यही कहते हैं की इन परतों में से जो
पहली का भी भेदन कर लेता है वो जीवनमुक्ति और भोग दोनों प्राप्त कर लेता है तब
दूसरी तीसरी,चौथी,पांचवी आदि की शक्तियों का भला क्या वर्णन किया जा सकता है |
अब बात करते हैं इनकी भेदन प्रक्रिया की तो “शिवलिंग” के
बिना ये लगभग असंभव है | अतः एक प्राण प्रतिष्ठित शिवलिंग आपके पास होना अनिवार्य
है | कैसा भी शिवलिंग आपके पास होना चाहिए | मैं पारद शिवलिंग का
प्रयोग ज्यादा उचित समझती हूँ ,क्यूंकि अन्य तत्वों की अपेक्षा आत्मबल और
ब्रह्मांडीय ऊर्जा का सबसे बड़ा केंद्र विशुद्ध पारद होता है | क्रमशः अन्य
तत्वों,धातुओं से निर्मित शिवलिंग में उत्तरोत्तर ऊर्जा की तीव्रता मंद होते जाती
है | शिवलिंग के तीन प्रकार होते हैं |
१.
ईष्टलिंग
२.
प्राण
लिंग
३.
भाव
लिंग या आत्म लिंग
ईष्ट लिंग बाह्य और
सकल लिंग होता है और क्रम साधना के प्रथम स्तर का जागरण और भेदन के लिए आपको अपने
बाएं हाथ में शिवलिंग का स्थापन कर दाहिने हाथ के मध्यमा और अनामिका ऊँगली का
स्पर्श कराकर मंत्र का जप करना होता है ......
क्रमशः .....
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“NirantarKritaAbyaasadantrePashyatiDhruvam
|
Tada Muktimvaproti
Yogi Niyatmanasah ||”
Yogi, only upon continuous
practice, becomes capable to see himself inside him and when it happens, he
frees himself from mind and destiny.
But which practice, which process
helps sadhak to become master of the power of mind. Before this, it is very
much important to understand that why; afterall, the
utility of mind is so much necessary for success in sadhna?
You all would have listened to
proverb in Hindi that ---“Man
kehaarehaarhainaur man kejeetejeet”(Victory lies in conquering our mind)
Meaning if you want to do any work
then complete cooperation from your mind is necessary. If there is even a
little bit of deficiency, then even the simple tasks are made to look
cumbersome by the circumstances and it becomes impossible for you to get
success.
This was the simple meaning of the
proverb but the sadhak derives his own interpretation from this proverb that If you loses to your mind in the battle of life then you can
never win in future. But if instead of mind becoming your master, you become
its master after establishing control over it then in that case you can utilize
the infinite powers of mind and make every situation favourable.
There are two aspects of mind-
1.
Outer
aspect or Outer Mind
2.
Inner
aspect or Inner mind
In reality, they are not two minds
rather they are two facets of mind. Success of entire tantra process lies in
combining both these aspects together. Journey from outer to inner world only is
called Tantra Yog or Safalya Yog. Advancing forward on Para path from Apara
Path is completed when these two aspects are united. Then only, mind not only
gets controlled but also mind, with its infinite powers, makes the sadhak
complete.
1.
Uncontrolled
mind or half-controlled mind only deviates the sadhak off the track in his
life.
2.
In
such a situation sadhak neither remains dedicated to his Guru nor develop a
sense of trust towards sadhna.
3.
Purity
of our character depends only on cooperation from our mind. Mind only makes us
faithful towards our relations. Otherwise, distorted mind never allows us to
understand the dignity of any relationship. In such a case even your love
towards pure relations of mother, sister and daughter is transformed into lust.
Today the news we see, hear or read is the ill-consequences of this distorted
mind only.
4.
Mind
only gives you completeness after combining with praan and soul. And whenever
the strength between them is weakened in any person then in such a case person
does not only become master of low morale but also chances of his succeeding in
any field are negligible.
5.
Such
a personality can never impress anyone in his life and nor he will be able to
successfully attain his goal.
6.
Do
you not feel after reading the above points that success in sadhna will be
distant dream for him?
But if, by any special process,
these two aspects of mind are united then due to the total combination of
Praanbal, Manobal and AatmBal, sadhak definitely attains the completeness. This
is possible in two ways.
1.
Through
Kriya Yog.
2.
Through
Kram sadhna of tantra sadhna.
Sadgurudev, very much earlier,
conducted 8 day shivir on “Kriya Yog” and made
us do this process practically. In reality, upon doing union of these two
states of mind, sadhak gets key to infinite secrets .Then he easily attains
divinity and long life.
The description which we get of
seven chakras in human body, they are the indicator of those seven states
(those seven states, which are attained respectively while progressing towards
completeness from incompleteness).Sadgurudev said that though there are 108 chakras in entire body but seven chakras have been
recognized as the basic power centres. We have discussed about the two aspects
or two states of mind but between these two states there are seven layers.
Their respective bhedan leads to a state where these two aspects become one.
Then there is neither outer conscious mind nor subconscious mind. Then what
remains is only full conscious mind. And
attaining this state is the aim for any sadhak.
The seven levels of minds are as
follows-
1.
Chetan
2.
Smriti
3.
Avchetna
4.
Srajana
5.
Jeevanaat
6.
GarbhSuvistrita(Antashyog)
7. Brahmand Chetna
And between the two states of mind,
these are the seven layers.
Normal person lives in the states
of outer mind and dies also in such a state. Neither he gets any achievement
nor does he attain any goal of his life. I may tell you one fact that
Sadgurudev used to say that who does the bhedan of only first layer among these
layers; he not only frees himself from life but attains bhoga also. Now, how
can we describe the powers of second, third, fourth, fifth etc.
Now we will talk about the bhedan
process which is virtually impossible without Shivling.
Therefore, it is necessary for you to have an energized Shivling.Any type of
Shivling you can have. I prefer the use of Parad
Shivling because as compared to other elements, centre of universal energy
and spiritual power is pure Parad. Respectivelyin the Shivling made from other
elements or metals, intensity of power successively goes on decreasing. There
are three types of Shivling
1.
Ishtling
2.
Praan
Ling
3.
Bhaav
Ling or Aatm Ling
Isht ling is an outer and total
ling. For the first stage of jagran and bhedan in Kram sadhna, you have to
establish Shivling on your left hand and chant the mantras while touching Shivling
with middle and ring finger….
To be Continued….
****RAJNI NIKHIL****
****NPRU****
lekh bahut achchha hai,ati gyaanvardhak hai,hamein pratiksha hai......aage ke matter ki. jai sadgurudev
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