Person,
in his journey from life to death, considering all the novel aspects of life,
spends his time in fulfillment of his duty and his wishes and one day reach the
graveyard. Living a normal and materialistic life and then dying is the normal
course of human life and this has been going on from so many centuries and most
of the persons indulge themselves in this blind race in their life. In reality,
all life is spent in considering our knowledge, knowledge of persons and
proposed knowledge as special and in fulfillment of desires and aspirations of
ourselves and other persons. There is nothing special in it and nor we obtain
any special type of knowledge. But deep inside, every person feels unsatisfied
that why he is present? What is the reason for his existence? What is the cause
behind his existing condition and life? And how can he get the answers to the
question arising in his inner self?
The
best moment of human life is when he rises himself from normal life and advance
forward to do something special, advance forward to find answers to his own
questions and decides to live some moments of his life for himself ,for his
soul. This is best because he has put his strides on the path to discover himself.
He advances forward to know his inner and outer form. As long as he does not
know about himself, he can be called merely one machine which works, take rest
and perform activities just because he has to do them because of his habits,
compulsion or desire whatever you can say. But in reality, he does not possess
more knowledge than this about himself. That’s why he stops like a machine.
That’s why when person take first step in discovery of ‘Sva” (knowing about
himself) , from that moment he becomes different from others. But what is this
“Sva” and what is its origin?
For
example, the way each person can connect to entire world through telephone if
he knows how to use it, in the same way every static and dynamic thing of the
universe is connected to their root Bramha. Bramha is an invisible authority
which is in its split up form is universe. But he is not merely static thing
but also has dynamism in it.In other words, the physical form of universe and
all the powers directing it in correct way , if given one shape then it will be
called shape of Bramha which in reality we accept as Ishtany god or goddess.
Here the meaning of universe has to be taken not only in outer form but also in
the inner form. Because Bramha is both inside us and outside also then its
split up form i.e. universe also will definitely be.
Now
every split up part, it may be any part of universe, from dust particle to
human beings, tree, mountain or river, all has Bramha inside it because it is
undivided part of universe. Every static and dynamic thing has its own power
and its own form. The outer form is Bramha and inner power is Aadi Shakti. And
coordination of these two is Bramha. This coordination goes on in nature as per
one universal rule. Forexample, origin/production of new trees, their
germination, seed and their germination again, vanishing of old tress and
rising of new trees etc. or formation of clouds from water droplets through sun
and then raining. This direction or their connection with Bramha goes on in an
orderly way. In other words, all these activities happens only to that extent
for which they are made or sphere of work of all things are only to the extent
of their contribution to dynamism of universe.
Human
being, in itself, is an amazing creation of universe. Composition of human body
is very special and the quantum of elements and their combination inside it is
very special which we have already discussed in Aavahan series. Human being is
that part of universe which is bound by auto-directed rules of universe but if
he wishes, he can free himself from this rule. His field of work is limited and
his creation has been done to give definite contribution to dynamism. But he
can himself choose his own contribution and can decide how and where to combine
his work in the motion of universe. This is because person can attach himself
to that authority portion of Bramha which controls everything, where sequence
of construction, maintenance and destruction goes on .The power underlying this
specialty of human being is none but kundalini Shakti (serpent power).
Kundalini power is that power which
saves us from that rule of universe that says person is born only for one
definite purpose and after it, his identity will vanish.Definitely,it is
necessary for dynamism of universe that person does his definite work and
dynamism remains in its basic form.Therfore this energy is in state of dormancy
or sub-consciousness. Due to this, person is unaware about its own gigantic authority
or power and he works also considering himself as normal part of universe.
”Urdhva Gati” means only this that we rise upwards and using the medium of
kundalini power, we do not become machine, not merely one part of this stage.
Rather than becoming merely thing for this dynamism, we should become something
in ourselves and we can become one part of that authority which is basis for
all activities, which is entire power in itself, which is coordinated form of
Shiva and Shakti. This whole journey is called kundalini journey.( Apologies
for this long introduction but it is necessary that person should know that
after all why there is existence of kundalini and how person takes the help of
kundalini)
व्यक्ति जन्म से ले कर के मृत्यु तक की
अपनी यात्रा में जीवन के नविन पक्षों को ध्यान में लेता हुआ अपने कर्तव्य निर्वाह
तथा इच्छाओ की पूर्ति में उसका व्यय कर देता है तथा एक दिन अपने आप को मृत्यु के
मुख में धकेल देता है, सामान्य तथा भोग पूर्ण जीवन
जीना और मृत्यु को प्राप्त हो जाना यह तो सामान्य क्रम है मनुष्य जीवन का, और
यह क्रम न जाने कितनी सदियों से चलता आ रहा है और ज्यादातर व्यक्ति अपने जीवन में
इस प्रकार की अंधी दौड में जुट जाते है.
वस्तुतः खुद के ज्ञान तथा लोगो के ज्ञान
तथा प्रस्तावित ज्ञान को ही विशेष मान कर तथा जीवन में दूसरे व्यक्तियो की और
स्वयं की भोग लालसा को ही पूरा करने में जीवन निकल
जाता है, न
ही कोई इसमें विशेष क्रम होता है न ही कोई विशेष प्रकार का ज्ञान ही इसमें प्राप्त
होता है. लेकिन
हर एक व्यक्ति को अपने अंतर में एक असंतोष जरुर होता है की वह आखिर क्यों है?
उसका
अस्तित्व क्यों है? उसकी आज जो भी स्थिति है और
जीवन है वह किस लिए है और उसके अंतर मानस में जो प्रश्न है उसके जवाब उसे किस
प्रकार से मिल सकते है.
मनुष्य जीवन का सब से उत्तम क्षण होता
है जब वह अपने अपने सामन्य जीवन से ऊपर उठ कर कुछ विशेष करने की और अग्रसर होता है, अपने
प्रश्नों के जवाब खोजने के लिए अग्रसर होता है तथा अपने खुद के लिए आत्म के लिए
जीवन के कुछ क्षण जीने का निर्णय करता है.
यह उत्तम इस लिए है क्यों की वह अपने ‘स्व’ की
खोज के लिए गतिशील होता है.
अपने अंतर और बाह्य स्वरुप के बारे में
जानने के लिए अग्रसर होता है. जब
तक उसे स्व का बोध नहीं है तब तक उसे एक यंत्र ही
कहा जा सकता है जो की काम करता है, आराम
करता है और क्रियाकलाप करता है क्यों की उसे यह सब करना उसकी आदत मज़बूरी या इच्छा
कहे लेकिन हकीकत में उसके पास उससे ज्यादा अपने बारे में कुछ ज्ञान होता ही नहीं
है इस लिए वह एक यन्त्र की भांति बंद जाता है.
इस लिए जब स्व की खोज के बारे में
व्यक्ति आगे बढ़ने के लिए पहेला कदम उठता है तत्क्षण वह दूसरे मनुष्यों से भिन्न हो
ही गया है. लेकिन ये स्व है
क्या और इसकी शरुआत कहा से होती है?
उदाहरण के लिए जिस प्रकार से एक एक
व्यक्ति टेलीफोन से पूरी दुनिया से जुड सकता है अगर उसे पता है की टेलीफोन का
उपयोग वह किस प्रकार से कर सकता है.
उसी प्रकार से ब्रम्हांड का हर एक जड़ और
चेतन पदार्थ अपने मूल ब्रम्ह से जुड़ा हुआ है. ब्रम्ह
एक अद्रश्य सत्ता है जो की विखंडित रूप में ब्रम्हांड है. लेकिन
वह पदार्थ मात्र नहीं है वह गतिशीलता भी है.
मतलब की ब्रम्हांड का स्थूल स्वरुप और
उसको सही रूप से संचालित करने वाली सारी शक्ति को अगर एक आकार दे दिया जाए तो उसे
ब्रम्ह का आकार कहा जाएगा जो की वस्तुतः हम इष्ट के रूप में किसी भी देवी या देवता
को स्वीकार कर लेते है. यहाँ
पर ब्रम्हांड का
जो अर्थ है उसे मात्र बाह्य रूप में ना ले कर आतंरिक रूप से भी लेना है. क्यों
की ब्रम्ह हमारे अंदर भी है और बाहर भी है तो इसका विखंडित रूप यानी ब्रम्हांड भी
तो निश्चित रूप से होगा ही.
अब हर एक विखंडित भाग चाहे वह ब्रम्हांड
का कोई भी भाग हो, धुल के कण से ले कर मनुष्य
वृक्ष या पहाड़ नदी कुछ भी.
सब के अंदर ब्रम्ह है क्यों की वह
ब्रम्हांड का एक अविच्छेदीय भाग है. हर
एक जड़ और चेतन की अपनी एक शक्ति होती है तथा अपना एक स्वरुप होता है. वह
बाह्य स्वरुप शिव है तथा आतंरिक शक्ति ही आदि शक्ति है. तथा
इन दोनों का समन्वय ही ब्रम्ह है.
यह समन्वय प्रकृति में एक ब्रम्हांडीय
नियम के अंतर्गत चलता ही रहता है. उदहारण
के लिए वृक्षों की उत्पति, अंकुरण, बीज, फिर
से अंकुरण पुराने वृक्षों का खतम हो जाना और नए वृक्षों का उदय होना इत्यादि. या
फिर पानी की बूंदों से सूर्य के द्वारा बादल बनना
और फिर बरसात होना.
यह सञ्चालन या ब्रम्ह से उनका जुड़ाव
नियम बद्ध रूप से चलता रहता है अर्थात यह सारे क्रिया कलाप इतने ही होते है जितने
के लिए इन्हें बनाया गया है या सारे पदार्थो का कार्य क्षेत्र मात्र उतना होता है
जितना वो ब्रम्हांड की गतिशीलता शक्ति में अपना
योगदान दे सके.
मनुष्य अपने आप में ब्रम्हांड की एक
अद्भूत रचना है.
मनुष्य के शरीर की संरचना अति विशेष है
और इसमें तत्वों का प्रमाण और संयोजन अति विशेष होता है जिस के बारे में हम आवहान
लेख श्रृंखला में चर्चा कर चुके है. मनुष्य
ब्रम्हांड का एक ऐसा विशेष भाग है जो की
ब्रम्हांड के स्वयं संचालित नियम से बंधा हुआ है लेकिन अगर वह चाहे तो अपने आप को
इस नियम से मुक्त कर सकता है.
उसका कार्य क्षेत्र सिमित है तथा उसकी
रचना गतिशीलता में निश्चित योगदान देने के लिए हुई है लेकिन वह अपने योगदान का
चुनाव खुद कर सकता है तथा ब्रम्हांड की गति में उसको
कहा और किस प्रकार के केसे अपना कोई भी कार्य जोड़ना है वह सुनिश्चित कर सकता है. क्यों
की मनुष्य अपने आप को ब्रम्ह के उस सत्ता भाग से जोड़ सकता है जहा से सर्वस्व का
नियंत्रण होता है, जहा
पर नित्य सर्जन पालन और संहार क्रम चालू ही रहता है.
मनुष्य में यह विशेषता के लिए कारणभूत
जो शक्ति है वह है कुण्डलिनी शक्ति.
कुण्डलिनी शक्ति वह शक्ति है जो हमें
ब्रम्हांड के उस नियम से बचाती है की व्यक्ति एक निश्चित कार्य के लिए ही बना हुआ
है और उसके बाद उसका अस्तित्व विलिन हो जाएगा.
निश्चित रूप से ब्रम्हांड
की गतिशीलता के लिए यह अनिवार्य है की व्यक्ति उसके निश्चित कार्यों को करे और
गतिशीलता अपने मूल रूप में ही रहे.
इसी लिए यह ऊर्जा सुसुप्त होती है,
या
अवचेतन होती है.
जिससे की व्यक्ति को अपनी विराट सत्ता
या शक्ति के बारे में बोध नहीं होता है और वह भी अपने
आप को ब्रम्हांड का एक सामन्य भाग मान कर ही कार्य करता रहता है. उर्ध्वगति
का अर्थ यही है की हम ऊपर उठे, तथा
कुण्डलिनी शक्ति के माध्यम से एक यन्त्र न बन कर, मात्र
इस रंगमंच का एक भाग ना बन कर, इस गतिशीलता के
लिए एक निमित पदार्थ ना बन कर, स्वयं में कुछ
बने और बन सकते है उस सत्ता का ही एक भाग जो की यह सारे क्रिया कलाप के लिए आधार
है. स्वयं
में समस्त शक्ति है, शिव
और शक्ति का सम्मिलित स्वरुप है.
इस पूरी यात्रा को कहा है कुण्डलिनी
यात्रा. (इतनी लंबी
भूमिका के लिए खेद है लेकिन यह ज़रुरी है की व्यक्ति को यह ज्ञान हो की आखिर
कुण्डलिनी का अस्तित्व क्यों है और मनुष्य आखिर किस प्रकार से कुण्डलिनी की सहायता
लेता है.
****NPRU****
Effective meaning of life with the simplest of words.... Really good!!!!
ReplyDeleteMeaning of life with the simplest of words.... Really good!!!! Looking forward for further articles of this series.
ReplyDeleteWith poojya gurudev's blessings we receiving great knowledge from you for our sadhana progress.
ReplyDeletePlease write more on kundalini for us help us to understand the sadhana path.
Love
kumaraguru