Wednesday, August 1, 2012

SOME NECESSARY FACTS REGARDING YAKSHINI SADHNA PART 3(यक्षिणी साधना के परिपेक्ष में कुछ आवश्यक तथ्य 3)


 
Mental Background which we create before doing any sadhna so as to get the results, taking mental thoughts as base, is called Bhaav (feeling).
Primarily, there is mention of three Bhaavs in Tantra.
Pashu Bhaav
Veer Bhaav
Divya Bhaav
These three bhaav carries an expanded meaning and sadhak can do any sadhna in any one of these three bhaavs.
If seen from normal meaning point of view, then doing any sadhna with ignorance or while taking into consideration only body is Pashu Bhaav. When sadhak does the sadhna with full courage so as to attain the power, it is called Veer Bhaav. In Veer Bhaav, Sadhak not only uses body but also works internally for circulation of power. .Divya Bhaav is above these two bhaavs, this bhaav is bhaav of unification and no difference remains between sadhak and Isht. In Tantra, only Kaul Maarg sadhnas have been called Divya Bhaav sadhnas or sometimes in Kaul Maarg and Siddhantachar, Divya Bhaav is used, such descriptions are available. Sadhak only after successively attaining completeness in Pashu Bhaav and Veer Bhaav is initiated to Divya Bhaav.
Here we will discuss about first two Bhaavs.The person who sees Yakshini and Apsara sadhnas in relation with physical pleasure, their sadhna is Pashu Bhaav sadhna or the person who does the sadhna with dreadful mentality or does it as slave considering Saadhy as best ,that sadhna is also called Pashu sadhna. These two are called Pashu Bhaav sadhna because at the time of doing sadhna, mental condition of sadhak rests completely on physical base and sadhak’s mentality rests only on body. But Soundarya sadhna is Veer Bhaav sadhna. Therefore if sadhak does this sadhna with Pashu Bhaav, then definitely, he can’t get success. Sadgurudev has told this thing so many times.
Now here we discuss about Veer Bhaav that if we do sadhna with Veer Bhaav then what is meaning of it?
Here two types of power (Shakti) work for person. Physical power and Mental Power. In both the states of our body and mind, our attention should be focused on sadhna only. And sadhna should not be only seen from outer form rather it should be seen and understood from inner form too.How? Yakshini is not merely Bhogya.And Soundarya sadhna is basically sadhna of Soundarya element. It is sadhna of basic nature. Description relating to it has been given so many times. How it is necessary for inner beauty and outer beauty to meet in suitable way? And Soundarya does not mean only beauty. Here basis of Soundarya is not merely physical. Here basis of Soundarya is nature. If sadhak attains Soundarya and he is unable to earn bread then what is use of it? Sadhak could feel that Soundarya in his surroundings nearby and feel gratified. And this sadhna can’t be done with Pashu Bhaavs.The reason for it is also that Soundarya sadhna does not merely pertains to physical body.
Now how it will be possible that how we can combine physical and mental powers in sadhna?
First of all, sadhak has to rise above this fact that this is not sadhna of Bhogya.Sadhna process is far-off thing. If sadhak understands these sadhnas deeply then definitely he can do these sadhnas with Veer Bhaav.
I would like to introduce sadhak with some important facts.
Sadhna procedure is done in physical manner, your aasan, yantra, Mantra Jap and showing Mudras etc all these are done in physical form. The most essential element mentally is your determination and strong trust. Your state of mind reaches the Isht and if your determination is deteriorating that I can’t do or this is not possible for me then manifestation is not possible. Besides this, manifestation will definitely happen in strong-trust sadhnas because basis of intensity of your mantra depends on it only. But for the intensity in these sadhnas, one very important fact has been told by Sadgurudev and that is Krodh (Anger) Mudra. Krodh Mudra exhibits manhood but it has to be understood a little bit. When we are angry, then our mental condition is exhibited physically. If we sit stretching fist also but still our mind is full of apprehensions whether is it possible or not? Then it is not possible. In other words, there is neither Krodh nor Krodh Mudra. Krodh is process to gather all the power in mind and concentrate it on one thought whereby only aim becomes everything and then there is no need to stretch fist then fist will stretch itself. In such way we have to do sadhna in this mental state and show corresponding physical conduct and do sadhna in veer Bhaav.
Now we come back again to yesterday’s issue because we have to make Mandal in such a way that we attain success in Yakshini sadhna. Then how it should be made so as to inculcate Veer Bhaav in it? For this, it is necessary to use Beej Mantras. Capability of each Beej Yantra is beyond our imagination. But here I would like to mention that if this type of Mandal Vidhaan is combined with Krodh Beej then it will inculcate same bhaav in sadhak. For this reason, this Mandal Vidhaan is called Krodh Beej Yukt Aakash Mandal Yantra Procedure.
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परिणाम को प्राप्त करने के लिए हम जिस प्रकार मानसिक विचारों का आधार बनाकर साधना शुरू करने के लिए जिस मानसिक पृष्ठभूमि का निर्माण करते है उसे ही भाव कहा जाता है.

मुख्य रूप से तंत्र में तिन भाव के बारे में उल्लेख मिलता है.
पशुभाव
वीरभाव
दिव्यभाव

इन भावो का अपना अपना विस्तृत अर्थ है तथा साधक कोई भी साधना इन तिन भावो में से किसी एक भाव से युक्त हो कर करता है.
इसका सामान्य अर्थ निकाला जाए तो पशु अर्थात अबोध भाव से या सिर्फ शरीर को ध्यान में रख कर किसी भी साधना को करना पशुभाव है. जिस साधना में साधक शौर्य से परिपूर्ण हो शक्ति को प्राप्त करने का भाव रख कर साधना करता है उसे वीर भाव कहा जाता है. वीर भाव में साधक मात्र शरीर से ही नहीं आतंरिक रूप से शक्ति के संचार के लिए कार्यरत हो जाता है. दिव्यभाव इन दोनों भाव से ऊपर है, यह भाव एकीकरण का भाव होता है तथा साधक और इष्ट में कोई भेद नहीं रहता है. तंत्र में कॉल मार्ग की साधनाओ को ही दिव्य भाव से युक्त साधना कहा गया है या फिर कई बार कॉलमार्ग तथा सिद्धंताचार में ही दिव्यभाव का प्रयोग हो सकता है ऐसा विवरण मिलता है. साधक क्रमशः पहले पशुभाव तथा वीरभाव में पूर्णता प्राप्त करने पर मात्र ही उसे दिव्यभाव की और अग्रसर किया जाता है.

यहाँ पर हम प्रथम दो भाव की चर्चा करेंगे. जो व्यक्ति यक्षिणी तथा अप्सरा साधनाओ को शारीरिक सुख से सबंध में साधना देखता है उसकी साधना पशुभाव युक्त हो जाती है या जो व्यक्ति खुद को दारुण मानसिकता के साथ या दास हो कर साध्य को सर्वश्रेष्ठ मानकर भी इस साधना को करता है वह भी पशुभाव युक्त साधना कही जाती है. यह दोनों को पशुभाव की साधना इस लिए कहा गया है क्यों की यह साधना करते वक्त साधक की मनःस्थिति पूर्ण रूप से शारीरिक धरातल पर ही स्थिर है. और साधक की मानसिकता सिर्फ शरीर पर ही स्थिर है. लेकिन सौंदर्य साधना वीर भाव की साधना है. इस लिए अगर साधक इसे पशुभाव के साथ सम्प्पन करता है तो सफलता निश्चित रूप से मिल ही नहीं सकती. यही बात सदगुरुदेव भी कई बार बता चुके है.

अब यहाँ पर हम वीरभाव की चर्चा करते है की अगर इस साधना को वीर भाव के साथ करना है तो इसका अर्थ क्या हुआ.

यहाँ पर व्यक्ति की दो प्रकार की शक्तियां कार्य करती है. शारीरिक शक्ति तथा मानसिक शक्ति. हमारे शरीर तथा हमारे मनः दोनों स्थितियो में हमारा ध्यान मात्र हमारी साधना ही हो. और साधना को मात्र बाह्य रूप से ना देख कर आतंरिक रूप से भी देखा तथा समजा जाए. कैसे? यक्षिणी मात्र भोग्या नहीं है. और सौंदर्य साधना मूलतः सौंदर्य तत्व की साधना है. मूल प्रकृति की साधना है. इसके बारे में कई बार विवेचना दी जा चुकी है. किस प्रकार आतंरिक सौंदर्य तथा बाह्य सौंदर्य का मिलाप योग्य रूप से होना ज़रुरी है. और सौंदर्य का अर्थ मात्र खूबसूरती नहीं है. सौंदर्य का आधार सिर्फ यहाँ पर शरीर नहीं है. यहाँ पर सौंदर्य का आधार है प्रकृति. अगर साधक को सौंदर्य प्राप्त भी हो जाए और उसके घर में दो समय रोटी नहीं हो तो क्या अर्थ  है? साधक के आस पास की प्रकृति में साधक को उस सौंदर्य का अहेसास हो सके, तृप्ति का बोध हो सके. और इस साधना को पशुभाव से नहीं किया जा सकता इसका कारण भी यही है की सौंदर्य साधना मात्र शरीर से सबंधित नहीं है.

अब यह किस प्रकार से संभव होगा की हम मानसिक तथा शारीरिक दोनों शक्तियों को साधना में जोड़ दे ?
सर्वप्रथम साधक को इस बात से ऊपर उठाना होगा की यह भोग्या की साधना नहीं है. साधना प्रक्रिया तो बहोत बाद की बात है. अगर साधक इन साधनाओ की गंभीरता को समज सकता है तो निश्चित रूप से वह वीरभाव से युक्त हो कर साधना कर सकता है.
साधक को कुछ आवश्यक तथ्यों से यहाँ परिचित कराना चाहूँगा.

शारीरिक रूप से आपकी साधना प्रक्रिया होती है, आपका आसान, यन्त्र,  मंत्रजाप, मुद्राप्रदर्शन आदि सभी शारीरिक रूप से होता है. मानसिक रूप से सर्व आवश्यक तत्व है आपका मनोबल तथा दृढ विश्वास. आपकी मनः स्थिति इष्ट साध्य तक पहोचाती है और अगर आपका मनोबल टूट रहा है की में नहीं कर सकता या मुझसे तो ये संभव ही नहीं है तो प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है. इसके अलावा दृढ विश्वास की साधना में प्रत्यक्षीकरण होगा ही क्यों की यह आपके मंत्रो की तीव्रता का आधार इस पर ही आधारित है. लेकिन इन साधनाओ में तीव्रता के लिए एक और नितांत आवश्यक तथ्य सदगुरुदेव ने बताया है. वह है क्रोधमुद्रा. क्रोध मुद्रा पौरुष का प्रदर्शन करती है. लेकिन इसके बारे में थोडा समजना होगा. जब हम क्रोध में हो तो मानसिक धरातल से शारीरिक धरातल का प्रदर्शन होता है. अगर हमने मुट्ठी तन कर बैठ भी गए है लेकिन मन में तो यही है की ऐसा होता हे भी की नहीं? तो ये नहीं हो सकता. मतलब की क्रोध है ही नहीं और ना ही क्रोध मुद्रा है. क्रोध सारी शक्ति को मन में एकत्रित कर एक ही विचार पर केंद्रित करने की प्रक्रिया है जहां पर किसी भी तरह लक्ष्य मात्र ही सब कुछ हो जाता है और तब मुट्ठी बांधने की ज़रूरत नहीं है तब मुट्ठी अपने आप तन जाती है. इस प्रकार से यह मानसिक तथा उसके अनुरूप शारीरक आचरण से युक्त होना ही साधना को वीरभाव से युक्त हो कर साधना करना है.

अब हम वापस अपने कल वाले मुद्दे पर आते है. क्यों की मंडल हमें उस प्रकार से निर्माण करना है जिससे की हमें यक्षिणी साधनामें सफलता मिले, तो उसे वीरभाव से संचारित करने के लिए क्या उसका निर्माण कैसे हो. इसके लिए ज़रुरी है बीज मंत्रो का प्रयोग. हर एक बीज मंत्र की सामर्थ्य कितनी हो सकती है यह कल्पना से बाहर का विषय है लेकिन यहाँ पर में उल्लेख करना चाहूँगा की अगर इस प्रकार का मंडल विधान क्रोधबीज से युक्त हो तो वह साधक में भी वाही भाव का संचार करेगा. इस लिए इस मंडल विधान को क्रोधबीज युक्त आकाशमंडल यन्त्र प्रक्रिया कहा जाता है.

****RAGHUNATH NIKHIL****
****NPRU****

1 comment:

  1. Hats off brothers!!! The truth was stripped off finally. This explanation is enough to understand hw important these mandals are to induce appropriate emotions into human psyche while doing sadhana.

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