Thursday, January 29, 2009

भैरवी गुटिका से सिद्ध सूत निर्माण

पारद तंत्र के जगत में कई गोपनीयता और रहस्यों का मेल रहता है। शायद इसलिए ये बरबस ही आपको अपनी और खीचता रहता है . हम ये नही कह सकते की जिसका विवरण हमने कभी पढ़ा नही या देखा नही उसका अस्तित्व ही नही है . बहुत बार ऐसा होता है की जब सदगुरुदेव कोई ज्ञान दे रहे होते हैं तो हमारा मन कहीं और ही विचरण कर रहा होता है या हम वहा पर दुर्भाग्यवश उपस्थित ही नही रहते हैं. रस तंत्र में विभिन्न गुटिकाओं का विवरण मिलता है और ये सभी एक से बढ़कर एक अचरज कारी होती हैं. न सिर्फ़ इनके प्रयोग बल्कि इनके निर्माण की विधियां भी रहस्यों के आवरण में ढंकी होती है . इस लिए तो ग्रांटों को पढ़कर इनका निर्माण कर पाना सहज नही है . ये दिव्य ग्रन्थ हमें इस दुर्लभ विज्ञानं से परिचय करवाते हैं . पर निपुणता तो गुरु के मार्गदर्शन से ही प्राप्त होती है . ग्रंथो का पठन और सतत गुरु का मार्गदर्शन इस क्षेत्र में सफलता के लिए अनिवार्य ही है . आपने विभिन्न ग्रंथों में खेचरी गुटिका , वज्र गुटिका , मृत्युंजयी गुटिका के बारे में पढ़ा ही होगा पर इनके अतिरिक्त और भी ऐसी कई अचरज कारी गुटिका सदगुरुदेव ने बताई हैं जो की तंत्र जगत में अनन्यतम ही कही जाती हैं. आपने देवरंजिनी गुटिका के बारे में पढ़ा और लाभ भी उठाया है .ऐसी ही अद्भुत गुटिका है भैरवी गुटिका जिसे धनदा लक्ष्मी गुटिका भी कहा जाता है . आप सोच रहे होंगे की क्या विशेषता है भला इसमे . तो मेरे भाई बड़े बड़े साधकों और सिद्धों के बीच स्वर्ण निर्माण के लिए जिस गोपनीय सिद्ध्सूत की प्राप्ति लिए होड़ मची है और उसमे वे अथक प्रयास करने के बाद भी असफल हो जाते हैं तो ये वही गुटिका है जिसके सहयोग से मात्र मन्त्र के द्वारा ही सिद्ध सूत का निर्माण एक रात्रि में किया जा सकता है . जिसके द्वारा ५०० ग्राम ताम्बे को कुछ ही क्षणों में स्वर्ण में परिवर्तित कर दिया जाता है . शत्रु नाश , प्रचुर धन की प्राप्ति , वशीकरण , दिव्य ज्ञान और प्रत्यक्षीकरण की क्षमता साधक प्राप्त कर लेता है मन्त्र के साथ संयोजन होने पर यह स्वतः ही घूमने लगती है जो इस बात का प्रमाण होता है की आपकी क्रिया सही है . और यह इतनी हलकी नही होती की फूँक से हिल जाए. इसका निर्माण जटिल होता है पारद का दिव्य वनस्पतियों से संस्कार का कुछ गूढ़ क्रियाओं को संपन्न करते हुए एक विशेष मन्त्र का जप करते हुए ही इसे बनाया जाता है . फिर शोधित और भंजित , जारित करते हुए इसे चैतन्य करते हैं तब जाकर हलके लाल हरे रंग की यह दिव्य गुटिका साधक के अभीष्ट को सिद्ध करने के लिए निर्मित हो पति है . मतलब निर्माण करने के लिए अलग मन्त्र और कार्य की सिद्धि के लिए अलग मन्त्र का संयोग इससे किया जाता है . १९८४ में सदगुरुदेव ने इसके निर्माण की प्रक्रिया और सिद्ध सूत के निर्माण की विधि को प्रायोगिक रूप से अपने शिष्यों को करके दिखाया और समझाया था. हमारे जीवन की श्रेष्टता इसी में हैं की इस गूढ़ ज्ञान द्वारा अपने जीवन के अभाव को दूर कर ऐश्वर्य का प्रवेश अपने जीवन में होने दें
****आरिफ****

Thursday, January 8, 2009

अंकोल कल्प का रहस्य


शिवाम्बु द्वारा धातु वेधन की क्रिया पर जब हम बात कर रहे थे तो उस दौरान हमने बताया था की कुछ विशेष कल्पों के सेवन से शारीरिक पारद वेधक गुणों से युक्त हो जाता है उन्ही कल्पों में से यह सिद्ध अंकोल कल्प भी एक है। विगत कई वरशो से आयुर्वेद का एक कल्प लोगो के बीच उलझी हुयी पहेली बना है और जिसे सुलझाने के चक्कर में न जाने कितने लोग ख़ुद ही उलझ गए .और वो कल्प है अंकोल कल्प
आख़िर क्या बात है की लोग इसके पीछे पड़े हुए हैं ....
तंत्र के प्राचीनतम ग्रंथों में लिखा है की इसके तेल(आयल) की बूँद भी मुर्दे को कुछ पलों के लिए जीवन दे देती है .पर जब हम तेल निकालने जाते हैं तो या तो वो निकलता ही नही या फिर जल जाता है तो क्या करें, क्या हमारे वो तंत्र ग़लत हैं कदापि नही..सच तो यह है की आधुनिक समय में हम ख़ुद ही उन सूत्रों को भूल गए हैं जिनके द्वारा हमारे पूर्वज प्रकृति का सहयोग प्राप्त करके अपना अभिस्थ साध लेते थे.
इस तेल को प्राप्त करने की विधि जो की अनुभूत है कुछ इस प्रकार है.सबसे पहले तो जहा अंकोल का वृक्ष हो वह जाए और यह देख लें की उस पर फल आ गए हैं दूसरे दिन वह जाकर उस वृक्ष के नीचे शिवलिंग की स्थापना करें और उस शिवलिंग के सामने एक घाट(मटका) की स्थपना करें और अघोर मन्त्र का जप करते हुए एक धागे से उस शिवलिंग,घाट और वृक्ष को बाँध दे और प्रतिदिन अघोर मंत्र की ११ माला करें।जब फल पाक जायें तो उन्हें तोड़कर उस मटके में रखते जायें जब वो मटका भर जाए तो योगिनियों और भैरव पूजन संपन्न करें और उन फलों को थोड़ा कूट कर पातळ यन्त्र के द्वारा आयल निकाल लें. ४ से ५ घंटे में तेल निकल जाता है अग्नि देते समय सावधानी रखेर्ण और मध्यम अग्नि दे.
फिर उस तेल पर अघोर मंत्र की ११ माला जप करे और इच्छा अनुसार प्रयोग करें .एक बात और सिर्फ़ तेल से कुछ नही होता यदि १ भाग अंकोल तेल में २ भाग तिल का तेल और सिद्ध पारद भस्म न मिली हो तो वो मरीत्संजिवी नही होता है हाँ अन्य कार्यों में प्रयोग किया जा सकता है.अंकोल तेल में दो भाग तिल का तेल मिला कर नाशय लेने से जरा मृत्यु का नाश होता है .३०० वर्ष की आयु होती है और किसी भी विष का कोई पराभव पूरे जीवन भर नही होता है.
इसके अन्य प्रयोग इस प्रकार हैं.
गुरूवार को हस्त नक्षत्र में यदि इसके मूल को शास्त्रीय रूप से प्राप्त करके कर्पूर और शहद के साथ यदि खाया जाए तो नश्त्द्रिष्टि वाला भी देखने लगता है.
इस तेल से मर्दित पारद बंधित होकर ताम्र को स्वर्ण में बदल देता है.
कृष्ण अंकोल का तेल अदृश्य क्रिया के काम आता है।
आइये इन सूत्रों को सहेजें और अपनी परम्परा पर गर्व करें।
****आरिफ****

Saturday, January 3, 2009

स्वर्ण-पात्र से स्वर्ण निर्माण



भारत और तिब्बत में धातु परिवर्तन अर्थात स्वर्ण निर्माण के लिए बहुत सी पद्धति का प्रचलन है . जैसे सिद्ध सूत , गंधक तेल आदि. परन्तु यह सभी ही प्रक्रियाएं बहुत ही जटिल और श्रम से परिपूर्ण हैं. और इन्हे करने में कुशलता का अनुभव जरुरी है . हाँ यह एक अलग बात है की सभी विधियां प्रमाणिक हैं और इनसे सोना बनाया जाता है.

पर इनके अलावा एक ऐसी भी क्रिया है जिससे अल्प समय में प्रचुर सोना बनाया जा सकता है.
और इस क्रिया का प्रायोगिक ज्ञान सदगुरुदेव द्वारा ही प्रकाश में आ पाया है , जो की अभी तक सिद्धों और साधू समाज के मध्य ही चलन में था वो भी गुप्त रूप से. और ऐसा होता है स्वर्ण-पात्र के द्वारा. स्वर्ण-पात्र तीन धातुओं के द्वारा बनाया गया एक कटोरे के जैसी आकृति होती है ,जिसमे कुछ पदार्थों को खरल कर अग्नि पर पात्र समेत रख कर उसमे शुद्ध पारद मिलाया जाता है और बस कुछ घंटो के बाद वो पारद चाहे कितनी भी मात्रा में हो स्वर्ण में बदल जाता है.

स्वर्ण- पात्र का निर्माण शुद्ध कंस, शुद्ध ताँबा, शुद्ध लोहे को बराबर मातृ में मिलकर किया जाता है. और इन्ही मिश्रित धातुओं से उसकी मुसली भी बनाई जाती है जिसके द्वारा उन पदार्थो का खरल किया जा सके. इस पात्र के द्वारा कई अलग अलग तरीकों से सोना बनाया जा सकता है. पात्र बनते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है की सभी धातु सुद्ध होनी चाहिए और बराबर मातृ में होना चाहिए . तभी पात्र पूर्ण प्रभाव दिखता है. और पात्र को बनाने के बाद उसे करीब १० किलो कंदों की आंच में तपा कर शुद्ध कर लेना चाहिए. इस पात्र के द्वारा हमारे एक गुरु भाई ने १९९० के पहले के शिविर में सदगुरुदेव के सामने उनके आदेश से स्वर्ण बनाने की घोषणा कित ही पर सदगुरुदेव ने ऐसे प्रदर्शन के लिए मन कर दिया था. सदगुरुदेव के मार्ग दर्शन में कई शिष्यों ने ऐसे पात्र बनाये थे . भले ही पढने में यह आसान लगता हो पर वास्तव में इस पात्र का निर्माण इतना सहज नही है क्यूंकि एक तो सामान्य भट्टियों में इतना तप्प्मान ही नही होता की वो लोहे को मेल्ट कर सके , दूसरा तीनो ही धातुओं का गलनांक भिन्न भिन्न है. मतलब जब तक लोहा गलत है तब तक तो कांसा और ताँबा गल कर उड़न छू हो जाते हैं . पर कुछ विशेष रसायनों और क्रियाओं की मदद से तीनो ही धातुओं को एक साथ सावधानी पूर्वक गलाया जा सकता है और इस पात्र को बनाकर अपने जीवन में ऐश्वर्य के रंग बिखेरते जा सकते हैं . इस पात्र की मदद से होने वाली दो गोल्ड की क्रियाएँ अल्केमी तंत्र में दी गयी है , आपकी जानकारी के लिए मैं उन्हें यहाँ पर दे रहा हूँ –




Triturate 10 tolas each of jayphal, vermilion and rasakapur to gether for three hours. Add 5 tolas of pure Samskarised mercury and trituration keep adding lemon juice drop by drop , so that a paste of the mixtureis formed. Transfer the paste into the Swarn paatr and heat it on a strong flame. When the paste starts to boil ,add 5 tolas of melted copper . the copper instantly gets converted into pure gold . wash the gold with water . the Swarn paatr can be reused several times.

Take three parts Hartaal, two parts Mansil and one part Hingul in the Swarn paatra and triturate them together thoroughly। Then add one part pue Samskarised mercury and triturate the whole mixture in juice of Gwar pathaa for 24 hours then fill the swarn paatra with water and heat iton a low flame. In about one hour all the water shall evaporate and only a ball of solid gold shall remain behind . by this method even one kg Gold can be prepared in one single attempt. This method is very simple and is considered to be the easiest process of Gold preparation . even if there have been some shortcomings in triturations , still gold is surely obtained.




कीमिया की साधना लक्ष्मी प्राप्ति की सर्वश्रेष्ठ साधना हैं जिसके परिणाम हाथो हाथ मिलते हैं . बस जरुरत है लगन से सदगुरुदेव के दिखाए गए रस्ते पर पूर्ण समर्पण के साथ चलने और म्हणत से न डरने की , और यदि ऐसा हम कर पाते हैं तो दरिद्रता हमें स्वप्न में भी नही छू सकती।

****आरिफ****

Friday, January 2, 2009

शिवाम्बु द्वारा धातु कल्प


सम्पूर्ण सृष्टि पारद और गंधक से ही उद्भव हुयी है. और इस बात का अनुमोदन विदेश के विद्वान् भी करते हैं . पाश्चात्य कीमिया के जान कार जिन्हें वह फ्हिलोस्फोर भी कहते हैं , वे यही कहते हैं की इस प्रकृति के प्रत्येक सजीव या निर्जीव में पारद और गंधक का अंश होता ही है फिर वो चाहे, जानवर हो, मौसम हो या जलचर. क्यूंकि पारद प्रकृति पुरूष सदाशिव का सत्व है और गंधक आदि शक्ति माँ पार्वती का राज है. उच्च कोटि के योगी मानव वीर्य को रस या बिन्दु कहते हैं और बिन्दु साधना के द्वारा वीर को उर्ध्वगामी कर दिव्व्य शक्तिया प्राप्त कर लेते हैं.

जब ऐसा है तो मानव इससे अछोता कैसे रह सकता है . आप ने सुना या पढा होगा की दिव्व्य मानवो या सिद्धो का शिवाम्बु उया मूत्र भी धातुओ को वेध कर गोल्ड में बदल देता है , आख़िर ऐसा कैसे हो सकता है ???

मूत्र तो वेस्ट मटेरिअल है फिर उसमे कैसे इतनी शक्ति हो सकती है ? वास्तव में प्रकृति के अन्य प्राणियों की भाँती मनुष्य में भी पारद का अंश होता है . जिस प्रकार गंधक का तेल बनते समय उसमे अज मूत्र , गौमूत्र, अश्व मूत्र , मानव मूत्र, प्याज रस, लहसुन रस की भावना दी जाती है या , संखिया, हरताल , मनाह्सिल आदि का शोधन गधे के मूत्र द्वारा किया जाता है तो वास्तव में होता क्या है की अपरोक्ष रूप से शुद्ध करने के साथ उस मूत्र में व्याप्त पारद का जो की पूर्ण चैतन्य अवस्था में होता है के साथ उन तत्वों का संयोजन या योग कतराने की प्रक्रिया भी हो जाती है. आप को एक बात बता दूँ की पारद की प्राप्ति सिर्फ़ हिंगुल, अभ्रक या खदानों से ही नही होती बल्कि समुद्रीय जीव यथा शार्क, व्हेल, वनस्पतियों जैसे बथुआ, बेशरम की पत्तियों या अश्व मूत्र से भी होती है. इसका यह मतलब भी नही है की पारद सिर्फ़ इन्ही में होता है बल्कि ऐसा इस लिए है क्यूंकि अन्य प्राणियों के मुकाबले इनके शरीर में पारद के मात्र ज्यादा होती है.

पाश्चात्य विद्वान् वर्षों से उरिनल स्टोन बनाने की क्रिया कर रहे हैं . पर वे सफल नही हो पाए , जबकि उनके यहाँ पर रस तंत्र के ग्रन्थ प्रचुर मात्र में हैं. हाँ वे मूत्र में से पारद जरूर प्राप्त कर पाने में सफल हो गए जो की भस्म के जैसा होता है . और यदि आप भी मूत्र को इकट्ठा करके थोडी देर बाद देखे तो आप उस द्रव्य के ऊपर मोर पंख की अभ वाली परत देख सकते हैं . यह अभा पारद की उपस्तिथि के कारण ही होती है . यदि वे विद्वान् असफल हुए तो इसका कारन था , ज्ञान का पूर्ण अभाव . क्यूंकि जिन भी विद्वानों ने वे ग्रन्थ रचे थे वास्तव में उन्होंने एक बात छुपा राखी थी.
करीब २० साल पहले गुरुधाम में सदगुरुदेव के सन्यासी शिष्य श्री राघव दास बाबा आए थे और उन्होंने कार्यालय में ही सबके सामने अपने मूत्र से कोप्पेर को गोल्ड में बदल दिया था . यदि साधक सिद्ध गंधक, पारद, या अन्य दिव्व्य कल्पों का एक निश्चित समय तक भक्चन करता है तो इन सिद्ध रासो में व्याप्त गंधक का शर्रेस्थ पारद से योग होता है और शरीर के भीतर के तापमान से उस पारद पर गंधक की जारना होती जाती है और एक निश्चित समय के बाद वो पारद पूर्ण वेधन छमता से युक्त हो जाता है और वैसे भी हमारे शरीर के तापमान के कारण शरीस्थ पारद कभी भी तेज या वेध विहीन नही हो पता , जरूरत रहती है सीरक गंधक के योग और जारण की . क्यूंकि गंधक के कारण ही धातुओं में रंग आता है. जैसे ही जारण पूर्ण हो जाता है पारद मूत्र के असिड के साथ वेध करने की शक्ति युक्त होकर धातुओं का वेधन कर देता है. शारीरिक तापमान , गंधक, तथा असिड इनका योग पारद की वेधन छमता को सहस्त्र या कोतिगुना बढ़ा देते हैं. तथा उन दिव्व्य कल्पों के प्रभाव से वीर्य भी अधो गामी न होकर उर्ध्व गामी होकर साधक को असीम शक्तियां दे देता है तथा दीर्घ जीवी कर देता है. असाध्य कुछ भी नही है जरूरत है इस तंत्र के भीतर छुपे हुए सूत्रों को प्राप्त कर समझने और क्रिया करने की , सफलता बस आपके सामने ही है।
****आरिफ****