एक महानसत्ता जो की अपने आप में अपने आप को समेटी हुई है, जो की अपने आप में पूर्ण है, जो बोध या अबोध को धारण किये हुए है, उसकी की संज्ञा, उसकी का एक निश्चित संबोधन है ‘शब्द’. शब्द अक्षरों का समूह है स्वर और व्यंजन से निर्मित जिसमे बीज निहित है. हर एक बीज का अपना अर्थ है, अपनी शक्ति है. मंत्र विज्ञान का पूर्ण आधार यही तो है. जो की हर एक संगता या विसंगता को स्पष्ट कर सकता है. शब्द द्रश्य रूप में है, हमें द्रश्यता का बोध देता है. एक निश्चित छवि को हमारे सामने साकार करता है. क्यों की वह अपने आप में द्रश्यमान है. शब्द अपने आप में द्रश्यरूप में है. जो जागृत है वह जागृत कर सकता है. लेकिन क्या हो अगर शब्द ही निराकार हो, शून्य हो या अद्रश्य हो. फिर तो बोध तत्व से भी परे है ये. क्यों की कल्पना शक्ति वास्तविकता की पृष्ठभूमि है. और वही वास्तविकता ज्ञान प्रदाता है. और वही ज्ञान ही हमें अज्ञानता से भी साक्षात्कार करता है. ज्ञान की लोलुपता ज्ञान प्राप्ति की तृष्णा की समाप्ति जहाँ पर समाप्त होती है वही से शुरू होती है नूतन ज्ञान की यात्रा. नूतन ज्ञान को प्राप्त करने की तृष्णा. यही तो बोध तत्व है. लेकिन अगर यही बोध तत्व है तो उससे भी ऊपर कुछ होगा. उसके अंत पर भी कोई शुरूआत होगी. ऐसा ही वह ‘कुछ’ क्या है; क्या ज्ञान है जो की ज्ञान से भी परे है.
और यही वह ‘कुछ’ जो
की बोध से परे है उसे हमारे पुरातन ऋषिमुनियों ने इसे परा नाम से संबोधित किया है.
पाणिणी आदि कई महापुरुषों ने इस शब्द की व्याख्या की है इसी को काल की गति का
सूक्ष्मतम एकम कहा है तो कई जगह इसे उच्चतम बोध कई जगह इसे ब्रम्हांड का विस्तृत
अर्थ कहा है तो कई जगह उसे अंततः सौंदर्य. तंत्रग्रंथो में परा को उच्चतम क्रिया
कहा गया है,
जिसका सबंध कई तंत्र महर्षियो ने अलग अलग रूप में निरूपति किया है. कश्मीर शैव
सम्प्रदाय के त्रिक शाखा में इस शक्ति के बारे में कहा गया है की परा वह है जो
की शब्दों के अंतर का बोध मनुष्य को कराती है और अंत में वह वैखरी नामक
शक्ति बन जाती है जो की अपरा का ही एक रूप है. क्यों की शाब्दिक से उच्चतम बोध
मानसिक है, यु
यह शक्ति परा शब्दों में अभिव्यक्त हो कर अपरा या परा से निचे स्तर पर पहोच जाती
है. परमेश्वर की परावाक्शक्ति में ही समस्त शास्त्र है. इसके अर्थ के कई भेद हो
सकते है लेकिन यहाँ पर इसे इस प्रकार से समजा जा सकता है की पराशक्ति वह है जिसके
वाक् आधार पर शास्त्रों की उपस्थिति है. अर्थात यह वह शक्ति है जो परमेश्वर में
निहित है जिसके माध्यम से क्रियाओं का शाब्दिक और अर्थपूर्ण स्पष्टीकरण जो की मानस
में एक बोध या चित्रण दे सके,
इस प्रकार परम इश्वर जो हमें बोध
देते है वह इस शक्ति के माध्यम से होता है. तंत्र क्षेत्र के द्रष्टिकोण से इसे इस
प्रकार जोड़ा जा सकता है की संवाद की स्थिति में जब तंत्र ग्रंथो का आलेखन हुआ है, उदहारण
के लिए भैरव या भैरवी के संवाद के रूप में जो ज्ञान का प्रस्तुतिकरण शब्दों की
अभिव्यक्ति के माध्यम से हुआ और एक नूतन बोध की प्राप्ति संभव हुई वह क्रिया जो की
वाक् या शाब्दिक रूप से प्रस्तुत हो कर सम्प्पन हुई उसी गुढ़ क्रिया की आधारभूत
देवी है ‘परा’.
मालिनीविजयोत्तर तंत्र भी इस शक्ति का इसी रूप में समर्थन करती है. ललितासहस्त्रनाम
में भी इस शक्ति के बारे में संकेत मिल जाता है की जो नजदीक है वह अपरा है
लेकिन जो दूर है वह परा है. अर्थात जो प्राप्य है या जो बोध है वह अपरा है लेकिन
वह जो परे है या कल्पना से दूर है जो सहजता से प्राप्य नहीं है वह परा है. यह
शक्ति ज्ञान की अभिव्यक्ति के सबंध में है वस्तुतः इसी लिए आदि तंत्र वाग्मय में
तंत्र साहित्य समूहों के निरूपण में आगम के अंतर्गत शिवज्ञान और रूद्रज्ञान आगम
में अपराज्ञान और पराज्ञान एक स्वतंत्र रूप से एक शाखा है. कश्मीर शैव सम्प्रदाय
में शिव शक्ति और पति ये तिन प्रकार के सिद्धांत को दर्शाया गया है, शिव
को चेतना या जागृतअवस्था,
शक्ति को तत्व और पति को भौतिकता या
अबोधता कहा गया है. इसे ही क्रमशः परापरा,
परा और अपरा भी कहा गया है. मतलब की
जागृतावस्था से भी आगे उच्चतम तत्व बोध ही परा है. श्रीनित्यतंत्र में
भगवान श्रीगौरी को देवी के इस रूप के बारे में बताते है की ज्ञान त्रिस्तरीय है जो
की वस्तुतः परा शक्ति की साधना अद्वैत साधना है.
यु देवी का यह उच्चतम स्वरुप है जिसमे सब रूप समाहित है. ऐसा ही कथन योगिनी
ह्रदय में भी प्राप्त होता है की श्रीयन्त्र की उपासना के आगे जो अद्वैत
स्वरुप की साधना है वह परा शक्ति की साधना है. योगशास्त्र में पराशक्ति को
ज्ञानशक्ति ही कहा गया है जिसे स्व,
स्वनियंत्रण तथा आत्मबोध से प्राप्त
किया जाता है. कई तंत्र ग्रंथो में इसे चेतना का स्तर कहा है की स्वप्न से आगे की
जो अनुभूति है वह परा है. देवी के इस शक्ति स्वरुप को भगवती त्रिपुर सुंदरी का रूप
माना गया है. इस सन्दर्भ में गान्धर्वतंत्र में कथन है की भगवती
महात्रिपुरसुंदरी की आराधना त्रिस्तरीय है परा अपरा और परापरा. भगवती की आतंरिक
उपासना में वह कुण्डलिनी स्वरुप है तथा बाह्य उपासना में वह श्रीचक्र की शक्ति है.
देवी का परा रूप की साधना आतंरिक तथा बाह्य दोनों रूप से सम्मिलित उपासना है. शारदातिलक
में भी देवी के इस रूप को बीजाक्षरो की देवी तथा त्रिपुरसुंदरी का रूप माना
गया है. यहाँ पर एक बात और विचारणीय है की कई महाशक्तियो के रूप एक से अधिक
महाविद्याओ से सबंध रखती है. क्यों की भाव तथा देवी के स्वरुप में त्रिगुण (सत्,रज
और तम) के प्रमाण पर उनके विभ्भिन्न स्वरूपों का विश्लेषण किया जाता है. अतः इस
प्रकार किसी भी देवी तथा देवता को सम्मिलित करने पर उनके अनेको भेद हो सकते है जो
की उनकी आधार शक्ति,
गौणशक्ति, मुख्य
शक्ति, उनके
भाव, तथा
उनके त्रिगुण के प्रमाण पर आधारित होता है अतः देवी के इस रूप को महाकाली से
सबंधित होने का विवरण भी मिलता है. योगिनीसंचार में ‘अघोरा’ जो
की अघोरेश्वर अघोर या स्वछंदभैरव की शक्ति कही गई है यह रूप महाकाली के परा शक्ति
का सम्मिलित स्वरुप है. तंत्रलोक में देवी की उपासना के बारे में
तंत्राचार्य अभिनवगुप्त ने बाह्यरूप में उपकरणों के साथ क्रिया करने पर तथा आतंरिक
रूप से उसे कुण्डलिनी शक्ति मान कर सिद्ध करने के सन्दर्भ में विवरण दिया है. वही
चिदगगनचन्द्रिका में देवी के इस स्वरुप के दक्षिण तथा वाम दोनों पक्षों का
विश्लेषण किया है. बौद्ध तन्त्रो में भी देवी के इस स्वरुप की उपासना होती है, इस
मार्ग में देवी के अपरा,
परापरा और परा स्वरुप को क्रमशः आध्यात्मिकसाधन, मनोमयीसाधन
तथा गुह्यसाधन की संज्ञा दी गई है. मण्डूकोपनिषद मे महर्षि अंगीरस
ने कहा है की ज्ञान दो प्रकार के है अपरा तथा परा. अपरा ज्ञान या अपराविद्या
शिक्षा,
व्याकरण, ज्योतिष, छंद, चार
वेद इत्यादि है मगर अपरा इन सब विद्याओ से आगे का वह ज्ञान है जो की अद्रश्य अक्षर
का ज्ञान देता है. अर्थात गुप्त बोध को प्रदान करती है वह विद्या अपरा है. अथ परा
यया तद् अक्षरं अधिगम्यते...
पराशक्ति से सबंधित इतने मत
होने पर भी सभी में कुछ एक तथ्य बिलकुल साफ़ है, की देवी
की यह रूप की उपासना आनातारिक तथा बाध्य दोनों प्रकार से सम्मिलित साधना है तथा यह
वह ज्ञान को प्रदान करती है जो की गुप्त,
लुप्त या फिर कल्पनातीत है. मनुष्य
के ज्ञान की एक निश्चित सीमा होती है जहा से आगे का सारा ज्ञान उसके लिए रहस्य
होता है. पुरातन ऋषि मुनियों ने परा विद्या के बारे में एक स्वर में स्विकार किया
है की यह विद्या ज्ञान को प्रदान करती है,
वह ज्ञान जो गुप्त है. लेकिन यहाँ
पर इसका अर्थ समजना चाहिए की क्या है वह गुप्त ज्ञान जिसे शब्द से भी परे की
संज्ञा दे दी गई है. वस्तुतः हर एक मनुष्य के ज्ञान का स्तर और इसी के अनुरूप आगे
के ज्ञान के लिए कल्पना का स्तर बिलकुल अलग होता है. हो सकता है कोई ऐसा व्यक्ति
जो जन्म से जंगल में ही रहा हो और बाहरी दुनिया से उसका कोई संपर्क ना रहा हो उसके
लिए एक वाहन का ज्ञान मात्र कल्पना ही है. लेकिन दूसरा व्यक्ति जो बचपन से वाहन
आदि के बिच में रहा हो उसके लिए वह एक सामन्य ज्ञान है. ठीक उसी प्रकार जब हम
सामन्य ज्ञान की बात करे तो एक निश्चित ज्ञान की सीमा के बाद हमारे पास उसके आगे
क्या ज्ञान होता यह भी एक रहस्य है. वही रहस्य ज्ञान ‘परा’ है.
और उसी के सिद्धांत है पराविज्ञान. इसी शक्ति का तंत्र पक्ष है परातंत्र. मनुष्य
के अंदर के ज्ञान से आगे की जो क्रिया है वह परा है. अपने आतंरिक तथा बाह्य
ब्रम्हांड के बारे में जानना उसको समजना तथा उसके लिए जो तांत्रिक विधानों का
सहारा लिया जाए वह पराविज्ञानतंत्र है. इसी लिए जो भी गुढ़ है वह परा है, जो
भी परे है वह परा है.
आधुनिक
विज्ञान की परिभाषा में पराविज्ञान वह शाखा है जो विषय को मुख्य, सहायक या गौण वैज्ञानिक सिद्धांतों के माध्यम से
समजा नहीं जा सकता,
उस प्रकार के विषय
का अभ्यास करना. इस प्रकार जो भी ज्ञान है उससे ऊपर का ज्ञान जो की आधुनिक विज्ञान
के माध्यम से समजा नहीं जा सकता वह सब पराविज्ञान के अंतर्गत है.
इस विज्ञान
या तंत्र की देवी भगवती त्रिपुरसुंदरी का ही एक रूप परा है. देवी की साधना इस रूप
पर करने पर साधक को पराविज्ञान से सबंधित कई दिव्य अनुभूतिया होने लगती है. साधक
को पराविज्ञान के विविध क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए जो मूल साधना है वह
परा देवी से सबंधित है,
जिससे की देवी का
आशीर्वाद प्राप्त कर साधक परा क्षेत्र में सफलता का साक्षात्कार कर सके. इसके बाद
साधक आत्माआवाहन,
लोकलोकांतर की
यात्रा, आतंरिक जगत से साक्षात्कार, पराकिरणे,
सम्मोहन, आत्माकर्षण जेसे अनेक क्षेत्रो में सफलता की
प्राप्ति कर सकता है. इस साधना के माध्यम से साधक की सुप्त कुण्डलिनी का जागरण
होता है तथा कुण्डलिनी और चक्रों में स्पंदन होने लगता है. साधक के लिए यह साधना
एक एसी साधना है जो साधक के साधना स्तर को तीव्र गति से उर्ध्वगामी कर सकती है. जो
पराजगत की स्वामिनी है अगर उसकी ही कृपा साधक प्राप्त कर ले तो साधक क्या कुछ नहीं
कर सकता. दिव्य अनुभूतिया साधक के समीप खडी रहने के लिए तत्पर रहती है.
इस साधना
को सम्प्पन करने के लिए साधक को श्रीयन्त्र की आवश्यकता होती है. इस साधना हेतु
विशुद्ध पारदश्रीयन्त्र श्रेष्ठ है जो की प्राणप्रतिष्ठा से युक्त हो. पराजगत
आकर्षण तत्व से ही व्याप्त है और इसे आकर्षण तत्व से जुड़ाव के लिए प्रबल आकर्षण
तत्व युक्त पदार्थ से निर्मित श्रीयन्त्र को उपयोग में लेना श्रेष्ठ है. इस प्रकार
पारद प्रचुरतम मात्र में आकर्षण तत्व को धारण किये हुए है. इस लिए पारद यन्त्र इस
प्रकार के प्रयोग के लिए सर्वश्रेष्ठ है. इसकी अवेजी में साधक स्फटिक श्रीयन्त्र
या ताम्रश्रीयन्त्र पर यह साधना करे.
साधक को यह
साधना रविवार की रात्री में ११ बजे के बाद शुरू करनी चाहिए. यह कुल ११ दिन की
साधना है. साधक के वस्त्र तथा आसान सफ़ेद रहे
साधक अपने
सामने किसी बाजोट पर या लकड़ी पर सफ़ेदवस्त्र बिछा कर उस पर श्री यन्त्र को रखे. और
उसको भगवती त्रिपुरसुंदरी का ही स्वरुप मान कर उसका पूजन करे.
उसके बाद
साधक उत्तर या पूर्व की तरफ मुख कर स्फटिक माला से निम्न मंत्र की २१ माला जाप
करे.
ॐ श्रीं परा सिद्धिं श्रीं नमः
(Om Shreem Paraa Siddhim Shreem Namah)
(Om Shreem Paraa Siddhim Shreem Namah)
२१ माला हो जाने के बाद साधक इसी मंत्र को आँखे बंद कर अपनी कुण्डलिनी का ध्यान करते हुए साधक कुछ देर के लिए इसका जाप करे. साधक को निश्चित रूप से पहली ही बार में अपने अंदर की गहेराइ का अनुभव होने लगेगा. यह प्रयोग ११ दिन तक करे. उसके बाद यन्त्र को अपने पूजा स्थान में रख दे. माला को भविष्य में यह मंत्र करने के लिए उपयोग में लिया जा सकता है. वस्त्र को किसी देवी मंदिर में दक्षिणा के साथ अर्पित कर दे. ११ दिनों में ही साधक अपने अंदर परिवर्तन अनुभव करने लगेगा. अगर साधक इसका अनुभव करना चाहे तो १२ वे दिन ब्रम्ह मुहूर्त में इस मंत्र की १ माला साधक अपनी आँखे बंद कर त्रिनेत्र पर आतंरिक रूप से त्राटक कर सम्प्पन करे तो वह त्रिनेत्र पर एक परदा सा बन जाता है और उसमे कई प्रकार के दिव्यद्रश्य दिखाई देने लगते है.
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One great
power which encompasses itself with in itself, which is complete in itself and
which comprises of both known and unknown, has got a specific address, a
definition which is called ‘word’. Word is the group of alphabets made up from
consonants and vowels which has beej inherent in it.Every beej has got its own
meaning, own power. Whole mantra science is based on this fact only which can
clarify any consistency or inconsistency. Words are in visible form and give us
the sensation of vision. It realizes one definite picture in front of us
because it is visible in itself. Word is in visible form in itself. One which
is in activated state can activate but what will happen if word is shape-less,
is invisible. Then it is even beyond our senses. Because power of imagination
is a background for reality and that reality is provider of knowledge and that
knowledge introduce also to our ignorance. Where the hunger and craving for the
knowledge ends, from that point the journey towards novel knowledge begins.
Hunger to attain novel knowledge, this only is the Bodh Element. But if this is
Bodh element then there would be “something” above it also. End of that will
also lead to another beginning. What is that “something”, that knowledge which
is beyond the realms of knowledge.
And this
“something” which is beyond our sense, has been addressed by our old saints and
sages as Para. Great persons like Panini have elaborated this word. It has been
called the most subtle unit of motion of time. At several places, it has been
called highest Bodh (sensation), somewhere it has been called the expanded
meaning of universe and at some place it has been described as the ultimate
beauty. Para has been described in tantra scriptures as highest process whose
relation has been elucidated in many ways by Tantra maharishi.Trik branch of
Kashmir shaiva sect has explained about this power that Para is the one
which makes the human beings understand the distinction in words and in the end
it becomes power named Beikhari which is one of the forms of Apara. Since
mental sensation is higher than the verbal one, this para power after getting
expressed in words reaches the level of apara or level below the Para. Entire
scriptures are due to the para Vaak Shakti of supreme god. There can be many differences
in its meaning but here it can be understood like this that Para power is the
one on whose Vaak basis (based on the speech), scriptures exist. In other words,
it is that power which is implicit in supreme god and by means of which verbal
and meaningful explanation of process, which is capable of building image in mind,
takes place. In this way, the knowledge given by supreme god is through this power.
Looking from Tantra point of view, it can be seen like this that when tantra
scriptures were written based on conversation, for example the presentation of
knowledge in form of conversation of Bhairav and Bhairavi which took place
through expression of words and novel knowledge was made possible, that process
which was completed while being presented in form of speech or word, Para is
the basic goddess for such a secret process.MaliniVijyotar Tantra also
supports this form of this power. In Lalita Sahastranaam, we also get hints about
this power that the one which is nearer is Apara but the one which is distant
is Para. In other words the one which is attainable or which can be sensed is
Apara and the one which is beyond or far from imagination, is not easily
attainable is Para. This power is relating to the expression of knowledge.
Actually, therefore Apara Gyan and Para Gyan are independent branches in ShivGyan
and RudraGyan Aagam(Aagam is called tantra in Indian spiritual tradition)
under Aagam in elaboration of tantra scripture groups in Aadi Tantra Vaagmay.In
Kashmir Shaiva sect three types of principles have been shown-Shiv, Shakti and
Pati.Shiv has been called consciousness or activated state, Shakti the element
and pati has been called materialism or ignorance. These have also been
respectively called Parapara, Para and Apara i.e. Para is higher order
intelligence than activated state. In Shrinitya Tantra god tells Shree
Gouri about this form of Devi that knowledge has three levels which actually is
sadhna of Para Shakti, an advait sadhna. This is the highest form of Devi
encompassing all forms. Such type of inference we also get in Yogini Hridaya
that advait form of sadhna beyond the Shree Yantra upasana is sadhna of Para Shakti.
Para Shakti has been called Gyan Shakti in Yog Shastra which can be attained
through self-control and through the knowledge about self. Several tantra
scriptures have described this as level of consciousness that the experience
which lies ahead of dreams is Para. This powerful aspect of Devi has been
considered as the form of Goddess Tripur Sundari. In this context Gandharv
Tantra says that worship of Goddess Tripur Sundari is done at three levels-
para, Apara and Parapara. In inner worship of goddess, it is in kundalini form
and in outer worship; it is the power of Shree Chakra. Sadhna of Para form of
Devi is combined worship i.e. of both outer and inner form. In Sharda Tilak
this form of Devi has been considered as the goddess of Beej alphabets and form
of Tripur Sundari. Here one more point need to be considered that forms of some
great powers have a relation with more than one MahaVidya because in case of bhaav
and the forms of Devi, based on the parameters of three qualities (sat, raj and
tam),its various forms are analysed.Therefore in this way, there can be
difference on inclusion of any god or goddess which is based on their basic
power, hidden power, important power, their bhaav and on the parameter of three
qualities.Thus,instances are found of connection of this form of goddess with
Maha Kaali. “Aghora” which has been called Shakti of Aghoreshewar aghor or
Swachhand Bhairav, this form is the combine form of Para Shakti of Maha Kaali.
In Tantra lok, regarding Devi worship, Tantra Acharya Abhinav Gupt has
focused on doing the process with apparatus in outer form and accomplishing it
by considering it as kundalini power in inner form. In Chidgaganchandrika,
analysis of this form of Devi in both dakshina and Vaam aspects has been done.
In Boudh Tantra also, worship of this form of Devi is done. In this path Apara,
para and Parapara forms of Devi have been called Adhyaatmik Sadhan, Manomayi
Sadhan and Guha Sadhan respectively. In Mundko Upnashid, Maharishi
Angiras has said that knowledge is of two type: Apara and Para. Apara Gyan is grammar,
astrology, chhand, four vedas etc. but Apara is knowledge beyond these vidyas
which gives knowledge about invisible alphabet. In other words, the Vidya providing
hidden intelligence is Apara.
Ath Para
Yaya Tad Aksharam Adhigamyate……
In spite of
having many opinions relating to the Para Shakti, certain facts are very clear
that worship of this form of Devi is combined sadhna, both of its inner and
outer form and it provides that knowledge which is hidden, extinct or beyond imagination.
There is definite limit to person’s knowledge beyond which all knowledge is a
mystery for him. Old saints have accepted in one voice regarding the Para Vidya
that this Vidya provides knowledge, knowledge that is hidden but here it has to
be understood what is that hidden knowledge which has been defined as to be
beyond words. Actually every person’s knowledge level and conforming to it,
level of imagination for the next knowledge is altogether different. It may
happen that for the person who have lived in forest from the birth and had no
contact with the outer world, knowledge about vehicles is only an imagination
but for the other person who has remained in middle of vehicles from childhood,
it is just a normal thing. In the same manner, when we talk about normal
knowledge then after a definite limit of that knowledge, which knowledge we
would have possessed, this is a mystery .This mysterious knowledge is only
“Para” and its principles is Para Vigyan. Tantric aspect of this power is Para Tantra.
The activity beyond the inner knowledge of human beings is Para. Knowing about
our inner and outer universe, understanding them and for this tantric procedure
which are made use of is Para Vigyan Tantra. Therefore which is secret is para,
which lies beyond is Para.
In the
definition of modern science, Para Vigyan id that branch in which all the
subjects which cannot be understood by the prime, assistant or hidden
scientific principles are practiced. In the same manner, whatever the knowledge
we have, the knowledge beyond it which cannot be understood by modern science
is the subject matter of Para Vigyan
Para is one
form of the goddess of this Vigyan or tantra Goddess Tripur Sundari. Upon doing
sadhna of Devi in this form, sadhak starts having divine experiences relating
to the Para Vigyan. For getting success in various fields of Para Vigyan,
sadhak has to do a basic sadhna related to Para goddess so that sadhak can get
success in Para field after taking blessings of Devi. After this sadhak can attain
success in Aatma Aavahan, journey of various loks, being face to face with the
inner world, Para kirne, Sammohan and Aatmakarshan fields. By means of this sadhna,
sadhak’s dormant kundalini is activated and vibration starts taking place in
kundalini and chakras. For sadhak this sadhna is one such sadhna which can
elevate the spiritual level of sadhak in a very fast manner. If sadhak gets the
blessing of the ruler of Para world, then just imagine what is that which
sadhak cannot do. Divine experiences are ready to embrace sadhak.
For doing
this sadhna, sadhak needs Shree Yantra. For this sadhna, pure Parad Shree
Yantra is required which is energized. Para world is full of attraction element
and being connected with attraction element, shree yantra made up of material
having strong attraction element is the best. Parad has got the attraction
element in abundance. Therefore parad yantra is best for this type of prayog.
In absence of it, sadhak can do sadhna on sfatik shree yantra (made up of
crystal) or copper shree yantra.
Sadhak should start this sadhna on night of Sunday after 11:00 P.M.
This is 11 day sadhna.Colour of dress and aasan of sadhak would be white.
Sadhak
should spread white cloth on wooden slab in front of him and place shree yantra
on it.Worship this yantra considering it as one form of Goddess Tripur Sundari.
After this
sadhak while facing towards north or east, should chant 21 rounds of rosary of
the below mantra.
Om Shreem Paraa Siddhim Shreem Namah
(ॐ श्रीं परा सिद्धिं श्रीं नमः)
after completing 21 rounds, sadhak should close his eyes and chant this mantra for
some time mediating on Kundalini. Sadhak will definitely feel the depth inside
him in very first time. Do this prayog for 11 days. After this keep yantra in
worship place. Rosary can be kept for future for doing this mantra. Offer the
cloth in any Devi temple with dakshina. In 11 days, sadhak will fell the change
inside him. If sadhak wants to experience the change then on 12th
day sadhak should chant 1 round of rosary of this mantra in Brahm Muhurat while
closing his eyes and doing inner tratak on third eye. One kind of screen is
formed on third eye and various divine scenes are seen on that screen.
****npru****