Tuesday, September 4, 2012

NIKHIL PANCH RATNA RAHASYA - 4





Ati Divya Su Deh Skoti Chhavi Mam Netra Chakor Drigatm Mayam
Sukhadam Vardam Var Saadhy Mayam Nikhileshwar Guruvar PaahiPrabho

Like other verses, this verse of Nikhileshwaranand Panch Ratna Rahasya too is also full of abstruse secrets.

The normal meaning of first line “Ati Divya Su Deh Skoti Chhavi Mam Netra Chakor Drigatm Mayam” is that body which is full of divinity and excellence. One can’t simply take off his eyes from it.The full salutation given in this line is extremely true. All the Dev places are contained in physical body of Sadgurudev so it is quite natural for it to be full of divinity.Seperation from Sadgurudev is most sorrowful for a disciple and getting his company and beholding him is most self-satisfying pleasure of the life. Here that aspect of Sadgurudev has been described above. In sadhna field, there are 3 states of person which are Pashu, Veer and Divya. These are both internal and external states. Here the word “Skoti Chhavi” has been used as metaphor for divine body. In other words that body which is full of outstanding divinity. It is highest state of Divy Bhaav. Basically, person is bound by attraction element and wherever he finds someone superior to him, he gets attracted. Here rather than physical or materialistic attraction, soul attraction should be taken into consideration. The speed with which sadhak rises above the Bhaavs and move towards divinity, his attraction element also increases. This attraction capability also attracts Dev Shaktis and nature to get attracted towards sadhak and they salute the sadhak by fulfilling all his wishes. If path of attaining attraction is full of purity then sadhak also attains divinity. This is because divinity and attraction are complimentary to each other. Wherever there is pure attraction, Dev Shaktis and nature automatically gets attracted towards sadhak so attaining divinity is certainty and where there is divinity, there also activation and development of attraction element takes place. Thus, here in the first line there is mention of both these elements. The beej of this pure power of attraction and divinity is “KLEEM”. The god and goddesses which have been given this beej are full of attraction ability and whosoever does the sadhna of these god and goddesses, also attains complete attraction and divinity. Therefore, the basic meaning of first line elucidating the form of Sadgurudev having pure attraction and highest limit of divinity is “KLEEM”.

In the next verse, it has been said “Sukhadam Vardam Var Saadhy Mayam”. In other words, the one gives blessings of happiness and also materialise this blessing in practice.. It is because blessings and boon can be given by anyone but blessings of Siddh person are not mere words. They completely circulate their own energy in that blessing or boon so that it happens in practical form, the boon given becomes a reality and intended work is realised in nature. This activity is basically carried out by them through the means of their Iccha Shakti (will-power). They provide boon through their knowledge but then also the base behind it is still Iccha Shakti only. And to materialise this boon there is Kriya Shakti too but basically this activity is also done by Iccha Shakti only. One disciple tries everything to attain boon from Sadguru so what is this procedure? This procedure is also upasana of Iccha Shakti of Sadgurudev. This particular Shakti of Sadgurudev has been described in presented verse whose beej is “HREEM”

And the last verse Nikhileshwar Guruvar PaahiPrabho means Nikhileshwaraay Namah.

In this manner real basic mantra of this fourth verse is

KLEEM HREEM NIKHILESHWARAAY NAMAH

By chanting this mantra, person attains boon of attraction capability and Divy Bhaav.
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अति दिव्य सु देह सकोटि छवि मम नेत्र चकोर दृगात्म मयं
सुखदं वरदं वर साध्य मयं निखिलेश्वर गुरुवर पाहि प्रभो

निखिलेश्वरानंद पञ्च रत्न रहस्य के इस चतुर्थ पद भी दूसरे पदों की तरह कई गुढ़ रहस्यों से परिपूर्ण है.

प्रथम पंक्ति ‘अति दिव्य सु देह सकोटि छवि मम नेत्र चकोर दृगात्म मयं’ का सामन्य अर्थ यह है की अत्यधिक दिव्यता तथा उत्कृष्ट दर्शन युक्त एसी देह जिससे नज़र हटाना संभव ही नहीं. पंक्ति की अभिवादिता पूर्ण शैली में जो कहा गया है वह नितांत सत्य है, सदगुरुदेव का शरीर देव स्थानों का समूह होता है जो दिव्यता से युक्त होना स्वाभाविक ही है. सदगुरु से वियोग एक शिष्य के लिए जीवन का बहोत ही बड़ा दुःख होता है. तथा उनका सामीप्य प्राप्त करना तथा उन्हें निहारना जीवनका सब से बड़ा आत्मसंतुष्टि दायक सुख. यहाँ पर सदगुरुदेव के उसी पक्ष के ऊपर वर्णन किया गया है. मनुष्य की साधनात्मक रूप से तिन गति होती है, पशु, वीर तथा दिव्य. यह आतंरिक तथा बाह्य दोनों रूप की गति है. यहाँ पर सकोटि छवि शब्द का उपयोग दिव्य देह के वार्णिक रूप में किया गया है. अर्थात एसी देह जो की उत्कृष्ट दिव्यता से परिपूर्ण हो. दिव्य भाव की चरम अवस्था हो. मूल रूप से मनुष्य आकर्षण तत्व से बद्ध रहता है तथा उसे जहां पर भी स्व से ज्यादा श्रेष्ठता का भाव आये वहाँ पर वह आकर्षण बद्ध हो जाता है. यहाँ पर शारीरिक या भौतिक आकर्षण का अर्थ न लेते हुवे आत्मिक आकर्षण का अर्थ लेना चाहिए. जिस गति से साधक भावो से ऊपर उठ कर दिव्यता की और बढ़ता जाता है तब उसका आकर्षण तत्व भी बढ़ता जाता है. यही आकर्षण क्षमता देवशक्तियों तथा प्रकृति को भी साधक की और आकर्षित करती है तथा साधक का अभिवादन उसकी हर एक इच्छा को पूर्ण कर के करती है. अगर आकर्षण प्राप्ति का मार्ग विशुद्धि पूर्ण हो तो साधक को दिव्यता की भी प्राप्ति होती है. क्यों की दिव्यता तथा आकर्षण एक दूसरे के पूरक है. जहां विशुद्ध आकर्षण है वहाँ पर देव शक्तिया तथा प्रकृति स्वयं साधक की और आकर्षित रहती है अतः दिव्यता की प्राप्ति अवस्याम्भी है, तथा जहां पर दिव्यता है वहाँ पर भी आकर्षण तत्व का जागरण और विकास होता ही रहता है. इस लिए यहाँ पर प्रथम पंक्ति में इन दोनों तथ्यों के बारे में विवरण मिलता है. सदगुरुदेव की यही आकर्षण तथा दिव्यता की विशुद्ध शक्ति का बीज होता है ‘क्लीं’ यह बीज जिस किसी भी देवी देवता को प्राप्त है वह भी पूर्ण आकर्षण से बद्ध है तथा जो भी इन देवी तथा देवताओं की साधना तथा इस बीज की साधना करता है वह भी पूर्ण आकर्षण तथा दिव्यता को प्राप्त कर लेता है. इस लिए यहाँ पर सदगुरुदेव के पूर्ण विशुद्ध आकर्षण युक्त दिव्यता की चरम सीमा को धारण किये हुवे स्वरुप का निरूपण करती इस प्रथम पंक्ति का मूल अर्थ है ‘क्लीं’.

इसके बाद के पद में कहा है, सुखदं वरदं वर साध्य मयं अर्थात सुख आशीष देने वाले तथा उस आशीष को क्रिया रूप में भी संचारित करने वाले. क्यों की आशीर्वाद या वरदान कोई भी दे सकता है लेकिन सिद्ध व्यक्ति का आशीष मात्र शब्द नहीं होते, वह अपनी शक्ति का पूर्ण संचार कर उस आशीष को या वरदान को क्रिया रूप में घटित हो, जो भी वरदान दिया गया है वह सत्य हो जाए, प्रकृति में वह कार्य हो जाए एसी क्रिया करते है. यह क्रिया मूलतः उनकी इच्छा शक्ति के माध्यम से सम्पादित हो जाती है. ज्ञान के माध्यम से वह वर प्रदान करते है लेकिन इसके पीछे भी आधार इच्छा शक्ति ही तो है. और दिए गए वर को जहां क्रियान्वित करने के लिए क्रियाशक्ति भी है लेकिन मूलतः यह क्रिया भी इच्छा मात्र से ही सम्प्पन होती है. एक शिष्य अपनी पूरी जी जान लगा देता है सदगुरु से वर प्राप्ति के लिए तो यह प्रक्रिया भी क्या है. यह प्रक्रिया सदगुरुदेव की इच्छा शक्ति की उपासना ही तो है. प्रस्तुत पंक्ति पद में सदगुरु की इसी शक्ति के बारे में बताया गया है जिसका बीज है ‘ह्रीं

तथा अंतिम पद निखिलेश्वर गुरुवर पाहि प्रभो का अर्थ है निखिलेश्वराय नमः

इस प्रकार ये चतुर्थ पद का वास्तविक मूल मंत्र इस प्रकार है.

क्लीं ह्रीं निखिलेश्वराय नमः

इस मंत्र जाप से व्यक्ति आकर्षण क्षमता, दिव्य भाव का वरदान प्राप्त करता है. 

****NPRU****


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