आज का हमारे चर्चा का विषय “पारद” है. आज के सन्दर्भ में ऐसा कोई नहीं जो पारद धातु के बारे में ना जानता हो. ये
एक ऐसि अद्बुत धातु है जिसमे गतिशीलता, शुभ्रता और
आभा है जो मनुष्य कों अपनी ओर खींचती है. और आप शायद विशवास ही नहीं करेंगे पारद
की शुभ्रता और आभा आपको कितना आनंद प्रदान करने में सक्षम है शायद ये अनिर्वचनीय है...
कल्पना कीजिये जब ये दिव्य पारद आपको स्वीकार कर लेता हे पूर्ण रूप से तो ऐसा क्या
है जिसे ये प्रदान करने में सक्षम नहीं और कितने सौभाग्यवान है आप इस पुरे ब्रमांड
में.. यहाँ तक की स्वर्गदूत भी प्रशंसा करेंगे की कहीं न कही आपने ऐसे पुण्य कर्म
किये है जिसके फलस्वरूप आपको भगवान ने स्वयं इस भक्ति के लिए चयनित किया है. इस
दिव्य धातु के कई अतिरिक्त नाम है – रस, रसराज, पारा, रसेंद्र, पारद, जीव, सीमव, शिववीर्य, दृत्रुपा...
और सबसे अनोखा तथ्य यह है की भारत में बड़ी ही दुर्लभता है परन्तु अधिकांश तथ्य भी केवल यही उपलब्ध है. पुरातन काल से प्राचीन ग्रंथों
के माध्यम से एसी कई चर्चाए चली आई है जिसमे पारद के प्रवास का उल्लेख है जो अब “रस” से “रसराज” फिर “रसेंद्र” और अंतिम प्रवास में पारद कों “सिद्धरस’ से संज्ञित किया गया है. जो मानव
जाती कों कायाकल्प एवं दीर्घायुता वो भी एसी विस्मयकारी शक्तियों के साथ एक स्वस्थ जीवन
देने में समर्थ है.
परन्तु ध्यान रहे की ‘सिद्धरस’ का निर्माण करना कोंइ बच्चों का खेल नहीं. और इसके
लिए आधारभूत क्रियाओं कों समझना पहले आवश्यक है.क्युकी जब भी आप प्रक्रिया की
शुरवात करते है तो पारद की परोक्ष अपरोक्ष रूप से परिमार्जन करना और उसे मूल रूप
से स्वीकार करना.. क्युकी इस से स्वयं पारद भी आपकों स्वीकार कर रहा है और जब ये द्विपहलु बन
जाता है तब साधक पारद के मूलरूप कों आत्मसात कर आगे बढ़ पाता है. पर दुःख की बात ये
की अधिकाँश व्यक्ति धैर्य के अभाव के कारण मुश्किल से ८ वे संस्कार में भाग खड़े
होते है.
प्रश्न ये उठता है की क्या महत्ता है इन संस्कारों की
?
हमारी धार्मिक पुस्तकों में वर्णित ही की पारद की
अशुद्धता कों दूर करने के लिए प्रथम अष्ट संस्कार अत्यंत आवश्यक है. पर ना मालुम
क्यों हमारे मनीषियो ने इस तथ्य कों गुप्त रखना उचित समझा बजाय उजागर करने के की
पारद कों विशुद्ध बनाने के लिए वनस्पति विज्ञान का बड़ा महत्व है. और जब वनस्पतियों
से शुद्धिकरण क्रिया की जाती है तब पारद इन वनस्पतियों की सभी धनात्मकता कों शोषित
कर लेता है और फिर ८ वे संस्कार के पश्चात भी उसका मूल तत्व विद्यमान रहता है उसी आभा और तेज
के साथ जो तपस्वी कों सफलता और सौभाग्य देने में सहायक होता है.
अगर आप ध्यानपूर्वक समझे तो प्राचीन मनीषियो ने पारद
के अष्ट संस्कारों की तुलना एक बालक के प्राथमिक संस्कारों से की है. जिनका इस
प्रकार से नामकरण कर “संस्कार” रखा है जिसके
बाद व्यक्ति सभी सिद्धियो कों अर्जित करने हेतु सक्षम बन जाता है. अब हम ये भी जानेंगे की बालक की बाल्यकाल की कोंसी एसी
गतिविधिया होती है जिन्हें हमारे मनीषियो ने पारद की संस्कारो से तुलना की है –
स्वेदन (गोता लगाना) – एक बालक सदेव जल में गोता लगाना खेलना कूदना अपने आप
कों दूषित कर लेने में आनंद अनुभव करता है.
मर्दन (घिसना) – पहली क्रिया
के पश्चात वह धुल मिटटी में अपने आप कों धूसरित करता है जिससे की उसे नहला के साफ़
किया जाता है.
मूर्छन (मसलना) – और फिर मालिश
के पश्चात बालक में तीव्र ठाक के होने के कारण वह निद्रा अवस्था में चला जाता है.
उत्थापन (उदित करना) – फिर आप बालक
कों जागते है.
पातन (साफ़ करना) – फिर आप बालक
कों शुद्ध जल से स्नान करा के साफ़ सुथरा करते है.
नियमन (तयार करना) – फिर आप बालक
कों तैयार करते है अच्छी बाते समझा कर.
बोधन (उत्तेजित करना) – फिर आप बालक
कों और परिपक्व और समझदार बनाने के लिए एसी बाते करते है जिस से वह उकसाता होकर
चीजों कों समझता है.
दीपन (भूख ) – इस प्रवास के
दौरान बालक की भूख भी बढती है.
फिर इसके बाद बढती उम्र के अनुसार वह खाना खाना सीखता
है. ठीक उसी प्रकार से विभीन्न प्रकार के संस्कार और वनस्पतिया समय अनुसार पारद
में अनोखी शक्तियो कों विकसित करती है. और एक चरण के बाद परिणाम स्वरूप जो हमारे
समक्ष जो शेष है उसे “सिद्धरस” या “दिव्य रसेंद्र” कहते है.
पर सबसे महत्वपूर्ण बात ध्यान में रखने लायक ये है की
इस पूर्ण यात्रा कों सफलता पूर्वक संपन्न करने के लिए एक अहमगुण की आवश्यकता है और
वो है “धैर्य”. और यही वह कड़ी है जहां व्यक्ति कमजोर पड़ जात है. याद रहे, जिस धातु की
क्रिया आप कर रहे है वह जीवित जागृत धातु है इसीलिए परिणाम भी आपके प्रयास और भावना पर निर्भर करता है.
****NPRU****
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