आवाहन के अंतर्गत हमने अबतक जाना की क्या होता हे बाहरी आत्मा आवाहन, अपनी ही आत्मा से आत्मा आवाहन के सभी लाभ मिल सकते है और अतीन्द्रिय जागरण के बाद किस प्रकार आत्मा समूह पर ही काबू पाया जा सकता है. आगे हमने ये भी जाना की क्या होता हे सूक्ष्म जगत, क्या होती हे आवाहन की उपलब्धियां, सहयोगी या आत्म पुरुष का निर्माण, कल्पना योग कल्पना जगत का आवाहन से सम्बन्ध, माया जगत और अस्तित्व से आवाहन किस तरह से जुड़ा हुआ है.
यहाँ पे एक बात कहना चाहूँगा की हर मनुष्य के ज्ञान की एक सीमा होती है, जिससे वह आगे जाना चाहता है. ज्ञान अनंत है, इस लिए हर वो व्यक्ति जिसे ज्ञान अर्जित करना हो वह अज्ञानी ही है, जहा पे ज्ञान की सीमा आ जाती है वही से चमत्कार का शिलशिला शुरू होता है. जो चीज़ हमारे ज्ञान से परे है वही चमत्कार है.
एक मनुष्य का बच्चा बिछड़ के जंगल में चला जाए, कई साल तक वह जंगली पशुओ की तरह रहता है, न ही वह मनुष्यों की तरह बोल सकता है नहीं मनुष्यों की रीत भात से वह परिचित है. सालो बाद उसे कोई शहरी मनुष्य दिखाई दे और उसे बोलता सुने उसकी सभ्यता को देखे, तो उसके लिए वह एक बहोत बड़ा चमत्कार ही होगा. आश्चर्य की सीमा पार हो जाएंगी और वही से प्रारंभ होगा ज्ञान बोध.
मनुष्य चमत्कार का सर्जन नहीं करता. वह प्रकति का कार्य है. हम उसमे एक निमित ही होते है, जिसमे सब से महत्वपूर्ण है ज्ञान बोध. वो जोकि हमें अब तक अज्ञान था. सृष्टि अनंत रह्श्यो से भरपूर है और उसमे एसी कई घटनाये होती रहती है जिसे अविश्वनीय या चमत्कार कही जा सकती है लेकिन जिन्होंने वह ज्ञान प्राप्त कर लिया हो, जो आगे के ज्ञान बोध के लिए बढ़ चुके हो, उनके लिए महज वह एक सामान्य घटनाक्रम हे इस अनंत रहश्य का, और ज्ञानी लोग उसे मात्र निमित कहके आगे बढ़ जाते है...एसी ही एक घटना घटी मेरे साथ भी जो की मेरे लिए अचरज रहस्य और चमत्कार से भरपूर थी पर में मात्र उसमे एक निमित बन के ही रह गया...............
सन्याशी ने मेरी और कुछ अजीब ढंग से देखा और किंचित मुस्कराहट के साथ कहा " क्योंकि यह तुम्हारा वास्तविक शरीर नहीं हे, तुम अभी सूक्ष्म शरीर में हो"...और काफी समय से कुछ भी भाव नहीं था वहा पे जेसे मानस में एक भाव आया " आश्चर्य " ...
सुबह का ही समय रहा होगा, सूर्य को पूर्व की और देख कर मेने अंदाज़ा लगाया. धुप अत्यंत ही प्रखर थी लेकिन गर्मी का लेश मात्र भी एहसास नहीं, बायीं ओर एक रेल की पटरी थी जिसपर सायद सालो से कोई रेल नहीं चली थी, सामने की तरफ दूर दूर तक फेला हुआ पत्थरीला मैदान... होश हुआ तो मेने कुछ ऐसे ही पाया मुझे, पता नहीं की में यहाँ पे पहोंचा भी केसे, आश्चर्य तो होना चाहिए था लेकिन लेश मात्र भी आश्चर्य नहीं हुआ मुझे. उस वक्त सायद मेरा मानसिक संतुलन मेरे हाथ में नहीं था, में कुछ एसा बूट सा बन गया था की जिसकी कोई सोच नहीं है कोई भी गति नहीं और नाही कुछ समज है. न मुझे मौसम का एहसास था न ही कोई भय. लग तो रहा था की बहोत लम्बी मुसाफ़री की हे लेकिन थकावट भी नहीं. पता नहीं क्यों, चारो ओर घुमाके मेने एक नज़र दौड़ाई, दूर दूर तक इंसान ओर इंसान की वसाहत का कोई नामोनिशान नहीं. चारो तरफ का वातावरण अत्यंत ही अजीब लग रहा था सिर्फ इतना ही महसूस कर पाया की मेरे शरीर में जरुर कुछ परिवर्तन सा हुआ हे ओर वो अत्यंत ही सुखद है. न कोई कष्ट न ही कोई पीड़ा न कोई विषाद, और एक अजीब सी शांति अन्दर ही अन्दर आनंदित करती हुयी सी . रेल की पटरी से दूर पथरीली ज़मीन पर में चलने लगा लेकिन चलने का एहसास ही कुछ ओर था, एक सुखद अनुभूति हो गयी थी, मेरी गति मुझे असामान्य लगी, धीरे धीरे एसा लगा जेसे में हवा में तेर रहा हु, चल नहीं रहा पर उड़ ही रहा हु. मुझे पता नहीं था की में किस तरफ ओर क्यों जा रहा हु. एसा लग रहा था जेसे कोई दूर बहोत दूर से मुझे कोई अद्रश्य डोर से खिंच रहा हे...थोड़े ही समय में न जाने कितना अंतर ख़तम कर दिया कुछ अंदाज़ा नहीं पर बहोत ही दूर एक इंसान की आकृति मुझे दिखाई दी, जो एक टक मेरी ओर देखे जा रही थी . में उसी के नज़दीक पहोचा तो वह एक मनुष्य की आकृति थी. मुस्कुराके उसने अभिवादन किया. मेरी मनः स्थिति जिस प्रकार से थी मेने उसे परिचय पूछना भी उचित्त नहीं समजा. क्यूंकि सब कुछ दिमाग में जेसे स्पष्ट ही तो था. सिर्फ एक भाव लाते ही उनका परिचय भी मिल गया. उन्होंने बिना मुह खोले कहा की केसे हो ? और मेने ये सुना या यु कहू की मेने उनकी मानस से निकली हुयी उन तरंगों को समझा. जवाब में मेने भी बिना आवाज निकाले उत्तर दिया की ठीक. मुझे पता नहीं था की ये में कैसे कर रहा हू... यहाँ पे मूक वार्तालाप हो रहा था जिसमे शब्द और ध्वनि सिर्फ मानसिक तरंगे ही थी... उनके संकेत से हमदोनो आगे निकल गए... थोड़ी दूर और आगे चलने पर एक सन्याशी नज़र आए. भारी लंबा शरीर उलझी जटाए. भगवा धोती. तेजश्वी मुख पर कुछ चिंता की लकीर सी लग रही थी. हमारे उनके पास पहुंचते ही उन्होंने कहा अच्छा हुआ आप लोग आ गए हे ...में उस मायावी योगिनी से परेशान हो गया हु..... (क्रमशः)
सुबह का ही समय रहा होगा, सूर्य को पूर्व की और देख कर मेने अंदाज़ा लगाया. धुप अत्यंत ही प्रखर थी लेकिन गर्मी का लेश मात्र भी एहसास नहीं, बायीं ओर एक रेल की पटरी थी जिसपर सायद सालो से कोई रेल नहीं चली थी, सामने की तरफ दूर दूर तक फेला हुआ पत्थरीला मैदान... होश हुआ तो मेने कुछ ऐसे ही पाया मुझे, पता नहीं की में यहाँ पे पहोंचा भी केसे, आश्चर्य तो होना चाहिए था लेकिन लेश मात्र भी आश्चर्य नहीं हुआ मुझे. उस वक्त सायद मेरा मानसिक संतुलन मेरे हाथ में नहीं था, में कुछ एसा बूट सा बन गया था की जिसकी कोई सोच नहीं है कोई भी गति नहीं और नाही कुछ समज है. न मुझे मौसम का एहसास था न ही कोई भय. लग तो रहा था की बहोत लम्बी मुसाफ़री की हे लेकिन थकावट भी नहीं. पता नहीं क्यों, चारो ओर घुमाके मेने एक नज़र दौड़ाई, दूर दूर तक इंसान ओर इंसान की वसाहत का कोई नामोनिशान नहीं. चारो तरफ का वातावरण अत्यंत ही अजीब लग रहा था सिर्फ इतना ही महसूस कर पाया की मेरे शरीर में जरुर कुछ परिवर्तन सा हुआ हे ओर वो अत्यंत ही सुखद है. न कोई कष्ट न ही कोई पीड़ा न कोई विषाद, और एक अजीब सी शांति अन्दर ही अन्दर आनंदित करती हुयी सी . रेल की पटरी से दूर पथरीली ज़मीन पर में चलने लगा लेकिन चलने का एहसास ही कुछ ओर था, एक सुखद अनुभूति हो गयी थी, मेरी गति मुझे असामान्य लगी, धीरे धीरे एसा लगा जेसे में हवा में तेर रहा हु, चल नहीं रहा पर उड़ ही रहा हु. मुझे पता नहीं था की में किस तरफ ओर क्यों जा रहा हु. एसा लग रहा था जेसे कोई दूर बहोत दूर से मुझे कोई अद्रश्य डोर से खिंच रहा हे...थोड़े ही समय में न जाने कितना अंतर ख़तम कर दिया कुछ अंदाज़ा नहीं पर बहोत ही दूर एक इंसान की आकृति मुझे दिखाई दी, जो एक टक मेरी ओर देखे जा रही थी . में उसी के नज़दीक पहोचा तो वह एक मनुष्य की आकृति थी. मुस्कुराके उसने अभिवादन किया. मेरी मनः स्थिति जिस प्रकार से थी मेने उसे परिचय पूछना भी उचित्त नहीं समजा. क्यूंकि सब कुछ दिमाग में जेसे स्पष्ट ही तो था. सिर्फ एक भाव लाते ही उनका परिचय भी मिल गया. उन्होंने बिना मुह खोले कहा की केसे हो ? और मेने ये सुना या यु कहू की मेने उनकी मानस से निकली हुयी उन तरंगों को समझा. जवाब में मेने भी बिना आवाज निकाले उत्तर दिया की ठीक. मुझे पता नहीं था की ये में कैसे कर रहा हू... यहाँ पे मूक वार्तालाप हो रहा था जिसमे शब्द और ध्वनि सिर्फ मानसिक तरंगे ही थी... उनके संकेत से हमदोनो आगे निकल गए... थोड़ी दूर और आगे चलने पर एक सन्याशी नज़र आए. भारी लंबा शरीर उलझी जटाए. भगवा धोती. तेजश्वी मुख पर कुछ चिंता की लकीर सी लग रही थी. हमारे उनके पास पहुंचते ही उन्होंने कहा अच्छा हुआ आप लोग आ गए हे ...में उस मायावी योगिनी से परेशान हो गया हु..... (क्रमशः)
Till now, under aavahan, we understood that what is outer aatma aavahan, we can have benefits of aatma aavahan with our own soul and how the control over group of aatma could be applied with atindriya activation. Further, we even came to know that what sukshma jagat is, what are the achievements of aavahan, preparation and making of aatmapurusha or sahayogi, the relation of Kalpana yoga and kalpana jagat with aavahan, and how aavahan is attached with Maya Jagat and Existence.
Here, I would like to add that every human being has a limitation of knowledge, on further he wish to go. Knowledge is infinite, therefore every human who will to generate knowledge are knowledgeess, ignorant; where there is a border of knowledge, from there the miracles finds their beginning.
If a child of human gets lost and go to forest, there it lives like wild animals for years, neither he can speak like humans, nor he is aware about human way of living. After years, he look someone human like him from a city area, he listen him speaking, watches his way of life and living, thus it would turn a big miracle for him. Border of the surprises will break and from there it would be beginning of knowledge seeking or Gyan Bodh.
Human does not creates miracles. It is work of nature. We are just amedium of the same; the most important thing is GyanBodha from it. The thing; of which, we were not having knowledge. The world is filled with infinite mysteries and such incidents keeps on being there which could be mention as Unbelievable or miraculous but those, who already had been through that knowledge, those who already have move ahead for further GyanBodha, it is just a normal incident for them from this infinite secret, and knowledgeable often term it as Nimitt i.e. Medium and move ahead...such incident even had encounter with me which was full of surprise, mystery and miracles but I remained in it as just a medium.
sanyshi looked at me in very mystic way and with a smile he said “ Because this is not your actual body, you are currently in your astral body”…and where there was no sentiment, at that time a feeling came into the mind “ Surprise”…
the time must be of morning, I just thought by lookin at sun in east. It was very hot but there was no feeling of heat, Right side there was a railway line, which was expectedly useless to pass railway from many years, long flat stony land was in front of eyes.
When I became a bit conscious, I found myself in this condition. I was not aware that how did I reached here, I was supposed to be surprise but there was no surprise in mind at all. At that time I think my mind was not in my control, I went to be kind of statue with no power to understand and with no understandings. I was not feeling weather neither was scared of it.
I Was feeling that I travelled a long to here but with no exhaustion at all. Don’t know why I looked every side with single go, till far I see there was no sign of human or human living. The surroundings were really felt a bit strange but only thing I just realised that there is a change in my body and it is enjoyable.No pain, No suffering, No depression and a peace, letting me have joy within. I started to walk far from railway line, on the rocky ground but the sensitation of walking was different. My speed felt to be abnormal; slowly I felt that I am swimming in air. I am not walking but Flying!!!
I was not aware that at what direction and why I am going. It was something like from far an invisible rob is stretching me...it was hard to calculate the distance I crossed in a too little time. At far now and figure became visible, who was looking at me continuously.
When I reached nearer, I understood that it was human figure. He welcomed me with smile. The way my mind was behaving, I didn’t found suitable to ask him who he was. Because everything in mind was clear. Just with a single thought, I came across his introduction in my mind. He asked me how are you without opening his mouth. And I listened it, in other words I understood the rays came from his mind. In answer I too replied all right with no word.
I was not aware that how I am doing this. The silent conversation was going on in which words and sound were only mental rays.we moved ahead with his signal
After sometime a bit far A sanyashi became visible. Heavy body with long hairs. Saffron Dhoti. On glowing face, it was a tensed expression. He spoke when we just reached to him “ its good now that you people came, I am tired of that elusive Yogini....”
( continue)
****NPRU****
3 comments:
Nikhil bhai, kya Peetampura Kohat enclave mae sunday ko bhi jaa sakte hai. Kya waha par guru ji se ya aap se bhet ho sakegi ?
Dear subodh ji , aap kohat enclave main sunday ko ja sakte hain wahan koi partibandh nahi hain par , poojya gurudev wahan par kis kis date ko milenge use to aap ko office main phone karke ya patrika dekh kar hi pata chal payega,
aur arif ji wahan par nahi balki we to madhya pradesh main rahte hain ,
smile
Anu
dear rahul ji,
thanks for sucha kind word,kind sneh/ love of you all is a great motivating factor for all of us here.
smile
Anu
Post a Comment