सदगुरुदेव
की आज्ञानुसार जब मैं उनके संन्यासी शिष्य प्रज्ञानंद जी से मिला था और उनसे
कायाकल्प का प्रत्यक्ष प्रमाण देखा था(श्वेत बिंदु और रक्त बिंदु लेख माला में
आपने इस विज्ञानं से सम्बंधित रहस्यों को ब्लॉग पर अवश्य पढ़ा ही होगा) उन्ही के
सान्निध्य में मैंने इस विषय से सम्बंधित जिज्ञासाओं का शमन प्राप्त किया था. वहाँ
से वापिस २ महीने में हम पचमढ़ी पहुचे थे जहाँ उन्होंने मेरी मुलाकात सौंदर्या माँ
से करवाई थी.यहाँ एक बात मैं आप सभी के बताना आवश्यक समझता हूँ की सदगुरुदेव के
सान्निध्य में विभिन्न गृहस्थ और संन्यासी शिष्यों ने विभिन्न साधनाओं के
क्षेत्रों में सफलता पायी हैं या ये कह लें की पात्रता या शोध कार्यों के अनुसार
किसी खास साधनाओं के रहस्यों को सदगुरुदेव ने शिष्यों को प्रदान किया है,और उन
शिष्यों को उसी क्षेत्र विशेष में आगे बढ़ाया है.जिसके परिणाम स्वरुप आज वे शिष्य
उन साधनाओं में विविध आयामों की प्राप्ति कर एक कीर्तिमान बना सके.
खैर माँ का निवास बड़ा महादेव की गुफा से पीछे की
तरफ घने जंगलों में है जहाँ पर वे अपने आश्रम में आज भी साधनाओं के विभिन्न
रहस्यों को जानने और उचित साधकों को ज्ञान प्रदान करने के कार्य में लगी हुयी
हैं.सौंदर्य साधनाओं और अप्सरा यक्षिणी साधनाओं का ऐसा रहस्य शायद ही आज किसी और
साधक के पास हो जैसा सदगुरुदेव ने उन्हें प्रदान किया है. और मेरा भाग्य तो उस समय
हीरक कलम से लिखा गया था,तभी तो कायाकल्प तंत्र के ज्ञाता स्वामी प्रज्ञानंद जी और
सौंदर्य साधनाओं में अग्रणी सौंदर्या माँ का सान्निध्य मुझे प्राप्त हुआ था,और यही
उचित अवसर था मेरी जिज्ञासा की भूख को शांत करने का तो बस फिर मानो मैंने तो
प्रश्नों की झड़ी ही लगा दी थी और उतनी ही तीव्रता से मुझे उनके उत्तर भी प्राप्त
होते चले गए.उस दिन मुझे यकीन हो गया की विज्ञान सही कहता है की ‘क्रिया के
सामानांतर उतने ही वेग से उसकी प्रतिक्रिया भी होती है.’ है ना.
प्र० कायाकल्प क्या है ?
उ० इसके लिए सबसे
पहले कायाकल्प शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है. काय शब्द का अर्थ शरीर तो होता ही है
,परन्तु ये एक महत्वपूर्ण तत्व अग्नि को भी दर्शाता है.अर्थात ये अग्नि का भी
पर्यायवाची है-
“जाठर: प्राणिनां अग्निः
काय इत्यभिधीयते”
समस्त प्राणियों की
की जठराग्नि को काय शब्द से उच्चारित किया जाता है,इसीलिए कहा गया है की अग्नि के
ठीक रहने से मनुष्य भी स्वस्थ और निरोग रह सकता है.
इसी प्रकार इस उक्ति
को भी यहाँ ध्यान में रखना अनिवार्य है कि-
“अग्नि मूलं बलं पुंसां
रेतोमूलम च जीवनं,तत्समात् सर्व प्रयत्नेन वह्निं शुक्रं च रक्ष्येत्”
यहाँ पर तंत्र,योग और
आयुर्वेद एक ही बात कहते हैं कि मनुष्य के बल का मूल स्त्रोत अग्नि ही है और जीवन
का मूल वीर्य ही है,अतः सभी प्रकार से अग्नि और वीर्य की रक्षा मानव को करना ही चाहिए. अग्नि से
तात्पर्य ताप से भी है और हम सभी जानते हैं की मानव शरीर का ताप नष्ट हो जाने पर
मनुष्य मृत समझा जाता है,मानव शरीर में कई प्रकार की अग्नि होती हैं ,जिनके विकृत
होने पर मनुष्य रोगी समझा जाता है.तभी तो भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है की-
“अहम् वैश्वानरो भूत्वा
प्राणिनां देहमाश्रीत:
प्राण: अपान समायुक्तो
पचाम्यनम् चतुर्विधं”
अर्थात मैं वैश्वानर
(अग्निरूप) होकर प्राणियों के शरीर में वास करता हूँ और प्राण,अपान,समान वायु के
द्वारा खाद्य,पेय,लेह्य और चव्य इन चारों प्रकार के अन्नों को पचाता हूँ.
और प्रत्येक प्राणी
की चार अवस्था होती है, इसमें से किसी भी अवस्था में जठराग्नि और वीर्य के कमजोर
और दूषित होने पर तीव्रता के साथ वृद्धावस्था की और अग्रसर होने लग जाता है.
परन्तु जिस विद्या के द्वारा काय को प्रदीप्त कर शरीर को पुनर्योवन प्रदान किया
जाता है ,उसे कायाकल्प कहा जाता है.
प्र० आपने सिर्फ अग्नि और वीर्य को ही जीवन का मूल माना है,जबकि ये सृष्टि
तो पंचभूतात्मक अर्थात पञ्च तत्वों यथा पृथ्वी,जल,अग्नि,आकाश और वायु से निर्मित
है?
उ० बेटे तुम्हारा कथन
अपनी जगह सही है,परन्तु एक गूढ़ रहस्य भी है इसमें जिसकी जानकारी हमें होना ही
चाहिए .और वो ये है की भले ही ये सृष्टि पंचभूतात्मक है परन्तु इसमें आकाश आच्छादन
में,पृथ्वी धारण में और वायु सहयोगी मात्र रह जाता है. निर्माण मात्र जल और अग्नि
के द्वारा ही होता है और विकृति भी इन्ही दोनों के कमजोर पड़ने और दूषित होने से
होती है. वस्तुतः कायाकल्प अग्निकल्प ही है क्यूंकि जलीय विकृति आदि का व्यवधान को
शस्त्र-कर्म से दूर किया जा सकता है,किन्तु किसी भी चिकित्सा पद्धति में अग्नि से
उत्पन्न विकृति को शस्त्र कर्म से दूर नहीं किया जा सकता,इसीलिए कायाकल्प को अग्नि
की चिकित्सा भी कहा जाता है.
प्र० कायाकल्प
और सौंदर्य में क्या भेद है ?
उ० कायाकल्प का अर्थ
होता है किसी भी पदार्थ में कालानुसार क्षरण की क्रियाओं के फलस्वरूप जो विकृति
हुयी हो उसका रूपांतरण कर पुनः मूल रूप देना ठीक वैसा ही जैसा वो या तो क्षरण के
पहले था या फिर जैसा हम चाहते हैं.वस्तुत इस क्रिया को संपन्न करने के विभिन्न चरण
होते हैं और साथ ही विशिष्ट माध्यमों का प्रयोग कर ये क्रिया की जाती है. और मात्र
कायाकल्प से ही तो कार्य संभव नहीं हो पाता है बल्कि उस पदार्थ ,तत्व,धातु या फिर
प्राणी के भीतर उपस्थित वह ऊर्जाजिससे बाह्य जगत पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता हो,उस
ऊर्जाका स्तर तथा मात्रा को सकारात्मक रूप से परिवर्तित कर उसका प्रवाह अन्तः शरीर
के साथ बाह्य शरीर पर भी करना और उसे स्थायित्व प्रदान करना.यही क्रिया सौंदर्य गुण की प्राप्ति कहलाती है. वस्तुतः कायाकल्प और
सौंदर्य एक दुसरे के बगैर अधूरे ही हैं.और इन दोनों का योग तंत्र के द्वारा ही हो
सकता है.
प्र० आप ने कहा की इन क्रियाओं के संपादन हेतु किसी विशिष्ट माध्यम की
आवश्यकता होती है,तो वे विशिष्ट माध्यम कौन कौन से हैं?
उ० इसके लिए उन
वनस्पतियों,मन्त्रों,धातु,तत्व या प्राणियों का प्रयोग किया जाता है जिनमें
धनात्मक ऊर्जा की प्रचुर मात्रा में प्रधानता होती है. इन के प्रयोग से ही
कायाकल्प और सौंदर्य की क्रियाओं को पूर्णता दी जाती है.क्यूंकि दोनों ही क्रियाओं
में उपादान में ऋणात्मक गुणों का परिवर्तन धनात्मक गुणों में किया जाता है या
उपादान में धनात्मक ऊर्जा का विस्तार किया जाता है.
प्र० कायाकल्प करने के लिए आयुर्वेद का प्रचलन तो है ना,फिर इसमें तंत्र का
क्या योगदान है ?
उ० आयुर्वेद मानव
जीवन की स्वस्थ रहने की कामना पूर्ण करने में सहायक है, सदैव से मानव के मन में
स्वयं अजर,अमर होने की तीव्र उत्कंठा रही है. और आयुर्वेद का समन्वय जब तंत्र से
हो जाता है तो इस उक्ति को भी सिद्ध किया जा सकता है जो की यजुर्वेद मानव से कहता
है कि –
“जीवेत शरदः शतम्
.....भूयश्च शरदः शतात्’
अर्थात हम १०० वर्षों
तक स्वस्थ रहने के पश्चात पुनः १०० वर्ष जियें. इसी आयुष्कामना के लिए आयुर्वेद को
तीव्रता प्रदान करने के लिए तंत्र और आयुर्वेद का समन्वय किया जाता है. तंत्र का अर्थ ही होता है एक निश्चित पद्धति के साथ किसी कार्य को गति
देकर मनोवांछित परिणाम की प्राप्ति करना. और तंत्र समस्त आंतरिक और बाह्य विकारों को नष्ट कर गुणों को
परिष्कृत करता है ,सौंदर्य की प्राप्ति करवाता है और इसी कारण जब कायाकल्प के साथ
सौंदर्य का समावेश हो जाता है तो यही सही अर्थों में कायाकल्प कहलाता है.और जिस तंत्र के द्वारा ये अद्भुत क्रिया संपन्न की जाती है उसे कायाकल्प
तंत्र कहा जाता है,सौंदर्य तंत्र कहा जाता है क्यूंकि इसमें बाह्य उपादानों के साथ साथ तांत्रिक विधियों और
दिव्य मन्त्रों का भी प्रयोग किया जाता है. तांत्रिक क्रम और मन्त्रों के योग से
ये क्रिया तीव्र भी होती है और इससे प्राप्त परिणाम में स्थायित्व भी होता है
प्र० यूँ तो आयुर्वेद में विभिन्न वनस्पतियों या सामग्रियों का योग कर कल्प
का निर्माण करने का विवरण प्राप्त होता है परन्तु वे कौन कौन सी दिव्य वनस्पतियां
हैं जो मनुष्य को वीर्यवान कर मात्र उनके अपने प्रयोग से सौंदर्य प्रदान कर
कायाकल्प कर देती हैं और पारद का इसमें क्या महत्वपूर्ण भाग है ?
उ० वैसे तो विभिन्न
प्रकार की विकृतियों के लिए भिन्न भिन्न वनस्पतियों का कल्प रूप में सेवन करवाया
जाता है परन्तु पूर्ण कायाकल्प के लिए जिन
वनस्पतियों का प्रयोग किया जाता है वो हिमालय में अधिक मात्र में उत्पन्न होती
हैं.हिमालय में उत्पन्न होने वाली सभी वनस्पतियां वीर्य और शक्ति से संपन्न होती
हैं.परन्तु कायाकल्प और सौंदर्य के लिए –ऐन्द्री,ब्राह्मी,क्षीरकाकोली,शंखपुष्पी,मुंडी,महामुंडी,शतावरी,विदारीकंद,जीवंती,पुनर्नवा,नागबला,शालपर्णी,
वचा, छत्रा,अतिछत्रा,मेदा,महामेदा, जीवक,ऋषभक,मुद्गपर्णी,माष पर्णी और मधुयष्टी इनके ६ माह के प्रयोग से पूर्ण कायाकल्प होकर दीर्घयोश्य की
प्राप्ति होती ही है. इसी प्रकार हमें ये
भी नहीं भूलना चाहिए की पारद के प्रयोग से अतिशीघ्रता से जरा और दरिद्रता दोनों का
ही नाश किया जा सकता है,क्यूंकि इसकी वेध क्षमता अनंत है. यदि इसे बद्ध कर उससे
कल्प,कल्प पात्र,विग्रह या गुटिका का निर्माण कर प्रयोग किया जाये तो जो परिणाम
प्राप्त होते हैं वे अद्भुत होते हैं.संसार में आज तक ऐसी कोई भी औषधि नहीं बन
पायी है ,जो की मानव की मानसिक दुर्बलताओं व बौद्धिक क्षीणता को नष्ट कर दे तथा
भविष्य में ना होने दे परन्तु,पारद में यह क्षमता है की यदि उसके अष्टविध संस्कार
संपन्न कर दिए जाये तो उसके प्रयोग से ये संभव है-
“हतो हन्ति जराव्याधि
मूर्छितो व्याधि घातक:
बद्ध खेचरताम् धत्ते
कोन्य सूतात् कृपाकर:”
तभी तो रससिद्ध
नागार्जुन ने यही उक्ति और ध्यान मन्त्र हमें पारद की शक्ति को जानने के लिए दिया
है की “रसे सिद्धे करिष्यामि
निर्जरामिदं जगत”
और सबसे महत्वपूर्ण पक्ष ये है की जब पारद के
द्वारा तांत्रिक योग से कल्प माध्यम का निर्माण किया जाता है तो कुछ विशेष मंत्रो
का एक विशेष क्रम से प्रयोग किया जाता है .और इस प्रकार निर्मित माध्यम तीव्र और
अद्भुत प्रभावकारी होता है. यदि मात्र कल्प पात्र का ही निर्माण कर लिया जाये तो
उसमे रखे जल का प्रयोग करने से धीरे धीरे कृशता और पलित दूर होकर पूर्ण यौवन की
प्राप्ति होती है और देह का कालापन दूर होकर गौर वर्ण की प्राप्ति होती है.
प्र० आपने कहा है की अग्नि की सतत प्रदीप्त्ता ही कायाकल्प का मूल उद्देश्य
है,तो इसके लिए आयुर्वेद में विभिन्न क्रियाएँ हैं परन्तु कायाकल्प तंत्र से इसका
क्या सम्बन्ध हैं?
उ० शरीर में उपस्थित
सभी अग्नियों को नियंत्रित करने वाला स्थान नाभि है जहाँ पर मणिपुर चक्र होता
है.हम सभी को ये पता है की रावण की नाभि में अमृत था,जिसके कारण उसकी मृत्यु नही
हो सकती थी. परन्तु वो अमृत की प्राप्ति कैसे करता था,ये भी एक विचारणीय तथ्य है.
रावण रचित ‘लंकेश तंत्र पुष्पमाला’ में उसने इस क्रिया का पूर्ण विवरण दिया है.उसमे उसने बताया है की
षोडश मातृकाओं और ५२ वर्णों का उद्गमस्थल मणिपूर ही है.इसी चक्र को उच्च कोटि के
योगी रत्न कूट चक्र के नाम से भी जानते हैं.ये अग्नि तत्व से सम्बंधित चक्र है जिसका
प्रतिक त्रिकोण होता है .इसी त्रिकोण में कल्पना शक्ति,विचार शक्ति और संकल्प
शक्ति का वास होता है.सम्पूर्ण तंत्र यही निवास करते हैं. उसने व्याख्या करते हुए
बताया था की प्रत्येक मातृका की चार शक्तियां होती हैं जिन्हें की योगिनी कहा जाता
है .इस प्रकार प्रत्येक मातृका चार योगिनियों की स्वामिनी होती है.और प्रत्येक
योगिनी एक तंत्र की मूल शक्ति होती है,इस प्रकार १६ x ४=६४ योगिनियां ६४ तंत्रों को साकारता देती हुयी मणिपुर चक्र में स्थित होती हैं. और
अग्नि की तीव्रता और मंदता से इनकी शक्ति पर भी अंतर पड़ता ही है.तांत्रिक कायाकल्प
का अर्थ सामान्य कायाकल्प से कुछ अर्थों में भिन्न ही होता है. चिकित्सा शास्त्र
के अनुसार जो कायाकल्प किया जाता है वो मंद गति से इन शक्तियों को प्राप्ति करवाता
है.उसमे शरीर का ही कायाकल्प किया जाता है परन्तु तांत्रिक क्रम से किया गया
कायाकल्प दिव्य शक्तियों की प्राप्ति भी करवाता है,क्यूंकि वो शरीरस्थ अग्नि को
मात्र प्रदीप्त या नियंत्रित ही नहीं करता है अपितु उस अग्नि में दिव्यता का योग
कर उस अग्नि में विराजमान तांत्रिक दिव्य शक्तियों को भी साकार कर देता है.
प्रत्येक मनुष्य में ब्रह्ममुहूर्त में(लगभग ३ बजे से सूर्योदय के पहले तक)
सहस्त्रार दल से जीवन द्रव्य गिरता है (इसकी मात्रा व्यक्ति की दिनचर्या,चक्र का
स्पंदन और भाव पर निर्भर करती है) और ये द्रव्य अन्तः शरीर में स्थित तीन
महालिंगों को भेदता हुआ वीर्यपात के द्वारा शरीर से निकल जाता है.प्रकृति भी इस
द्रव्य को शरीर में नहीं रहने देती है .वो स्वप्नदोष या तीव्र कामुक विचारों के
माध्यम से कामोत्तेजना को तीव्र कर मनुष्य को इस द्रव्य मिश्रित वीर्य के साथ शरीर
से बहार करने के लिए प्रेरित करती है. उच्च कोटि के योगी तो अपनी जिव्हा को खेचरी
मुद्रा में करके इस जीवन द्रव्य का पान कर
लेते हैं और परिष्कृत वीर्य से इसका योग कर मणिपुर चक्र के माध्यम से इसे अग्नि
रूप में परिवर्तित कर हमारे शरीर की अस्थियों में समाहित कर देते हैं.जिसके कारण
वो अग्नि तेजपुंज के रूप में हमारे शरीर के चतुर्दिक दृष्टिगोचर होती है जिसे की
हम आभामंडल के नाम से जानते हैं.परन्तु ये सब सामान्य मनुष्य के लिए इतना सहज नहीं
है.इसके लिए निरंतर सजग रहने की आवशयकता होती है जिससे की उस जीवन द्रव्य को हम
व्यर्थ न जाने दे और उसे समेत कर सुरक्षित रख सके(क्यूंकि इस द्रव्य की प्राप्ति
मात्र ब्रह्ममुहूर्त में ही होती है,इसी कारण योगी और साधकों के लिए इस काल की
उपयोगिता है) जिससे की हमें कोई बीमारी ना हो और ना ही कभी हमारा यौवन हमसे दूर हो
पाए. और रावण इसी जीवन द्रव्य को निरंतर मणिपुर चक्र में संचयित करता रहा और इसमें
स्ववीर्य को परिष्कृत कर योग करता रहा जिससे की वो निर्जरा और दिव्य जीवन जी
सका.वैसे पृथक पृथक इन ६४ योगिनियों को सिद्ध करने की विधि त्रोत्लोत्तर तंत्र
में वर्णित है जिसमे सहस्त्र यक्षिणियों को भी सिद्ध करने का सांगोपांग वर्णन है.
इसी प्रकार मतोत्तर तंत्र में अन्तः और बाह्य रेतस् (जैसे मानव वीर्य और शिववीर्य) को
परिष्कृत कर पूर्ण दिव्यता कैसे पायी जाये,इसका विषद वर्णन है.
प्र०
ये वीर्य को परिष्कृत करने की क्या
आवशयकता है ,और इसका क्या अर्थ है ?
उ० जैसा की मैंने ऊपर
बताया है की मानव शरीर की सृष्टि बाले ही पञ्च तत्वों से होती है परन्तु मूल तत्व
अग्नि और जल ही होते हैं.और मनुष्य शरीर में वीर्य अर्थात रेतस में यही दो तत्व
प्रधान होते हैं.यही कारण है की वीर्य में मृदु ताप होता है.शुक्र बिंदु को गतिमान
रहने के लिए इस ताप की आवशयकता होती है. यही वीर्य शरीर में शक्ति प्रदान करता है.
तंत्र में कहा जाता है की “इस बिंदु का पतन होना मृत्यु है और इसको धारण कर लेना
ही जीवन है.” परन्तु जल तत्व की अधिकता के कारण अग्नि शक्ति प्रभावकारी नहीं हो
पाती और ये वीर्य मात्र शुक्र रुपी काम ऊर्जा
में ही रह पाता है. वंश वृद्धि तक तो इसका ऐसा होना उचित है.परन्तु तंत्र
ये भली बहती समझाता है की यदि आपको अपना यौवन स्थिर रखना है तो इस काम ऊर्जा का संचय होना अति आवश्यक है.इसका अर्थ ये कदापि
नहीं होता है की मानव सहवास या सम्भोग ना करे. वो करे परन्तु तांत्रिक भाव से ऐसा
करे. तंत्र शुक्र की काम ऊर्जा का
रूपांतरण करने को कहता है,अब चूँकि वीर्य में जल तत्व भी है और अग्नि तत्व
भी.इसलिए उसकी दो गति संभव होती है. अधो गति और उर्ध्व गति.अब ये हमारे ऊपर निर्भर
है की हम इस ऊर्जा को कौन सी गति देते
हैं.अधो गति प्रदान करने पर जीवन और यौवन का क्षय होना अवश्यम्भावी है.परन्तु यदि
इसे उर्ध्व्गति दी जाये तो ये ऊर्जा
त्रिकूट शक्ति से योग कर लेती है जिससे पूर्ण कायाकल्प होकर, यौवन,शक्ति और
सौंदर्य की प्राप्ति होगी ही. हमें इसके लिए वीर्य में मात्र जल तत्व का रूपांतरण
कर अग्नि तत्व की प्रधानता करनी होगी. क्यूंकि अग्नि का गुण उर्ध्व्गति करना होता
है. गति तो होगी ही परन्तु वो बाह्य न होकर अन्तः होगी.और इस गति में वीर्य का मूल
सत्व ओजस गति करता है.जिससे उपरोक्त जीवन द्रव्य का योग होते ही वो अमृत में
परिवर्तित हो जाता है. जो आपको सदैव सदैव के लिए यौवन और सौंदर्य प्रदान कर देता
है. इसी जल तत्व का रूपांतरण अग्नि तत्व में करना वीर्य को परिष्कृत करना कहलाता
है.तांत्रिक कायाकल्प में यही तथ्य प्रधान होता है.
प्र० और
कौन कौन सी विधियां है कायाकल्प तंत्र के अंतर्गत जो कायाकल्प और सौंदर्य प्रदान
करती हो ?
उ० वैसे तो हजारों
विधियाँ है जिनके द्वारा ऐसा किया जा सकता है.परन्तु कुछ ऐसे विधान है जिनके
द्वारा सामान्य व्यक्ति भी अपने व्यक्तित्व,गुण,धन आदि का कायाकल्प कर प्रकृति से
शक्ति का अर्जन कर सकता है.
लवण स्नान विधि- शरीरस्थ समस्त नकारात्मक ऊर्जा
को बाहर करने के लिए
पञ्च तत्व साधन- इस विधि में पञ्च भूतों के मूल गुणों को प्राप्त किया जा सकता है.
श्री कल्प साधना- धन का श्री में परिवर्तन करने वाला प्रयोग
आयुर्तंत्र विधान- तंत्र और आयुर्वेद के समन्वय से सौंदर्य की प्राप्ति
दिव्य गुरुकल्प साधना-गुरु
साधना द्वारा कायाकल्प करने की गोपनीय विधि
With the blessed order of Sadgurudev when I met his ascetic
disciple Pragyananda ji and I had seen the existing power of the kayakalpa from
him (you hopefully have read about this science and mysteries of the same in
the series articles of Swet Bindu and Rakta Bindu on the blog) accompanying
him, I was fortunate enough to have answers of my queries about this science.
From there after 2 months we reached to panchmarhi where he let me introduced
with Saundarya Maa. Here, I would especially like to mention a point that under
the guidance of sadgurudev various material and ascetic disciples have received
success in sadhanas related to various
factors or in other words based on eligibility and research work sadgurudev had
blessed those with specific sadhana secrets and he made ahead those disciples
in the same factor & direction. This turned in Result of various benchmarks
created by those disciples in the particular sadhana field.
Well, the residence of maa is in the deep forest behind
bada mahadev cave where she is still active in search of various secrets of
sadhana and to distribute among appropriate sadhak in her aashram. Its very
difficult to find another person than saundaryaa maa who have the same
efficiency of the knowledge given by sadgurudev about saundarya sadhana and
apsara yakshini sadhana. Any I believe my fortune of the same time was written
by diamond pen which resulted in the bliss from the swami pragyananda who hold
knowledge of kayakalpa tantra and Saundaryaa maa – leading personality in
saundarya sadhana. And this was the right time to overcome my hunger for the
knowledge in this field so this way I started shooting questions and with the
same speed I was receiving my answers; that day my belief went more stronger
about the scientific statement that every action has reaction on the same
speed!!! , isn’t it?
Que : What does Kayakalp means ?
Ans: for that first of all it is essential to know the
meaning of the term. The meaning of the Kaya is body but this also indicates
important element fire (agni), this way it is also synonym of fire
“jaatharah praninaam agnih
kaay ityabhidhiyate”
The digestive power (jatharaagni) of all beings are termed
as kaya, this way only it has been said that if that fire remains all right,
the human being will too have a proper health.
With this, one should also keep this line in the mind
“agni moolam balam pumsaam
retaumilam cha jivanam, tatsmaat sarv prayatnena vahinam shukram cha rakshyeta”
Here, tantra yoga & ayurveda speaks about the same
thing that the main source of the human energy is the fire and the basic of the
life is virya, so, one should protect every type of fires and virya in the
body. Agni also mean temperature of the human body which is known fact that
if proper temperature vanishes or lost
permanently from the body then human will be classified under death, which if
get unbalanced human will be termed patient. So only lord Krishna said in the
Gita
“aham vaishvaanaro bhutvaa praaninaam
dehamaashritah
Praanah apaan samaayukto pachaamyanam
chaturvadham”
Means I live in the bodies being vaishawanar (fire formed)
and with praan apaan samaan airs I digest four types of foods which are eatable
drinkable semi and chews.
And every being has four major states in their life, in any
of the states if digestive fire (jatharaagni) and virya becomes dull or corrupt
then they instantly move toward old but with the knowledge which leads body
with a new growth and new youth is called kaya kalpa.
Que.: your statement leads to
belief that source of life is only fire and virya, but the world is combination
of five element which are earth,water, fire, eather and wind.
Ans.: son, you statement is right at your place but there
is a secret which we should be aware of. And that is though the world is made
of five elements but ether covers in, earth for base stability and wind works
as helper. The main creation took place by water and fire and distortion too
been cause when these becomes dull or corrupt. Virtually, kayakapa is agnikalpa
because the distortion due to water could be repaired with operations, but in
any healing method operation cannot repair damage caused by fire distortion,
that is why kayakalp is also termed as fire healing (agni chikitsa).
Que.: what is the difference
between kayakalpa and Saundarya?
Ans.: kayakalpa
means transformation to its main and original form of any substance which has
lost its original form and is under distortion due to the time factor or to
transform it according to our wish. The process has its many steps and with
various mediums this process is completed. And with only kayakalpa the complete
work is not possible but that substance, element, metal or the energy inside living
being should have the positive impression in the outer world, the level or the
amount of that particular energy is modulated in positive manner which should
result in cause of the balanced stability in between inner and outer body. This
process is called to attain beauty, in fact,
kayakalpa and saundarya are incomplete without each other. And merge of
the both could only be gain through tantra.
Que.: you
said that to accomplish these processes there are many essential mediums, so
which those special mediums are?
Ans.:
for this task the selection take place of plants, mantras, metals,
elements or living beings which have optimize amount of positive energies. With
these mediums only, completeness of kayalapa and saundarya processes could be
gain because in both of these processes negative ions are transferred to the
positive ions or the positive ions are spread.
Que.: for kayakalpa process
ayurveda system is famous, what does tantra contributes in the same?
Ans.: ayurveda is helper of proper healthy human life, from
the dawn, human mind have always went ahead with heavy wish of being immortal.
When this ayurved is joined with tantra then this lines could be turned to the
accomplishment which yajurveda speaks to humans
“jivet sharadah shatam...bhuyashcha sharadah sataat”
Meaning we should be able to live 100 years after living
100 years healthy..! For this sort of living time it’s essential to boost power
of ayurveda and this is why tantra and ayurveda are merged. The meaning of the
tantra is with particular specific process to give power in the process with
the goal to achieve desired results. And
tantra removes all internal-external disorders and turns it in sophisticated
benefits, may leads to attain beauty and with the same reason when kayakalpa
and beauty meets than it is complete kayakalpa in real meaning. The tantra
through which these amaizing processes are completed is called kayakalpa tantra
and saundarya tantra because with external factors, tantric rituals and divine
mantras are also taken in use of the process. With tantric rituals and
combinations of mantra the process is boosted and the results get more
stability.
Que.: Though ayurveda describe
preparation methods for the kalp with various ingredients and herbs but which
are those divine herbs and plants which makes human virile and may give human
kayakalpa and saundarya when put into the use and what is the importance of the
paarad in this part of the system?
Ans.: though various divine herbs are formed as kalp are
applied for the consumption to overcome various distortions but for the
complete kayakalpa the herbs which are taken into use are found in sufficient
quantity in Himalayas. Himalayan herbs are full in power and virya. But for
kayakalpa and saundarya-
Endrii, braahmii,
kshirakaakoli, sankhapushpi, moondi, mahaamoondi, sataavari, vidaarikand,
jivanti, punarnavaa,naagabalaa, shaalaparni, vachaa, chhatraa, atichhatraa,
medaa, mahaamedaa, jivak, rhushabhak, mudgaparni, maashaparni and madhuyashti are
if taken to use for 6 month can give a complete kayakalpa and long life.
This way we should never forget that with paarad prayoga,
very quickly death and poverty could be vanish because the perforation capacity
(Vedha Kshamataa) is infinite. If it is solidified and preparation of the
kalpa,kalpa patra (vessels), idols or Gutika is prepared with ritual it gives
amaizing results. There has no innovation in the world of medicine which can
completely remove mental weakness and intellectual impairment and not let it
cause in future but paarad have capacity of the same when proper samskaaras are
completed on it then this makes its eligibility
“hato hanti jaraavyaadhi murchhito vyadhai
ghaatakah
Baddh khecharataam dhatte konya sootaat
krupaakarah”
Thus ras siddha nagarjuna said these lines and gave
meditation mantra of paarad to know his power
“rase siddhe karishyami nirjaraamidam jagat”
And most important
aspect is when the kalpa is prepared with paarad incorporating tantra in
that condition there is a sequence of specific mantra are also chanted. And
this way prepared medium is amazing beneficial. If only kalpa patra (vessel) is
prepared then the use of the water placed in the vessel can slowly remove
debility and can give a new youth and also dark skin of the body turns to fair
one.
Que.: you just said that
continuity of the flame of fire is the main objective of the kayakalpa, for
this there are lot many processes in ayurveda but what is relation of the
kaayakalpa tantra with this?
Ans.: the main controller of every fire of the body is
navel where Manipur chakra is situated. We all know that raavan was having
nectar in his navel, with which his death was impossible. But how he used to
get nectar that is even considerable fact? “Lankesh Tantra Pushpamaalaa”
written by raavan describes the complete process. In that scripture he
described that Manipur chakra is cradle of 16 matrukas and 52 varnas. The same
chakra is also known as ratnakoot chakra among yogis. This chakra is related
with fire the symbol of the same is triangle. This place is of imagination
power, thought power, and resolution power. All tantras stay here. He described
it that every matruka have four shaktis which are termed as Yogini. This way
every matruka is controller of four yoginis. And every yogini is main power of
one tantra, this way 16 X 4 =64 yogini’s are stays in the nevel holding a power
of tantra. And with flame’s power of fire may cause effect on the power of this
yogini. The meaning of tantric kayakapa is different from the normal kayakalpa.
The kaya kalpa done through healing system slowly provides these powers. It
cause kayakalpa of body only but kayakalpa done with tantric process provides
divine accomplishments, because that not only controls the flame of fire but
also incorporates divineness and forms the divine tantric powers.
In the bramhamuhurta (from nearly 3’o clock
till the sunrise) everyhuman being will have a life liquid (jivan dravya) fall
from sahastrara chakra (the quantity depends on daily routine of person,
vibration in chakra and feelings) and this liquid floats among the way of three
mahaling and ooze out from the body through semen fall (viryapaat). Nature too
not let this liquid stay in the body. It also inspire human mind to make this
liquid, mixed in virya, out of body by increasing sexual energy and thinking,
resulting in wet-dreams (swapndosha) or sexual desires. The yogis of the higher
states have this liquid at time of its fall from sahastrara by forming khechari
mudra through tongue and spread it in the body by mixing it in protected virya placing
it in Manipur chakra and converting it in fire form.
Because of this the fire light could also be
visualise around us which is also known as aura (aabhaamandala). But for simple
human being it is not so simple. Continuity of the practice is essential that
the wastage of the life liquid could be stop and that liquid could be collected
and securely placed in the body. (because this liquid could be gain in bramha
muhurt only, for yogis and sadhakas time factor is important) through which we
do not have any diseases and neither our youthfulness go far from us. And
raavana used to collect this life liquid in Manipur chakra with which he used
to incorporate virya and through this process he attended such state of
immortality and divine life. Anyways, there is a process to accomplish these
power yoginis separate one by one in trotlottara tantra in which there is also
a description to accomplish thousand yakshinis. This way in mattotar tantra
there is a description of processes to attain complete divineness by
sophisticating inner and outer retash(like maanav virya and shiva virya)
Que.: why it is
essential to sophisticating this virya, what does that mean?
Ans.: as I said, though human body is made of
five elements but main elements are water and fire. And in human body the basic
element in virya or retas are these two only. It is also a result of tempreture
felt in virya. Sukrabindu (virya) needs this temperature for the continuity of
movement. This virya gives power to the body. In tantra it is said that “finishing
this bindu results in the death and adopting it is life”. But because of high
amount of water element the fire power
is not so effective and this virya only stays in the form of sukra in sexual
power. Till propagating it should remain like that.But tantra understands
better that if you want to stay with your youth, you must collect your sexual
power. This does never mean that one should not involve them self in sexual
intercourse. It should be but with tantric feel. Tantra ask to convert sexual power
of sukra, because of two elements water and fire in the virya, it have its two
movements. Downfall (adhogati) and upward (urdhwgati). Now it depends on us to
give direction to the energy. Downfall will definitely result in loss of youth
and life. But if the direction is given for upward then this energy will merge
with trikut power through which youth, power and beauty could be gain with
complete kayakalpa. For this we just need to convert water element to fire and
increase of the fire element. Because the property of fire is to go upwards.
The movement will be there but inner and not outer and in this movement the
main base of the virya, Ojas will move. This way, it will merge with the life
liquid and will turn to the nector which will give you youth and beauty
forever. This transformation of water element to fire element is called
sophistication of virya. In tantric kayakalpa this is the basic fact.
Que.: which are other processes
under kayakalpa tantra which gives kayakalpa and beauty?
Ans.: there are thousands of processes with which this task
could be accomplished. But there are some specific processes by which simple
human being can even do kayakalpa of their personality, efficacy and can have
power from the nature.
Lavan snaan vidhi – to remove all the
negative energy from the body.
Panch tatv sadhana – in this process
basic properties of five elements could be gain
Shri kalp sadhana – to convert dhan
to shri
Ayuratantra vidhana – to have beauty
through tantra and ayurveda adjoined
Divya gurukalpa sadhana – secret method to
do kayakalpa through guru sadhana.
****NPRU****
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