पहले
लेख मे हमने ये जाना की विज्ञान का मूल क्या है. विज्ञान पूर्ण रूप से प्रकृति के
सिद्धांतों पर आधारित है. अब यहाँ पे ये सवाल उठता है की आखिर इन विज्ञानों को समझने
की क्या आवश्यकता थि.
सृष्टि
के मूल मे पुरुष और प्रकृति है. साधक के लिए प्रकृति का क्या महत्व है ये एक साधक
भली भांति समझसकता है. साधक का उद्देश्य मूलप्रकृति को अपने आप मे समाहित कर लेना
ही है. प्रकृति के मुख्य रूप से दो प्रकार होते है, आंतरीक व् बाह्य. इस मुख्य भेद
के भी कई उपभेद है, जिसमे बाह्य प्रकृति की बात की जाए तो वो मूल प्रकृति है जबकि आतंरिक प्रकृति परावर्तित है. बाह्य प्रकृति का
स्वभाव स्थिर है और आतंरिक प्रकृति गतिशील. क्यूँ की साधक की यात्रा ब्रम्ह मे
समां जाने की होती है, यह यात्रा दूसरे अर्थो मे अपने मूल को प्राप्त करने की है.
हम जिसके अंश है उसी मे ही समां जाना और इससे भी आगे उसे अपने अंदर समां लेना. एक
पत्थर का टुकड़ा पहाड पर स्थिर है तो वो अपने आप मे पहाड़ ही है. या यु कहा जाए की
उसकी सत्ता का विराट रूप पूरा पहाड है. लेकिन जब वह उससे अलग होता है तो उसकी
सत्ता मे परिवर्तन आ जाता है और उसके विभ्भिन प्रयोग किए जा सकते है, क्यूँ की
उसकी प्रकृति मे बदलाव आ गया है, वह अब अपनी मूल प्रकृति मे नहीं रहा जो की स्थिर
थि. जब तक हम ब्रम्ह मे समाहित रहते है तब तक हम उसकी मूल प्रकृति को धारण किए
रहते है लेकिन विखंडन के बाद हमारी मूल प्रकृति मे परिवर्तन आ जाता है. विज्ञान का
अर्थ है उस प्रकृति के मूल सिद्धांत को जानना और समजना. ताकि हमें ज्ञान हो सके की
हमारी अपनी विराटता कितनी प्रचुर है. जब मनुष्य प्रकृति के सिद्धांतों को जनता है
तब उसकी ज्ञान प्रकृति मे भी बदलाव आता है और उस मूल प्रकृति को धारण करने के लिए
कदम बढाता है.
फिर
इसका अर्थ ये हुआ की प्रकृति के सभी सिद्धांतों को समझलेने पर जान लेने पर हमारी
मूल प्रकृति की हमें प्राप्ति हो जाती है. फिर तन्त्र की अनिवार्यता क्यों है?
विज्ञान और तन्त्र का लक्ष्य क्या एक ही है ?
विज्ञान
हमें प्रकृति के मूल सिद्धांतों को समझा सकता
है उसका ज्ञान करा सकता है (understanding) लेकिन समझने से आगे भी एक स्थिति होती है जिसे आत्मसात करना कहा है (realization).
हमारे सदगुरुदेव ने हमें कहा की साधना पथ पर निरंतर गतिशील रहना और अपने लक्ष्य की
और अग्रशील रहना. हमने ये समझलिया की इससे अर्थ ये है की वो हमें साधना करने को कह
रहे है और अपने लक्ष्य की और हमेशा बढते रहे ऐसा कह रहे है, उनकी प्रकृति के निहित
मूल सिद्धांत जो की हमारे लिए बने हुए थे उसे हमने समझलिया जो की परिवर्तन के नियम
से बहोत दूर है. यह विज्ञान का कार्य है. यही विज्ञान है. लेकिन क्या हमने उसे
आत्मसार किया ? उसे आत्मसार कर लिया होता तो फिर सभी चीजे गौण हो जाती है. यह
तन्त्र है. मूल सिद्धांत को समझने के बाद उसे आत्मसार कर लेना, बाह्य प्रकृति के
उस भाग का ज्ञान प्राप्त कर उसे अपने अंदर आतंरिक प्रकृति मे सदैव के लिए स्थापित
कर लेना. ये दोनों प्रक्रियाए एक दिखने पर भी अलग अलग है की किसी भी सिद्धांत को समझना जो
की प्रारंभिक स्थिति है वो विज्ञान है उसी सिद्धांत को आत्मसार करना यह तन्त्र है.
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In the first
part of the series we understood that what the base of science is. Science is
completely based on concepts of nature. Here, a question arise that what was
the importance to understand these sciences?
The base of the universe is
prakruti and purusha. What significance does the nature carries for sadhaka,
that sadhak could understand very well. The main objective of the sadhaka is to
merge him in main base-nature. Basically there are two main type of nature,
inner and outer. There are sub types of these two main types in which outer
nature is base and inner nature is Reflectional.The basic characteristic of
outer nature is to remain still and for inner, it is inconstant. As the journey
of sadhak is to dissolve the self in bramha, in other word this journey is to
achieve our origin. To dissolve our self of which we are made of and further on
merge it in our self. If one stone is still on the mountain, it is mountain itself.
Or we can say that the base power of that stone is complete mountain. But when
it separate itself from that mountain,
the entity of the same gets change and it could be used in several ways
because it is not still or base, the basic nature of that stone has changed, it
has no more characteristic of the base which was still. Till the time we stay
merged with bramh we hold bramhas basic nature but after Fragmentation our
nature even gets change. The meaning of the science is to know and understand
that basic concepts. With which we can understand about hugeness of power in
our base nature. When we came to know about basic concepts of nature then the
knowledge nature of the one gets change and a step forward is taken to have
that base nature.
So it does mean that after
understanding all the concepts of base nature we will have our base nature. Why
does tantra require then? Does the target of science and tantra is one?
Science can make us understand
about the basic concepts of the nature, it can let us KNEW about it. But there
is a stage ahead then ‘understanding’ which is called ‘realizing’. Our sadgurudev told us that always stay activate
on the path of sadhana and keep on moving toward your goal. We understood that
by this he mean that we should keep on doing our sadhana and we should always
keep on moving to our sadhana goals. We understood the base concept which was
meant for us in his still nature state which can never going to change. This
understanding is work of science. And this is science only. But did we realize
it? If we had realized it, then all other thing would have been Accessory for
us. This is tantra. To realize main concept after understanding it, to know
about that part of base nature and to establish it in inner self. This both processes are separate though it
seems one. That to know about any concept is primary stage which is science and
further to realize it and establishment of it is tantra.
****NPRU****
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