Thursday, March 18, 2010

रक्त बिंदु, श्वेत बिंदु-६( लोह सिद्धि रहस्य)





मैं ध्यान पूर्वक महानुभाव की बातें सुनने लगा .धातुवाद का महत्त्व मेरे लिए गौण ही था परन्तु ये भी रस तंत्र का एक अद्भुत भाग है और है भी बहुत आकर्षक . इसलिए सदगुरुदेव की ही इच्छा मानकर और ज्ञान वर्धन के लिए उपयोगी समझ उन वाक्यों को अपने अन्तः भाव में आत्मसात करने लगा .
महानुभाव अपनी ही मौज में कहने लगे की .... क्या , आप जानते हैं धातुवाद का क्या महत्त्व है एक रस साधक के लिए ??????
मैंने कहा शायद पूरी तरह नहीं ......
ह्म्म्म .... धातुवाद या लोह सिद्धि रस तंत्र की एक अद्भुत क्रिया है जिसके द्वारा निकृष्ट धातुओं जैसे की लोहा, रांगा,सीसा, जस्ता,ताम्बा, पीतल, आदि को रजत या स्वर्ण में पूर्णरूपेण परिवर्तित किया जाता है.
यहाँ तक की पारद को भी स्वर्ण में तबदील किया जा सकता है .जिस प्रकार सिद्ध रस का निर्माण कर समस्त ब्रह्मांडीय रोगों का नाश किया जा सकता है. निरोगी देह और लंबी आयु प्राप्त की जा सकती है. वैसे ही उस सिद्ध रस के द्वारा स्वर्ण का निर्माण भी किया जाना संभव है . यहाँ मैं ये बता दूं की यदि सिर्फ स्वर्ण निर्माण के लिए
सिद्ध रस का निर्माण किया जाये तो वो कभी भी निर्मित नहीं हो सकता . क्यूंकि पारद इस प्रकृति का सर्वाधिक चैतन्य तत्व है , साधक के मनो भावों को पढ़ कर , पात्रता को परखने के बाद ही सफलता प्रदान करता है . जब साधक का ध्येय मात्र स्वर्ण सिद्धि होता है तब ये तो निश्चय ही सत्य है की साधक का मनोरथ अर्थ प्राप्ति है ना की परम तत्व की प्राप्ति . अब ऐसे में आप रस सिद्धि के अधिकारी भला कैसे हुए
.
क्यूंकि शरीर को रोगमुक्त करना भी मात्र इसलिए जरुरी नहीं है की आप सुखों का उपभोग करे बल्कि उस अविनाशी आत्मा को आप एक तेजस्वी देह प्रदान कर सके जिससे की वो उस परम रूप को प्राप्त कर सके. सुखों का उपभोग करना गलत नहीं है , गलत है उपभोग के लिए जीवन जीना . शरीर- योग या भक्षण रस संस्कार में १८
वां है , और इसके पहले का संस्कार वेधन है ....... है ना???
जी ...जी बिलकुल. मैंने कहा .
वो मात्र इसलिए क्यूंकि ये मानव शरीर और जीवन अनमोल है . केवल मानव ही ये निर्धारित कर पाता है की वो किन कर्मो को अपने जीवन में अपनायेगा वो जो उसे देवत्व की और ले जायेंगे या फिर वो जो उसे असुरत्व की और ले जायेंगे. जगत पलक को भी अपनी लीलाएं दिखाने के लिए ,
ज्ञान और शिक्षा के प्रसार के लिए मानव शरीर का आलंबन लेना पड़ता है , ऐसा नहीं है की वो लीलाओं को विदेह होकर नहीं कर सकता , परन्तु तब हमें एकात्मता तो अनुभव नहीं होगी ना.
यहाँ एक बात मैं आप को बताता हूँ की शरीर योग या भक्षण और वेधन संस्कार वास्तव में ये संस्कार हैं ही नहीं ये तो क्रामन संस्कार के बाद की दो क्रियाएँ हैं जिनके द्वारा ये परखा जाता है की वो रस सही तरीके से निर्मित हुआ है या नहीं. शरीर पर प्रयोग करने से पहले या उसे भक्षण करने से पहले उस रस को
धातु पर प्रयोग कर के देखते हैं की वो उसमे उत्क्रांति करता है या नहीं . यदि वो रस धातुगत समस्त न्यूनताओं को दूर कर उसे दिव्य स्वर्ण में परिवर्तित कर देता है तभी ये माना जाता है की वो शरीर में भी उत्क्रांति कर दोषों को नष्ट कर दिव्यता प्रदान करेगा. स्वर्ण को दिव्य धातु मानने का कारण ही ये है की इसे आप कितना भी तपाओ , कितनी भी देर तक अग्नि में रख कर गलाओ .इसके भर में कोई अंतर नहीं
आता बल्कि जितना आप इस तपाते हैं उतना ही ये सुन्दर वर्णीय होते जाता है . अन्य धातुओं को आप जब अग्नि पर गलाते हैं तो ठंडा करने पर ये मूल भार से हर बार कम होते जाते हैं. अर्थात उनमे दोष हैं. अग्नि जैसे धातुओं की परिक्षण की कसौटी होती है वैसे ही परिस्तिथियाँ मानव जीवन की कसौटी होती है . और जब तक आपमें दोष होते हैं तब तक आप विशुद्ध हो ही नहीं सकते.मूल रूप को प्राप्त ही नहीं कर सकते.धातु के अन्तः और बाह्य दोषों का नाश होने पर ही वे स्वर्ण में परिवर्तित हो पाते हैं.

पर धातुवाद की ये क्रियाएँ इतनी सहज नहीं है .इसके लिए न जाने कितनी तैयारियां की जाती हैं.
मैंने पूछा ... कौन कौन सी तैयारियां करनी पड़ती हैं??????

स्वर्ण सिद्धि या देह सिद्धि की मंजिल तक पहुचाने के लिए खुद पारद को पञ्च यात्रा करनी पड़ती है. उन्होंने कहा.
कैसी यात्रा? मेरा प्रश्न था.

पारे से पारद , पारद से रस , रस से रस राज , रस राज से रसेंद्र तक की यात्रा .
इससे क्या होता है और ये कैसे किया जाता है.????

प्रकृति में जो पारद पाया जाता है वो कंचुकी युक्त होता है. अर्थात विषमय होता है जब उसकी कन्चुकियों और विष को समाप्त करना हो तो उसे शुद्ध किया जाता है . कुमारी रस, रक्त चित्रक मूल रस, रजनी चूर्ण, स्वर्ण गेरू और लहसुन रस के द्वारा ३ दिन तक खरल करने से पारा शुद्ध हो जाता है और कंचुकी रहित भी . ये पारा अब पारद कहलाता है . जो की नील वर्णीय होता है . इसी पारद पर ही संस्कार की क्रिया संपन्न की जाती है . अब इस पारद को रस बनाने के लिए अष्ट संस्कार किये जाते हैं.ये अष्ट संस्कार गुणाधान का कार्य करते हैं और पारद को वीर्यवान भी.गुरु द्वारा निर्देशित और शास्त्र सम्मत तरीके से ही ये संस्कार होना चाहिए
. समय अधिक लग जाये चलेगा ,पर जल्दबाजी में किया गया कार्य सफलता नहीं देगा. इसलिए पूरे धैर्य के साथ संस्कार करना चाहिए.

यदि आपने पारद का चयन पूर्ण सावधानी के साथ किया हुआ है , और संस्कार भी सही तरीके से किये हुए हैं तो आपने आधा कार्य सही तरीके से कर लिया. एक महत्त्वपूर्ण बात याद रखना जरुरी है की पारद के साथ साथ सभी रसो, उपरसो , धातुओं और उप्धातुओं का शुद्धिकरण होना अत्यंत आवश्यक है. यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो जब आप इन में से
किसी भी पदार्थ का संयोग पारद के साथ करते हो तो पारद फिर से दोष युक्त हो जायेगा और उसका वेध प्रभाव लगभग खत्म ही हो जायेगा..
यहाँ तक की स्वर्ण ग्रास के लिए जो स्वर्ण बाजार से लाया जाता है वो भी दोष युक्त होता है अतः उस विधान की जानकारी भी होने चाहिए.
यदि पारद को स्वर्ण ग्रास दिए बगैर आप रसखोट या भस्म बनाते हैं तो भला बीज जारण करे बगैर वो स्वर्ण ही नहीं बना पायेगा. हाँ यदि स्वर्ण युक्त दिव्यौश्धियों से संस्कार संपन्न हुए हैं तो कुछ और बात है.
कुछ महत्वपूर्ण बातें मैं यहाँ पर प्रकट कर रहा हूँ.... जो की रस साधकों के लिए ध्यान रखने योग्य है जिसका ध्यान रस कार्य करते समय यदि साधक रखता है तो उसकी सफलता का प्रतिशत बढ़ जाता है ,बाकि पूर्ण सफलता तो सदगुरुदेव के आशीर्वाद से ही संभव है.

रस कार्य जितना वैज्ञानिक कर्म है उतना ही साधना कार्य भी. रसेश्वर , रसान्कुशदेवी का नित्यार्चन अनिवार्य है . रस सिद्धों का ध्यान कर उन्हें नमन करते हुए यदि पारदेश्वर का अभिषेक किया जाये तो कई गुप्त सूत्र स्वयं ही स्पष्ट होते जाते हैं.
कनकावती साधना, वट-यक्षिणी साधना ,कनक-प्रभा साधना,कनक-धारा साधना,स्वर्नाकर्षण भैरव साधना, महाकाल भैरव साधना, स्वर्णसिद्धि साधना आदि में से कोई एक साधना को तो अवश्य ही करना चाहिए जिससे की आपको पूर्ण अनुकूलता मिले. यदि तारा महाविद्या के गुप्त रहस्य सदगुरुदेव से प्राप्त हो सके तो निश्चय
ही सफलता आपकी अनुगामी होगी. हाँ रसेश्वरी दीक्षा के बगैर तो इस मार्ग पर बढ़ा ही नहीं जा सकता.

प्रत्येक तत्व के गुणों की जानकारी साधक को होनी ही चाहिए .प्रत्येक तत्व का अपना महत्त्व होता अहै रस कार्य की सिद्धि के पथ पर , जैसे नमक को सामान्य समझना ही गलत है . नमक को यदि सही तरीके से रस कार्य के लिए रस शाला में तैयार किया जाये तो ये पारद का क्रमण गुण तो बढाता ही है साथ ही साथ अन्य
धातुओं के अन्तः गत दोषों को भी साफ़ कर धातुओं को उज्जवल करता है . क्या पता है आपको की पारद के ऊपर इतना परिश्रम क्यूँ किया जाता है,ताकि उसका पक्ष-क्षेदन किया जा सके ताकि वो किसी भी पिघली हुयी धातु या गर्म धातु में मिल सके . पारद को रूह कहा जाता है और जब किसी भी धातु के शरीर में रूह का समावेश हो जाता है तो वो रुक्म मतलब स्वर्ण में परिवर्तित हो जाता है . यहाँ धातु
से अभिप्राय उन धातुओं से है जिसका गलनांक पारद से कही ऊपर हो , जैसे की ताम्र, रजत, लोहा आदि.
और ये तभी संभव हो पाता है,जब पारद अग्निसह्य हो गया हो. इसके लिए गर्भद्रुति और अभ्रक का मिलाप पारद से किया जाता है . ये सब अति गोपनीय और कठिन क्रियाएँ हैं जिनके लिए सतत गुरु मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है . पर इसका एक छोटा सा रास्ता भी जिसका मात्र मैं संकेत ही कर सकता
हूँ ..... और वो ये है की मात्र नमक को खास तरीके से यदि तैयार किया जाये तो ये नमक ही पारद को अग्निसह्य कर देता है .तथा अन्य सभी उड़नशील तत्वों को भी ये अग्निस्थायी कर देता है.
इसी प्रकार कुछ विशेष वनस्पतियों तथा क्रियाओं का संयोग करने से ये पारद आपके मनोरथ को पूर्ण कर देता है.
(अगले लेख में बाकि सूत्रों का विवरण आप सभी के समक्ष शीघ्र ही करूँगा.)


****ARIF****

1 comment:

pravin joshi said...

namaskar arif ji ye blog padha ye bhut hi achha he kyunki es se ras sadhak ko sahi disha milengi jo ek badi sahayata yane help he mere layak koi kary ho to bana jarur mera mail id: joshipravin007@yahoo.co.in

thank's
jay hind