Wednesday, November 12, 2008

मेरी यात्रा

जब भी बात प्राचीन विद्याओं की होती है मुझे यह डेक कर दुःख होता है की हमारी वर्त्मानिक पीढी का न तो अपने इतिहास पर कोई ध्यान है और न ही उन गुप्त व पुरातन रहस्यों को समझने के लिए कोई जूनून.
सदगुरुदेव ने अपना पूरा जीवन इन दिव्य व दुर्लभ ज्ञान को पुनर्जीवन देने में लगा दिया ,पर उनके इस प्रयास को समाज या हम कितना समझ पाएंगे यह तो आने वाला समय ही बताएगा. क्यूंकि समय से बेहतर परीक्षक कोई नहीं होता .

मेरे जीवन में मुझे इन्ही विद्याओं को आत्मसात करना है यह तो उसी समय निर्धारित हो गया था जब सदगुरुदेव ने मेरी अंगुली पकड़ी थी और मुझे वे इस पथ पर लेकर चले थे, मुझे याद है वे हमेशा येही कहते थे की अबकी बार खोने का कोई दर मत रखो क्यूंकि अब हाथ मैंने पकडा है. तब से आज तक उनका स्पर्श हमेशा महसूस करता रहा हूँ . जब भी कोई कठिनाई ई तो उन्होंने उसका निराकरण भी तुंरत ही कर दिया . पारद के गुप्त से गुप्त सूत्र भी सहज उपलब्ध हो गए.
यहाँ बात आत्म-प्रवंचना की नहीं हो रही है , मैं तो बस इतना कहना चाहता हूँ की एक बार सोचो तो की हमने क्या वादा किया था अपने गुरु और अपने आप से . की जीवन को पूर्ण करने का कोई अवसर नहीं छोडेंगे. फिर वे वादे कहा गए. क्या काल के गर्त में समाकर वे भी इतिहास में बदल गए?
मुझे यह तो नहीं पता की कौन है जो इस राह पर चलेगा , पर मुझे नहीं रुकना है और चलते जाना है क्यूंकि बहुत सारा बाकि है और जीवन के पल उसके बनिस्बत कही कम ही होते हैं . अभी तक जो भी मिला है वो निश्चय ही ख़ुशी देता है और प्रेरित करता है और आगे बढ़ने के लिए क्यूंकि हार तो संभव ही नहीं है यदि सद्गुरु का वरद हस्त सर पर हो तो.
मुझे इस दिव्य व दुर्लभ ज्ञान के द्वारा गुरु,देश व समाज का ऋण उतरना है .क्युकी ये सब इन्ही के आशीष से ही तो प्राप्त हुआ है और आगे भी होगा,
"मार ही डाले बेमौत ये दुनिया वो है , हम जो जिन्दा हैं तो जीने का हुनर रखते हैं"



निखिल

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