Friday, February 4, 2011

Hamare Pranadhaar

गुलाबों  से ज्यादा सुंगंधित और सुगंध बिखेरने वाले  ,प्रातः इश्मरणीय, सभी के प्राणाधार,दिव्य और पारा लौकिक    ज्ञान से परिपूर्ण ,अखिल क्या निखिल विश्व  के सदैव हित चिन्तक ,शिष्यों के परमाराध्य सदगुरुदेव  के  दिव्यता पूर्ण जीवन के बारे में लिखना अत्याधिक  कठिन कार्य हैं उनके मुखमंडल पर हमेशा छाई रहने वाली करुणा और अभय से स्नेहित मुस्कान  और आशीर्वाद को मन और ह्रदय में संजोते हुए मैं कोशिश कर रहा हूँ. इसके अतिरिक्त उनकी  हम सभी आत्मंश के प्रति करुणा के बल पर ही मै यह साहस कर पा  रहा हूँ .
सदगुरुदेव  जी का इस  भौतिक काल खंड में जन सामान्य के बीच  प्रगटी  करण राजस्थान के  जोधपुर नगर के  एक  सामान्य से गाँव  लूनी में हुआ था .जीवन के प्रारंभ  काल( बाल्य कालसे ही , उन्होंने अत्याधिक विपरीत   और अभावो  से भरी  असह्य  जीवन पद्धति का सामना अपने पूर्ण धैर्य  और साहस  जीवटता  से किया . इन सभी  विपरीत   स्थितियों और जीवन की चुनौतियों की छाती   पर पर , पैर रखते हुए , सिंह समान सदगुरुदेव आगे बढते ही गए .  कम आयु में ही उनका विवाह पूज्यनीया माताजी श्रीमती भगवती  देवी  श्रीमाली  जी( जिन्हें आज हम सभी बच्चे ,उन्हें   माताजी के सर्व प्रिय नाम से  ही संबोधित करते हैं )   से संपन्न हुआ .
सदगुरुदेव जी  ने केबल अपनी आवश्यक  प्रारंभिक शिक्षा के साथ उच्च  शिक्षा  ही नहीं बल्कि दो  अलग अलग विषयों में PHD की उपाधि भी सफलता पूर्वक प्राप्त की .उन्होंने अपना भौतिक  जीवन का कार्य क्षेत्र एक शिक्षक से प्राम्भ  करते हुएजब उन्होंने स्वयं शिष्यों के लगातार बढते हुए अनुरोधों को ह्रदय में स्थान देने के लिए ,जब अपने पद से त्यागपत्र  दिया , उस समय वे  राजस्थान विश्वविद्यालय में विभागाधिपति  के  गरिमायुक्त पद पर सुशोभित थे . बाल्य अवस्था से ही उनका मन प्राचीन सनातन धर्म संसकृति  साधना जगत कि घोर दुरावस्था देख कर ,आन्तरिक पीड़ा और वेदना से क्षुब्ध हो  जाया करता  था .

एक सच्चे ब्राहमण ,और अपनी आत्मा कि लगातार पुकार सुन कर ,एक दिन उन्होंने अपने घर , भौतिक  सुविधा को एक और रखते हुए ,इस अर्वाचीन  दिव्य ज्ञान को पुनः  उसकी उच्चावस्था   में पहुचाने के लिए ,दृढ संकल्पित हो कर खोज में  निकल पड़े . 
सदगुरुदेव जी ने १९ वर्ष हिमालय कि दुर्गम ,अगेय ,अभी तक अपराजित पर्वत श्रंखलाओं पर विचरण करते हुए ज्ञान प्राप्ति में   व्यतीत किये . उन्होंने एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गवांया .साधना जगत कि ये घोर दुरावस्था उन्हें  लगातार  कठिन ओर दुर्गम कदराओं तक ले जाती रही .उन्होंने अपने इस घनघोर भागीरथी ,अकथनीय  श्रम  से साधना जगत कि सभी ज्ञात और अज्ञात विधियों /प्रविधियों में पूर्ण सिद्ध हस्तता ही नहीं  बल्कि निष्णान्ता  प्राप्त की  
फिर चाहे वह तिब्बत्ती साधना पद्धति हो या वैदिक चाहे वह शाबर , कापालिक , अघोर , यौगिक   ,रसायन (कीमियागिरी से सम्बंधित ) ,या शमशान से ,नाथ संप्रदाय ,मुस्लिम साधना के क्षेत्र से हो ,संक्षेप  में कहूँ तो विश्व की सारी साधना जगत  की उपलब्धिया उन्होंने अपने श्रम और निष्ठता  और दृढ़ आत्म विश्वास   से प्राप्त / अर्जित  की.  अभी तक अगेय ,अप्राप्त  साधनाए  समझी जाने वाली साधनाए  जैसे वायुगमन ,जलगमन  साधनाओं को भी  पुर्णतः  के साथ हस्तगत किया .
उनका ये अकथनीय ,अति मानवीय, पौरुषता युक्त ,दृढ विस्वास   और श्रम ,  अविचल श्रद्दा  एक दिन उन्हें परम तेजस्वी , देवता ही  नहीं बल्कि द्रश्य /अद्रश्य ब्रह्माण्ड  के भी परमाराध्य  परम गुरुदेव ( दादा गुरुदेवपरमहंस  स्वामी सच्चिदानंद जी के परम पवित्र दिव्य चरण कमलो  तक ले आई .पूज्य पाद परम गुरुदेव जी ने उन्हें स्नेह से गले  लगाते  हुए दीक्षा प्रदान की . 
 पूज्य  पाद परम गुरुदेव  परमहंस  स्वामी सच्चिदानंद जी से दीक्षा प्राप्त करना और उसकी अनिवार्य शर्तों / साधनात्मक भाव भूमि को स्पर्श  करनाकितना अगम्य ,अति दुष्कर ,ओर देवताओ के  लिए भी आप्र्प्य हैं कि उन्होंने   विगत कई हज़ार वर्षों से आज तक मात्र  तीन  व्यक्तियों को   जो इन योग्यता ,शर्तों , साधना भाव भूमि  को स्पर्श कर कर सके  हैं उन्हें अपनी दीक्षा से सुशोभित कियाहमारे सदगुरुदेव ऐसे तीसरे  परम तेजस्वी व्यक्ति हैं और परम गुरुदेव जी के सर्वाधिक प्रिय  भी. 
पूज्य पाद भगवान्  परम गुरुदेव  जी  के दिव्य आज्ञा और निर्देशन में सदगुरुदेव एकबार पुनः  अपने इस  सामान्य भौतिक जीवन में  आज्ञापालन हेतु उपस्थित थे. सदगुरुदेव जी ने भली भांति बिचार कर ज्ञान प्रसार के लिए अति अल्प मूल्य कि ज्योतिष ,तंत्र ,मंत्र साधना पर आधारित छोटी छोटी पाकेट बुक साइज़ की किताब प्रकाशित करायी . बहुत कम लोग ही आज इस तथ्य से अवगत होंगे की सदगुरुदेव जी ने एक उपन्यास   "एक डाली रजनी गंधा की " की रचना   कर उसे प्रकाशित कराया था . जिसके ऊपर एक आत्याधिक सफल  फिल्म " रजनीगंधा " का निर्माण हुआ और सफल रही भी .सदगुरुदेव जी ने लगभग २०० सभी अधिक किताबो की रचना की हैं .
   जिन मैसे कुछ अभी भी अप्रकाशित  हैंइसके पश्चात् सदगुरुदेव जी ने "सिद्धाश्रम  साधक  परिवार  " की स्थापना  की और एक मासिक पत्रिका " मंत्र तंत्र यन्त्र  विज्ञानं " प्रारंभ की .१९८० से यह  मासिक पत्रिका लगातार प्रकाशित होती रही हैं ,आज इसके वार्षिक सदस्यों की संख्या  कीर्तिमान स्थापित कर चुकी हैं . सदगुरुदेव जी ने कभी भी एक क्षण  का विलम्ब  अपने ज्ञान को  किसी भी उचित पात्र चाहे वह उच्च योगी हो या सामान्य योग्य साधक /शिष्य ,फिर चाहे वह उनका शिष्य हो या किसी अन्य  गुरु का , चाहे वह किसी भी  जाति , धर्म , या देश का हो , एक पूर्ण सदगुरुदेव  ही नहीं जगदगुरु की भांतिउन्होंने  मानव मात्र की बनायीं गयी  संक्रिणता  को   कभी भी  अपने मन ह्रदय में स्थान नहीं दिया . ,  आज सदगुरुदेव जी के अनथक श्रम और प्रयत्नों से और करुणा से लाखों साधक /शिष्य साधनाओ में सफलता प्राप्त कर रहेहैं .उन्होंने बिना किसी प्रोपोगंडा /प्रचार  के  अत्यंत धैर्य से अपना कार्य सम्पादित और पूर्ण किया .अब आज हमारा उतरदायित्व बनता हैं की हम ,जो उनके आत्मंश हैं ,आगे आयें ,अपना जीवन इस दिव्य विज्ञानं को सिखने में समर्पित करे जिससे की  आज  के मानव ही नहीं सम्पूर्ण मानवता को दुःख दर्द कष्टों अभावो से छुटकारा मिल सके और फिर से मानवता  और मानव  मूल्य हमारे बीच स्थापित हो सके .सदगुरुदेव प्रारंभ में अपने शिष्यों के चुनाव में बेहद कठोर थे ,उन्हें कभी भी शिष्यों की संख्या को  बढ़ाने में विस्वास नहीं था बल्कि उनका ये उदेश्य था की ये मेरे  प्रतिनिधि हैं और यदि ये मेरे शिष्य एक निश्चित स्तर तक नहीं पहुँच पाये  सिद्धाश्रम स्थित परम गुरुदेव  भगवान् की निश्स्वार्थ सेवा और निशर्त आज्ञा पालन के बाद शिष्यों के प्रति उनकी     यही उनकी चिंता का विषय हमेशा रहा .
 सदगुरुदेव जी आज की आधुनिक युवा पीढ़ी  से , जितना वे  चाहते  थे ,जो साधनाओ में सफलता नहीं प्राप्त कर पा रही हैं ,चाहे श्रद्धा की कमी ,दृढ निश्चय की कमी ,और चाहे  वह अपने गुरु  और साधनाओ के प्रति विस्वास की कमी  हो,   कारण चाहे जो भी हो ,चिंतित रहे ही  . 
परन्तु क्या ये बाधा ये   सदगुरुदेव जी को रोक पाती? संभव ही नहीं था ,उन्होंने ने अपनी तपस्या रूपसे  अत्याधिक श्रम  से अर्जित दिव्य उर्जा को दीक्षा रूप में जन सामान्य को भी देना प्रारम्भकिया . इस कारण उन्हें अनेको बार साधना जगत के  विशिस्ट विद्वानों , से ही नहीं बल्कि सिद्धाश्रम  के  उच्च योगियो  की तीव्र आलोचना का सामना करना हमेशा  पड़ता रहा  .पर सदगुरुदेव  जी के लिए केबल उनके गुरुदेव (परम गुरूजी ) और हम सभी शिष्य  ही सब कुछ थे /हैं भी .जब भी सदगुरुदेव अपने शिष्यों से  वार्तालाप करते मानो उस समय , समय को भी  विश्राम मिल  जाता  अर्थात उन्हें समय की भी चिंता नहीं रहती   थी. अब उन्होंने एक बार पुनः एक कदम, जो साधना जगत में उस समय  किसीने नहीं लिया था ,लिया कि उन्होंने साधना  शिविर आयोजित करना  प्रारंभ  कर दिए .जहाँ पर से १०  दिन तक लगातार साधक / शिष्य  फिर चाहे वे किसी भी धर्म/जाति /देश के हो उन्हें ,उन्होंने अपने प्रत्यक्ष  मार्गनिर्देशन में  सिखाना   प्रारंभ किया ,और शिष्यों /साधकों ने भी  उल्लेखनीय सफलताये अर्जित  करना प्रारंभ  कर दिया
अब सदगुरुदेव  जी ने अद्भुत कार्य  प्रारंभ किया की जो शिष्य  /साधक उनके पास जोधपुर में संपन्न हो रहे इस प्रकार के विभिन्न साधनात्मक शिविरों में किसी भी कारण  से भाग नहीं ले पा रहे हो चाहे वह आर्थिक समस्या  ही क्यों एक कारण हो ,उन्होंने देश के विभिन्न भागों  में स्वयं ही साधना शिविर  आयोजित करमें जा कर ये अमूल्य भारतीय सनातन धर्म  की  साधना से सम्बंधित क्रियाये  सिखाना प्रारंभ करदिया . उनके लिए अपने आत्मंशो  से मिलना फिर चाहे वह कहीं भी किसी भी ,धर्म, जाति, देश का  छोटा या बड़ा क्यों हो उनका  एक मात्र आनंद  था .  उन्होंने अनेको बार इस हेतु  विदेश यात्राये   अमेरिका ,इंग्लैंड ,मौरीसस  कुछ नाम हैं देशों की यात्रा  की .
उन्होंने ज्ञान के  प्रसार  में उन्होंने ९० वर्ष के वृद्ध से लेकर गर्भस्थ शिशुओं  तक को दीक्षा दी ,यहाँ तक की हजारों ऐसे विदेशी  साधक हैं  जो पालथी मार कर जमीं पर नहीं बैठ सकते हैं , उनके कुर्सी में बैठा कर भी  पूर्ण प्रसन्नता  के साथ उक्त  दिव्य तपस्या अर्जित  दीक्षा रूपी पूँजी प्रदान की .सदगुरुदेव के इन कार्यों  की  प्रशंशा न केबल  शासन   के उच्च पदासीन व्यक्तियों ने  की बल्कि अनेको संस्थाओं  व शासन   ने भी कई बार उन्हें सम्मानित किया .पर उनके लिए ये तो  एक सामान्य सी बात थी .उनका तो लक्ष्य की यह देश जिसका की नाम भारत  हैं  पुनः अपनी स्वर्णिम गरिमा  को प्राप्त करे . दिन रातों  के लगातार ,अप्रितम श्रम से सदगुरुदेव जी के भौतिक शारीर पर  प्रभाव पड़ना ही था . तब हजारों शिष्यों के लगातार अनुरोधों के ध्यान में रखते हुए उन्होंने  अपने तीन पुत्र -- श्री नन्द किशोर श्रीमाली  जी ,श्री कैलाश चन्द्र श्रीमाली जी ,श्री अरविन्द श्रीमाली जी  को   पूर्ण    क्षमता ,गरिमा युक्तता  के साथ गुरु पद पर  पूर्ण ता के साथ  आसीन  किया ,उन्हें  गुरु पद प्रदान किया .

कृपया  ये महत्पूर्ण तथ्य आप ध्यान में रखे की इस  महत गुरु पद  पर पदासीन  की दीक्षा स्वयं सदगुरुदेव जी के पवित्र हाथो द्वारा ही संपन्न हुए हैं और लगभग वर्षों तक हमारे   पूज्य गुरु त्रिमूर्ति ,सदगुरुदेव जी के प्रत्यक्ष  निर्देशन में उनके  निर्देशन में पूर्ण सक्षमता के साथ कार्य करते रहे हैं , और आज भी कर कर रहे  हैं .
सम्राट अभिषेक दीक्षा शिविर मे स्वयं सदगुरुदेव जी ने अपने श्री मुख से हमें(शिष्यों को ) आज्ञा दी थी की वे (सदगुरुदेव ) हमेशा की तरह अपने शिष्यों से तो मिलते ही रहेंगे पर उन्होंने अपने को  कुछ सांसारिक दायित्वों से काट रहे हैं .
सदगुरुदेव जी ने अपने लगातार गिर रहे  स्वास्थ्य  के बारे  में  शिष्यों  को  कभी बताया ही  नहीं परन्तु उनके भौतिक देह की भी एक सीमा थी .(इस एक  देह से ही उन्होंने हजारों  वर्षो का अप्रतिम श्रम कर दिखाया ).
सदगुरुदेव भगवान् ,अपने इस जीवन मै सदैव  वचन बद्ध रहे की वे कभी भी अपनी व्यतिगत  या पारिवारिक  समयस्याओ के निदानके लिए अपनी साधना सिद्धियों का सहारा नहीं लेंगे .उन्होंने अपने इस दिव्य जीवन  में  अत्याधिक दिव्यता को धारण करने के बाद भी अत्यंत सामान्य सरल सहज जीवन का जो उदाहरण प्रस्तुत  कर गए हैं भला  आने वाला युग कैसे मानेगा , और यही सर्वोच्चता युक्त सामन्यता  युक्त जीवन ही हमारे सामने   उनका सबसे बड़ा चमत्कार  है  
 एक दिन  सिद्धाश्रम स्थित     परम गुरुदेव भगवान् की इच्छा /आज्ञा नुसार सदगुरुदेव पुनः सिद्धाश्रम पधार  गएजहाँ से सदगुरुदेव भगवान् आज भी अपने सभी आत्मंश  शिष्यों  के एक एक छोटे छोटे से कार्यों  पर नज़र रख रहे हैं .
****ANURAG SINGH****  

7 comments:

Pawan Madan said...

Bhaiya,this is probably the best article of blog.Entire world is indebted to Sadgurudevji.Jai Gurudev.

Anonymous said...

bahut bahut sundar...Shree Sadgurudevji ke bare me jo varnan apne prastut kiya hai vaha apratim advitiya hi hai..Aur nishchit is prayas se un lakho se bhi jyaada logo ko ye mehsus ho jayega ki ve ab tak kis ek baat apne jeevan me chuk rahe hai aur kaise is path par ane se unka marg prashath karte chale jayenge Sadgurudevji.. basss chalne ki deri hai...

Vinod S Sharma said...

Hi Anurag bhai

Padh kar aacha laga. Please yeh bataiye ki emagazine kab release karenge aap?

Anonymous said...

brother ji ,
my humble request to have the article translate to English as some of the reader is oversea like my self from Malaysia.

Thanks for your kind help.

Bishwajit said...

Jai Gurudev ,
dil ko chune wala article .mubarak ko 200 and counting.....

Unknown said...

mere gurudev ...charnoo mein suman shradha ke arpit hai..
tere hi dey hai jo hai,vohi tumko samarpit hai.
tum hi ho bhaav mein mere,vicharo mein ....pukaro mein.
mere gurudev.

rula diya bhaiyji...
chara sparsh

BABLOO SHARMA said...

Bhaiya sadar jaigurudev.tantra kaumudi ka feb 2011 edition advitiy hai apne aap mai gagar mai sagar hai.sadhanaon ka prastutikaran atyant saral prakar se kiya gaya hai.sadguru prasang to is patrika ki jaan hai.sabhi sadhana ek se badkar ek hai.jis besabri se samast guru bhai -bahan,sadhak,jigyasu aur saman vichardhara ke readers is magzine ka intzar karte hai magzine prapt hote hi poorna roop se trapt ho jate hai.sadhak sakshi hai ke antargat kya sadhako ki anubhutiya aur jeevan mai unke dwara paya gaya gurukripa prasad kya comments mai likhana uchit hai ya nahi kripya nirdeshit karne ki kripa kare.sadgugurudev ji ki kripa,karuna,shree charnon ki chhaya,aur aashirvad ham bachchon ko nirantar prapt hota rahe aur nikhil chetna ko ham samast sansar mai pracharit-prasarit,sthapit kar sake aisi shakti samarthay aur sadruru aashirvad hame prapt ho aisa sadgurudev shree charnon mai hamara nivedan hai.======sadar jai gurudev.===Babloo sharma.