Tuesday, May 31, 2011

Is reading spiritual books really helps?


पहले  धार्मिक  ओर आध्यात्मिक  शब्द का सामान्य सा अंतर समझ ले ,  सामान्यतः  धार्मिक शब्द धर्म  से जुड़ा  हैंओर  धर्म  की वह परिभाषा  जो आज जन सामान्य में चल रही  हैं  उसकी अपेक्षा  शास्त्रों मैं कहा गया  हैं "धारयति स: धर्म "  जो धारण  किया जाये वह धर्म  हैं इस तरह से हमारा धर्म  तो बस शिष्य बनने मैं हैं . पर  जोभी पौराणिक कहानिया  या अन्य सन्दर्भ  हमें किताबों  के रूप में प्राप्त होते हैं हम उन्हें हम  धार्मिकता से जोड़ देते हैं, पर आध्यात्मिकता का अर्थ  तो यह हैं की वह जो अपने आपको खोजने चला हो ,ओर किसी विशिस्ट   साधन  या पद्धिति का अनुसरण कर रहा हो, अन्यथा  वह तो   बिना नाव के सागर पार करने को कोशिश के सामान होगा.

हमारे  पास , सब चीज के लिए तो टाइम हैं पर यदि किसी के लिए टाइम नहीं हैं तो वह हम स्वयं हैं, सारा जीवन हमारा ,अपने आप से बचने का प्रयास ही तो हैं, कभी एक पल बैठ के सोचे की क्या सचमुच कुछ  लाभ हैं इन सब का तब भी  हम... फिर ज्यो ही जीवन की संध्या समय आया  तो हम रामायण महाभारत ओर ऐसे  ही कई ग्रन्थ लेकर  बैठ गए, भले ही हमारा मन लगे या न लगे.
पुस्तके जीवन का मार्ग बताती हैं, पर ये मुख्यतः किसी व्यक्ति  के द्वारा चले गए या सुझेये गए मार्ग या विचार का प्रतिक होती हैं, उनमें प्राण कहा .

 जिनमें प्राण नहीं  वह  कितना लाभदायक होगा  कहा नहीं जा सकता.साधारणतः किसी के विचार पढ़ कर उससे प्रभावित होना तो बहुत ही आस्सन हैं फिर  उसके अनुसार चलने मैं  क्या पता हम वह सब पा  पाए जो हम चाहते थेकहाँ नहीं जा सकतामार्ग , विचार और किताब तो सदगुरुदेव की पढना  चाहिएजो सीधे ही आपके प्राण से जुड़े हो, जो आपके लिए क्या अच्छा , क्या बुरा  हैं किसी भी लेखक से ज्यादा बेहतर जानते हैं .हम किताब पढ़ करपता  नहीं कितनी गलत धारणा   भी बनाते जाते हैं एक लेखक का कहना  था की  किसी के घर का कचडा , अपने घर में उसे डालने नहीं देते  तब किसी के विचारो रूपी  का कचड़ा अपने मन  मैं क्यों आने देते हो,पढने से पहले देखे की क्योंकि ये महाव्त्पूर्ण नहीं हैं की आप  कितना पढ़ते हैं यह ज्यादा महत्वपूर्ण हैं की आप  क्या पढ़ते हैं, ओर उस से भी कहीं ज्यादा  ये की आप उस पर अमल भी करते हैं अन्यतः ये तो मात्र बुद्धि विलास ही हो जायेगा,

यदि वह  पढ़ना ,व्यक्ति को  उस मार्ग पर चलने में सहयोग करे  तब तो दिशा ठीक हैं पर यदि यह मन में अहंकार उत्पन कर की  मैंने इतना  पढ़ लिया तो यह तो एक और बंधन होगया हैं,बिना तात्पर्य समझे  मात्र लिखना या पढना  या छपवाना मात्र ऐसा ही हैं. इस तरह की विद्या ,विद्या नहीं कही जा सकती हैं. सदगुरुदेव जी कहते  हैं की वह जो कंठ में ओर  ही जीवन में पूरी रूप से उतर आई हो वह  ही विद्या  हैं.
बस्तुतः  यदि इन धार्मिक पुस्तकों  को इस दृष्टी कोण  के साथ पढ़ा जाये की, ये एक मात्र इशारे उस परम तत्व  की ओर कर रही हैं , जिसे केबल  पढ़ कर  नहीं जाना सकता हैं  ओर हमें तो साधक  बनाना ही पड़ेगा, तब तो इसका पढना  ठीक हुआ, पर  यदि पढ़कर मन में आया की हम अब बहुत कुछ हैं ओर लगे समझाने दूसरों को  तो वह कितना  सार्थक होगा कहा नहिजा सकता,
सदगुरुदेव भगवान् कहते हैं की पढ़े नहीं गुने भी, मतलब जीवन मै  वह ज्ञान आपके उतरे भी . 
क्या मात्र  किताब पढ़ने से ही कोई लाभ होता हैं कुछ उदहारण से  तथ्य समझने की कोशिश करते हैं.

१.जीवन में यदि स्वयं  ही  प्रयास रत रहे तो तोव्यक्ति के  प्रथम तीन चक्र  जाग्रत होते हैं ये हैं मूलाधार ,स्वाधिस्थान , ओर मणिपुर  चक्र  पर इनके साथ ये भी जानना  जरुरी हैं की  यदि की शारीरिक  रूप से ,या मानसिक रूप से या विचारगत रूप से भी व्यक्ति यदि वीर्य च्युत  होता हैं तो तत्काल  ही व्यक्ति के उपरोक्त  तीनो चक्र निस्तेज हो जाते हैं . इस कारण ब्रम्हचर्य  धारण (वास्तव में किसे ब्रम्हचर्य  कहते हैं वह तो सदगुरुदेव सद्रश्य  योगी  ही समझा सकते हैं ) . पर  अब गृहस्त  साधक क्या करे तो इसका उपाय भी सदगुरुदेव जी ने बताया हैं की , गीता तो सबने पढ़ी  हैं ही , पर पढ़ना  ओर उसका  अर्थ  जानना  बेहद अलग  बात हैंक्या कोई यह जानता  हैं की गीता के आठवे  अध्याय  में वर्णित  विधि  के माध्यम  से व्यक्ति , का वीर्य च्युत  होने से ना केबल बचता हैं बल्कि यदि किसी कारण वश उसका विर्यच्युत होने से यदि उसके चक्र निस्तेज हुए भी हो तो भी वे तेजयुक्त हो जाते हैं और भविष्य में वो गृहस्थ जीवन जीता हुआ भी अपने ब्रह्मचर्य को बचाए रखता है ,निरंतर उस क्रिया के अभ्यास से विर्योत्थान ही होता है और साधक  वीर्य पतन से(चाहे वो कैसा भी हो)सुरक्षित रहता है. वह इन तीनो  चक्रों की शक्ति से सराबोर होकर  इस साधना पथ में आगे बढ़ता ही हैं .

२दुर्गा  सप्तसती तो एक महां  तांत्रिक ग्रन्थ हैं  अनेको  आचार्योंने अनेकों प्रकार  से टीका कर विभिन्न  अर्थ हमारे सामने  रखे हैं, पर इस तथ्य  से क्या आप परिचित   हैं की  चतुर्थ अध्याय के अनेक श्लोक  मनोहारी  तो हैं पर यदि  भूल से भी साधक ने  इन मंत्रो  के माध्यम से आहुति दी तो वह अपने लिए मृत्यु  सद्रस्य  कष्टों  का स्वयं ही निमंत्रण दे रहा हैं .


३.  गुरुगीता जैसा ग्रन्थ तो दुर्लभ हैं, अनेको विद्वानों ने उसके  अर्थ अपने  अपने तरीके से ,अपने अपने अनुभवों के माध्यम से किया  हैं, पूज्यपाद सदगुरुदेव देव जीने अत्यंत सरल शब्दोंमें इसकी  व्याख्या की हैं . क्या अब भी कुछ शेष रह जाता हैं . पर अब भी एक एक करके श्लोक ले कर यहाँ वहां लिखने से कोई अर्थ हैं,
जब सदगुरुदेव प्रणित किताब हमारे पास हैं ही .तब इसका क्या ओचित्य  हैं? ,
क्या आपने  कोई स्वयं इसका अनुभव कुछ अंश मात्र भी  किया हैं?, 
क्या इन श्लोको के उच्चरण  ने आपके जीवन मैं क्या मुलभुत परिवर्तन  करदिया हैं ? ,
क्या इसमें  आपने कोई नया अर्थ खोज निकला हैं ?
क्या इसमें आपका योग दान रहा हैं ?
अगर सभी प्रश्न  के उत्तर मैं आप मौन हैं ,
 तब एक एक करके इन श्लोको को  यहाँ वहां पोस्ट करने को क्या कहा जायेगा  यह तो मात्र अपना नाम किसी भी तरह गुरु भाइयों के सामने रखने की कोशिश हैं ओर क्या..,
आप अपने गुरु भाइयों के मध्य अपने अनुभव से उनके साथ क्या बाट रहे हैं?,क्या उन्हें प्रेरणा देरहे हैं ?,
बस लिखने के लिए ,लिखा जा रहा  हैं तब  क्या कहे.........
कोई  भी किताब खरीद कर इन श्लोको को पढ़ सकता हैं .
सद्गुरुदेव  जी की किताबका मूल्य  इसलिए हैं की प्रथम तो वे हमारे  प्राणाधार गुरुदेव  हैं , द्वितीय  उन्जैसी सरल , आत्मा तक उतर जाने वाली  भाषा  शैली अभी किसी के लिए संभव अगले हज़ार वर्ष भी नहीं हैं, अगर कोई नक़ल भी कर ले  तब भी उसके जैसी भाषा मैं अपने प्राण डालकर शिष्यों  के लिख पाना नहीं होसकता हैं.  
किताबे तो केबल इशारा कर सकती हैं पर सदगुरुदेव  जैसे महायोगी अपने जीवन ओर  साधनाओ  से उसका निचोड़ हमारे अन्दर उतार देते हैं  
इसमें कोई दो बात नहीं  की ,आज सबके लिए सर्वसुलभ होने के बाद भी सदगुरुदेव  के कार्यों का पता अभी अनेको को नहीं हैं,पहले तो हम उस ज्ञान को स्वयं  तो उतारे, ना कि चले उपदेश देने  , यहाँ पर तात्पर्य  यह हैं की हम सच्चे अर्थो में उनके ज्ञान के प्रतिनिधि  बने यदि वह   हमारे पिता हैं सखा हैं , भाई  हैं माता पिता हैं तो क्यों नहीं हमारेमें भी वह गुण दृष्टी गोचर  होंगे ,
शिष्य जीवन का परम सौभाग्य तो तब होता हैं की  जब वह अपनी देह में सदगुरुदेव  प्रणित  ज्ञान हिनहि  बल्कि अबसे उसके माध्यम से सदगुरुदेव जी. गुरुदेव  त्रिमूर्ति जी  के ज्ञान  उतर आया हो.

बिनु जाने होय  ना प्रीति ., तो किसी भी बात या तथ्य  को जानने के लिए यह तो प्रारंभिक आवश्यक हैं ही ,  की  उससे सम्बंधित कुछ   भाव भूमि किताबो के माध्यम से अर्जित करेध्यान   रहे की ये प्रारम्भिक बात   ही  हैं  सब कुछ नहीं.
 आज के योग मैं  किताबे कितनी भी उच्च कोटि की होपर  जीवित जाग्रत  गुरु की जगह न कभी ले पायी  थी न ले सकेंगी ही .
 जीवन की विडम्बना  यह हैं की बात तो सभी    कहते हैं पर परगुरु की कसोटी पर कितने खरे उतर पायेंगे ,कुछ   कहा नहीं जा सकत हैं. हम सभी अपने स्वार्थ सिद्धि से इतने चिपके हैं कि सदगुरुदेव/  गुरुदेव  त्रिमूर्ति जी के बताये गयी बाते ओरआदर्शों  को उतारने  के लिए  कहा अवकाश हैं.
 जीवित गुरु के साथ साथ चलाना   तो  बेहद कठिन हैं, क्योंकि गुरुदेव तो आशीर्वाद में मृत्यु  ही देते हैं  ही देते हैं अपना प्रथम आशीर्वाद , हमारेसारे  अनर्गल विचार  तथाकथित ज्ञान ,ज्ञान गंभीरता , झूठे मुखोटे सब ही  उतार  देते हैं, परये प्रक्रिया इतने सरल नहीं हैं, उसे पाना  तो विरले के  भाग्य मैं ही.
किताबे पढ़ कर  व्यक्ति एक  लुभावने से मानसिक लोक में रह सकता हैं , क्योंकि किताबे बोलती नहीं हैं,जीवन के एक पक्ष की  और इंगित करती हैं सदगुरुदेव/ गुरुदेव त्रिमूर्ति जी  तो जीवन  के सर्वांगींण उन्नति की ओर प्रयास रत  हमें रखते हैं .
पर किताबो की उपयोगिता को नकार भी तो नहीं  जा सकता हैं , आने वाले काल ओर पीढ़ी के लिए  लिए इन्हें सुरक्षित रखन भी तो हमारा धर्म  हैं , कम से कम किताबो मैं ही ये उच्च  ज्ञान  संग्रित  तो हैंफिर कभी कोई गुरु अवतरित होकर्ट इनका प्रमाणिक रूप से आपके सामने रख सकता हैं , या आप को इसकी दुर्लभ कुंजी सौप सकता  हैं.
केबल  पढ़ पढ़ करके  तो वहां  नहीं पहुंचा जा सकता  हैं अगर मार्ग दर्शक के रूप माने तबतो ठीक हैं ..क्यों जो हंस की तरह  दूध में से पानी निकल कर अलग कर सकता  हैं वही व्यक्ति ही तो  शिष्य कहला   सकता हैं .
 आज के लिए बस इतना ही   
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Lets understand first  what is the difference between dharmik and spiritual  , in very simple  one is  dharmik word is coming out of word dharm. What does it stands for , here we are not going any other meaning but shastra’s  says that “dharyati sah dharm” means what is  wear means as a responsibility as a duty so on .. that is called dharm ,like this our dharm is just to become shishy  only. And whatever the mythological or puranik age story we have got  we simply relates to dhram. But he real meaning of spiritual is that one who  start this journey in search of himself, and following any specific path, since without the path or sadhana, that not to be called  spiritual, since just like crossing  sea without boat.
We have time for everything but  not having time for one , that is himself. all our life is what just to hiding himself  taking the help of name of any work. Just sit a minite to think that really all theses are  useful thing. But answer you knew already and when the end point approaches we sit taking  holy book like Ramayana and Mahabharata . even we have any inters tot not.
 Books are generally the thought or the way travelled in life by  one  but lacking the prana . you have just read in tantra kaumudi the difference shruti and smirti , and we have to became shrut not smariytu, the  complete article in this connection you can refer  tantra kaumudi prev issues.
 The book without a prana can be helpful? , can not be said so ,its easy and natural that just get impressed by listening or reading the thought  of others. But can be get what be want through that ,  could not be said so easily. One had to read his Gurudev books, and read the path on which his Gurudev traveled that could be helpful, since from Gurudev  the heart of shishyas are well connected but  from ordinary writer  , no such a thing exits, Sadgurudev better knew about us. But reading other book , where can have any connection with the Author. One writer says that when you not allowed any waste material to be thrown inside of home, how can you permit other person thought  inside you.. Creates much problem. This is not very important that what you read , but much importance that what you get from that and applied in your personal life. other just a play for mind.
 If reading that books helps a person to move on this path every thing is right, but that induces  ego in you that now you are something. Creates one more chain around you.
Without understand their meaning , reading and writing and publishing just like that .sadgurudevji  used to say that  what is saved in kanth and in life I s a vidya.
If reading  religious book in this way  that they are indicating the param tatav and by reading only that cannot be understand and for that we have to be sadhak than every thing is alright, but if this thought came that now we are something and start preaching other than what will be said to this,,,
Sadgurudevji used to say that  not only reading that but thinking on that and applied in your life  that makes the sense.
 Is only reading may help, to understand this here some of the examples
1, if anyone try to awaken his kundalini chakra so he may success to awaken first three chakra  namely muladhar , swadhisthan, and manipur  chakra. But d o you know that  I f that sadhak  physically discharges his veerya tatv even mentally  even in dream too, than  all of sudden all the three chakra get  lost power, that why complete bramhchary is necessary(what is real meaning of bramhchary is can be understand only by sadgurudevji or mahayogies like him) so now what is the solution for house holder means married person, , is there anyway for him. Sadgurudevji provide a way he said that every body read geeta , but how many knew the importance of that granth , people generally consider it a book of duty  karam etc,  but may be you amazed that in eight chapter in a shloka a method is , by which not only a sadhak can control his veery and his bramhchary also get saved.
2, durga saptsati is a great tantraik granth, many great one has written many teekas on that as per their experience, do you know that fact that in fourth chapter certain shloka are like that if they are used for aahuti than the sadhak himself  found  jumping in between the many problem including severe one.
 3, guru geeta like granth is very valuable one, many scholar  describes different meaning through their different  experience , sadgurudevji has described a very easiest meaning of that , still something left for to describe? Than writing the each shloka of here and there makes any senses..?
When  we have Sadgurudev ji’s book on that  what is the  reason ofthat?
Do you have any experience on that ? if yes than  share with all .
What major changes of theses shloka made in your life?
Are you able to find any different meaning  of any shloka by your own experience?
 What is your contribution , what’s new in that you find?
 If you kept silence  on each question  than posting each shloka here and there  what should that be called?.. this become  just to raise your name in amongst the guru   brothers, and what..
 What you are sharing with your own guru brother with your own experience, what  insight you are providing through that you our guru brother,
 All of theses are writing just for the sake of writing than what more  left to say. ?  any one can purchase the book and read that ,  maybe reason lies that  through this way  you are making easily available that book to sadhaka, so kind information a book published from some Saints organization is just of two rupees prices containing all the shloka, from last so many years.
Why Sadgurudev  books is costlier first   one I s that this is the book of our beloved Sadgurudev ji, secondly the style of writing  and describing each shloka is very unique and unparallel , and suppose any one can copy that style abut where he can get the  pran in that which a is a amrit for each shishya.
 Books readjust help full in indicating, but mahayogies like Sadgurudev provide us essemce of that , in our soul.
There is no not that even Sadgurudev was very easily available abut still majority of the people still unaware of his  contribution, its our duty that first  we need to  digest that knowledge , and than start preaching. Mans its firs duty to became a true representative of him. If he is our mother and father, and brother and friend than why not his  personality and  gyan reflects in eyes.
 Any shishy can become so fortunate when not only Sadgurudev divine knowledge  about Gurudev trimurtijis knowledge are also  come to our heart.
Without knowing  love  not possible. Than it is necessary that in the beginning some book are  essential. Some insight we can get from that  but theses all are in the beginning remeneber that.
May be any book  contains great knowledge but never ever replaces  a true guru.
 But most disappointing think Is that every body claiming that but how many can stand in the test impose up onus. We all are so much attached to our  wish and selfishness that who has the time to go for  fulfilling Sadgurudev jis and Gurudev trimurtijis dream.
 Walking with a  jivit guru  is very very difficult, since in the beginning guru bless  with death to disciple and this deat his  of his bad evil thought and bad karams and so on. But this is not so easy very few can pass thses tests.
 Redaing a good books keeps yoin your   dream ,  since bokks arenot speaking they just indicate some  aspect of life, but Sadgurudev jiand Gurudev trimurtiji  always worried about all  of us  regarding aspect oflife .
 At the same time cannot not set aside
the importance of thses books , and to save them is our duty. At least in the books theses divine knowledge save. May in  future some one will understand that and gives us a new insight.
 Only by reading you cannot  reach your goal, if consider than as a your  helper than its ok, one who take  out water from milk  like a hans is a -shishy.
 That’s enough for today.


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