रसवाद स्वतः में अजर अमर है. और नाही रसवाद कभी केवल
व्यक्तिगत भौतिक सम्रद्धि के लिए था. अपितु रसवाद तो केवल ये प्रारंभीक क्रिया है
पारद कों “रस लिंग” में परिवर्तित करने की जो की अपने आप एक अन्यतम कोस्मोजेनिक एवं
बयोजेनिक उर्जाओ जो मनुष्य की उचस्थ अकांक्षाओ जैसे १. दीर्घायुता २. नित्य निरोगी
देह ३. सुख समृद्धि ४. बंधनों से मुक्ति एवं पूर्ण स्वंतत्रता कों पूर्ण करने हेतु
सक्षम है. रसलिंग कों इतर धातुओ में संगलित और स्फटिकरण . तकनिकी भाषा में उस कोण
कों “ओड्स” कहते है. और व्यंगात्मक रूप में पारस पत्थर कहते है. बहुत से स्थानों पर इन ओड्स का
विश्लेषण ‘रस कामधेनु’ और ‘रसार्णव तंत्र’ में इनका वर्गीकरण खेचरी, भुचरी और अन्य
में किया गया है. इनके वर्गीकरण का आधार प्रकृति एवं गुणधर्म रहा है.
मानव देव पर जिस प्रयोगात्मक विधि कों इन ओड्स द्वारा
जिस प्रक्रिया कों किया जाता है उसे ‘देह वाद’ कहते है. उस गुणधर्म की क्रिया पारद
निर्मित उन ओड्स से ही हो सकती है, जो ‘लोह वेधा’ से संपन्न हो सकती जिस में
स्वर्ण में परिवर्तित करने की सक्षमता है या बेस धातुओ में रूपांतरित या हो जाने
की सक्षमता कों अपने आप में लिए हुए है. अतः लोहवेध या पारद रूपांतरण स्वर्ण में
एक परिक्षण की तरह है, यह जानने का तरीका है की व्यक्ति देह वाद की नैदानिक
प्रक्रियो कों कर पाने में समर्थ है या नहीं. फिर अग्रिम क्रियाओं में रस बंधन जहा
प्रत्येक ओड का मूल्यांकन उससे सौ गुना स्वर्ण वजन में होता है. जो भयानक रूप से
अनार्थिक हो सकता है. सी र्फ यही नहीं बल्कि यह आकांक्षी के लिए व्यावसायीकरण के
तौर पर निषिद्ध हो जाता है. यद्यपि वह उसे अपने व्यक्तिगत एवं घरेलु उपयोग में भी
नहीं ला सकता. चुकी यह अथर्व वेद की शाखा
से है तो बहुत सी मुद्रित किताबो और हस्तलिखित मनुस्म्रतियो जो
निजी व सार्वजनिक पुस्तकालयों में उपलब्ध है उन में विभीन्न प्रकार के योग सूत्र
दिए है स्वर्ण एवं रस लिंग बनाने के परन्तु इस विधा में गुरु बिना कुछ नहीं अगर
आपको सफलता का सोपान प्राप्त करना है तो....
निस्संदेह इस बात पर विशवास करना अत्यंत
कठिन है की पारद कों स्वर्ण में या रांगे कों चांदी में परिवर्तित किया जा सकता
है. धातुवाद का यह विज्ञान आज भी लुप्त नहीं हुआ है अपितु आज भी विद्यमान है.
वास्तव में तथ्य तो ये है की सिद्ध एवं साधू जन जो इस विधा में निपुण है वः जन समाज
में आने से कतराते है.
सिद्धि की सफलता
धर्म और मंत्र शास्त्र के प्रयोगों पर निर्भर करती है. ना केवल शास्त्रों द्वारा
यह ठहराया गया है अपितु गुरु द्वारा मर्गदर्शन भी किया गया है की स्वर्ण सिद्धि का
उपयोग कम से कम हित के लिए होना चाहिए. अपितु शास्त्रों में वर्णित है और
निर्धारित किया गया है की इसका उपयोग सिद्धों की सुरक्षा एवं पोषण के लिए होना
चाहिए जो वेद, धर्म, शास्त्र, धार्मिक स्थल और गौ का महत्त्व जानते है.
धातुवाद अनेक प्रकार के सन्निहत है जैस दत्तात्रय तंत्र,
रुद्रयामल तंत्र, उड्डीश तंत्र, हरमेखला तंत्र आदि...
अल्केमी का एक चित्तरंजक भाग जिसे रत्न शास्त्र कहते है.
वास्तव में देखा जाए तो रत्न शास्त्र एक अद्बुत विज्ञान है जो अब तक अप्रत्यक्ष
रहा है. उदाहरण – अगर ५-१० तोले के अगर विशुद्द हीरा, माणिक, पन्ना ओर मोती कों
पिसे हुए अर्थात चूर्ण के रूप में लेकर पारद भस्म में द्रवण क्रिया से अगर एक
निश्चित ताप दिया जाए तो एक बड़ी इकाई में गठित हो जाता है. और स्फटीकीकरण के
पश्चात एक अनमोल पत्थर में परिवर्तित हो जाता है जिसकी लागत कम से कम २५-२७ लाख
रुपये होंगी. जब की बुरादे के रूप में तो
पता नहीं इसका कितना लाभ होगा. इसका सीधा अर्थ हुआ की पहले तो अत्यंत ही निम्न लागत
परंतू स्फटिकीकारण क्रिया के बाद अत्यंत उन्नत लागत हो जाती है.
और यही चमत्कार पूर्ण तथ्य है अल्केमी तंत्र का..
****NPRU****
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