Tvam Jyotimayam Tvam Gyanmayam Tvam Shishymayam
Tvam Praanmayam
Mam Aatarv Shishyat Traan Prabho Nikhileshwar
Guruvar Paahi Prabho
This fifth sloka of Nikhileshwaranand Panch Ratna is very
intense mantra in itself.
The four words mentioned in first line, they successively
represent 4 chakras.Jyotimayam means full of light or full of divine vision. In
our body, Aagya chakra controls our spiritual (Aatm) element. The
visible/physical form of that Aatm element is light, whose place has been said
to be third eye. This third eye is Aagya Chakra which is having 2 petals and
its Mool Beej is Om.Thus, here Jyotimayam means “OM”.
After that it is written Gyan Mayam i.e. full of
knowledge. In human, with stability of mind, knowledge rises and develops. More
is mind under control, better and controlled will be circulation of Aakash
element in sadhak. As a result of which sadhak gets connected to outer Aakash
element and he starts knowing the secrets of outer universe. Revealing of these
secrets makes sadhak knowledgable. In other words, Guru Element established
inside sadhak by Diksha starts getting activated and he attains complete
Shishya feeling. The place for becoming knowledgeable or establishing
knowledgeable form of Sadguru inside is Vishudha Chakra. This is also because
it eliminates the impurities present inside sadhak and takes sadhak to total
purity. Therefore, here this verse means mantra beej form of Vishudha Chakra “HAM”
‘Shishymayam’; Life and thought process of Sadgurudev is
dedicated towards disciples. There are many forms of Siddhs but they have been
most respected in their Guru form. This is our culture because this is the form
completely dedicated towards welfare of sadhak. Sadgurudev has said number of
times that ‘as existence of you all disciples is due to me because I am your
Guru, in the same way my existence is due to you all because you all are my
disciples. But where is Shishya Bhaav stable in sadhak, by only buttering me
one can’t attain anything from me, if you pretend to be my Shishya then you
can’t attain anything from me, I can give you something only when feeling of
Shishyta will emerge from your heart which is devoid of any fraud’. And it is
extreme truth also that if dedication of shishya does not come from heart then
how can one be called Shishya. Heart area is the place for all feelings, only
after activation of heart aspect one attains complete dedication. This whole
procedure is sentimental rather than thought-centric. Therefore, this feeling
is related to Anahat Chakra controlling the heart area. In
other words, meaning of this word here is beej mantra of Anahat Chakra ‘YAM’
Praanmayam here means Praan, Vaayu (wind). Place of praan element in body is Navel area.
From here, entire praan is circulated in body. Praan element, Aatm element and
Sthool (physical) element i.e. body, due to these three only life exist in
creature. Before this, it is merely one Pind.Body deprived of Praan is dead.
Praan and Aatm elements are connected to each other. Aatm element without Praan
becomes deprived of consciousness and becomes ignorant; no movement of it is
possible. In this manner, it is very important part of any type of creature.
This Praan element is situated in Navel area which is controlled by Manipur
Chakra. It is focal point for all procedures related to Praan. Therefore, here
real meaning of this word is beej of Manipur Chakra ‘RAM’.
In this manner, real meaning of first complete verse Tvam
Jyotimayam Tvam Gyanmayam Tvam Shishymayam Tvam Praanmayam are four beej of
four chakra of Kundalini OM HAM YAM RAM.
After that is said in slokaMam Aatarv Shishyat Traan
Prabho. It means that please protect petal of inner Shishyta present inside
me.It is prayer of shishya’s heart to protective form of his Guru. Sadgurudev
provides security to different-2 aspects of shishya through his various forms.
The prayer of these various forms related to Sadgurudev Nikhileshwaranand has
been done in Nikhil Kavach. Actually rather than being a Kavach only, it is
also very abstruse sadhna procedure too. Combined form of all these forms is
also protector of complete Shishyta of shishya and provides vision of
knowledge. The combined or basic form of all protective forms of Sadgurudev is
Nikhileshwaranand only. Thus here the basic meaning of this line is beej mantra
of basic form Nikhileshwaranand of Sadgurudev ‘NIM’
And Nikhileshwar Guruvar Paahi Prabho means
Nikhileshwaraay Namah.
In this manner complete mantra is
Om Ham Yam Ram Nim Nikhileshwaraay Namah
Chanting of this mantra provides inner protection to
shishya and he moves forward in Kundalini journey.
All these five mantras can be chanted by sadhak after
daily sadhna in fixed number. Sadhak should do one round of all mantra after
his daily sadhna. It is not necessary for sadhak to do all five mantras. If he
wishes, he can do any mantra. Besides this, sadhak can do mantra prayog of 11
rounds 11 days, 21 rounds 21 days also. If sadhak wishes, he can also do
anushthan of 1.25 lakhs of every mantra separately. In both prayog and
anushthan sadhak’s dress should be white. Aasan will be white and direction will
be north. Sadhak should do mantra Jap of Prayog or anushthan after completing
poojan Vidhaan. Sadhak can choose any time of day or night but it is necessary
that time should remain the same daily. Definitely all these mantra are
siddhi-providers and those sadhaks are fortunate who chant these mantras.
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त्वं ज्योतिमयं त्वं ज्ञानमयं त्वं शिष्यमयं त्वं प्राणमयं
मम आर्तव शिष्यत् त्राण
प्रभो निखिलेश्वर गुरुवर पाहि प्रभो
निखिलेश्वरानंद
पञ्चरत्न का यह पंचम श्लोक अपने आप में एक अत्यधिक तीव्र मन्त्र है.
प्रथम
पंक्ति में जिन चार शब्दों का वर्णन आया है वह क्रमशः चार चक्रों को प्रदर्शित
करता है. ज्योतिमयं का अर्थ है ज्योति से युक्त, प्रकाश से युक्त
या दिव्यद्रष्टि से युक्त. शरीर में आज्ञाचक्र से आत्म तत्व का सञ्चालन होता है.
उसी आत्म तत्व का स्थूल रूप ज्योति है, जिसका स्थान तृतीय नेत्र कहा जाता है. यही
तृतीय नेत्र आज्ञा चक्र है. जो की द्विदल है. तथा इसका मूल बीज ॐ है. अतः यहाँ पर ज्योतिमयं
का अर्थ है ‘ॐ’.
इसके
बाद ज्ञानमयं है, अर्थात ज्ञान से युक्त. मनुष्य में चित
की स्थिरता के साथ ज्ञानोदय तथा ज्ञान का विकास होता है. जितना चित नियंत्रण में
है उतना ही साधक में आकाश तत्व का संचार योग्य रूप से तथा नियंत्रित रूप से होने
लगता है, फल स्वरुप साधक का बाह्य आकाशतत्व से संयोग हो जाता है तथा उसे बाह्य
ब्रह्माण्ड के रहस्यों का पता चलने लगता है. यही रहस्य का अनावरण साधक को ज्ञान
युक्त बनाता है अर्थात साधक को अपने अंदर दीक्षा द्वारा स्थापित ज्ञानीगुरु रूप
गुरुतत्व का जागरण होने लगता है तथा पूर्ण शिष्य भाव को प्राप्त होता है. इन सब
ज्ञानमय बनने की या सदगुरु के ज्ञानमय स्वरुप को अपने अंदर स्थापित करने का स्थान
विशुद्ध चक्र है इस लिए भी क्यों की वह साधक के अंदर की अशुद्धियों को दूर कर के
साधक को विशुद्धता की तरफ ले जाता है. अतः यहाँ पर इस पद का अर्थ विशुद्धचक्र का
मन्त्र बीज स्वरुप ‘हं’ है.
‘शिष्यमयं’;
सदगुरुदेव का चिंतन कार्य तथा जीवन शिष्यों के लिए समर्पित होता है. सिद्धो के कई
स्वरुप होते है लेकिन सब से ज्यादा वन्दनीय वह अपने गुरु रूप में ही रहे है यह
हमारी संस्कृति है क्यों की वह पूर्ण रूप से अपने शिष्यों के कल्याण के लिए
समर्पित स्वरुप है. सदगुरुदेव भी कई बार यही कहते थे की ‘आप सब शिष्यों का
अस्तित्व जेसे मुझसे है क्यों की में आपका गुरु हूँ तो इसी प्रकार मेरा अस्तित्व
भी आप सब से ही है क्यों की आप सब मेरे शिष्य हो. लेकिन शिष्य भाव साधक में कहाँ
पर स्थिर है, सिर्फ चापलूसी करने पर मुझसे कुछ प्राप्त नहीं हो पायेगा, शिष्य
बनाने का ढोंग करोगे तो मुझसे कुछ भी प्राप्त कर ही नहीं पाओगे, में तभी तुम्हे
कुछ दे पाउँगा जब तुम्हारे ह्रदय से शिष्यता निकलेगी, जिसमे कोई छल नहीं हो.’ और
यह एक नितांत सत्य भी तो है की जब तक शिष्यता का समर्पण ह्रदय से ना आये तब तक हम
शिष्य हुवे भी तो केसे. ह्रदय क्षेत्र ही तो सभी भावनाओ का स्थान है. ह्रदय पक्ष जागृत
होने पर ही तो पूर्ण समर्पण की प्राप्ति होती है. यह पूरी प्रक्रिया भावनात्मक है,
चिन्तनात्मक नहीं. इसी लिए इस भाव का सबंध ह्रदयक्षेत्र का नियंत्रण करने वाले
अनाहत चक्र से है. अर्थात इस शब्द का यहाँ पर अर्थ अनाहत चक्र के बीज मंत्र ‘यं’से है.
प्राणमयं
का यहाँ पर अर्थ प्राण से है, वायु से है. शरीर में प्राणतत्व का स्थान नाभि प्रदेश
है. यहीं से ही समस्त प्राण का संचार शरीर में होता है. प्राणतत्व, आत्मतत्व तथा
स्थूल तत्व अर्थात शरीर, इन तीनों से ही जिव में जीवन होता है. इससे पहले वह मात्र
एक पिंड होता है, प्राण विहीन शरीर मृत होता है. प्राण तथा आत्म तत्व एक दूसरे से
जुड़े हुवे है. आत्म तत्व भी बिना प्राण के चेतना विहीन हो जाता है, तथा अबोध हो
जाता है, उसकी कोई गति संभव ही नहीं है. इस प्रकार यह एक अत्यधिक अंग है किसी भी
प्रकार के जिव का. यह प्राण तत्व नाभिप्रदेश में स्थित है जिसका नियंत्रण मणिपुर
चक्र के माध्यम से होता है. प्राणों से सबंधित प्रक्रियाओ के लिए यह केन्द्र बिंदु
है. इस लिए यहाँ पर इस शब्द का वास्तविक अर्थ मणिपुर चक्र का बीज ‘रं’ है.
इस
प्रकार प्रथम पूर्ण पद त्वं ज्योतिमयं त्वं ज्ञानमयं त्वं
शिष्यमयं त्वं प्राणमयं का वास्तविक अर्थ कुण्डलिनी के चार चक्रों के चार बीज
अर्थात ॐ हं यं रं है.
इसके
बाद श्लोक में मम आर्तव शिष्यत् त्राण प्रभो कहा गया है, इसका
अर्थ है मेरे अंदर विद्यमान आतंरिक शिष्यता रूप कमल की रक्षा करे. यह एक शिष्य के
ह्रदय की प्रार्थना अपने गुरु के रक्षात्मक स्वरुप से है. सदगुरुदेव अपने विभिन्न
स्वरुप के माध्यम से शिष्य के अलग अलग पक्ष को सुरक्षा प्रदान करते है. सदगुरुदेव
निखिलेश्वरानंद से सबंधित यही अलग अलग स्वरुप की अभ्यर्थना निखिल कवच में की गयी
है. वस्तुतः वह मात्र एक कवच ना हो कर बहोत ही गुढ़ साधना क्रम भी है. उन सब स्वरूप
का सम्मिलित रुप शिष्य की पूर्ण शिष्यता का भी रक्षक है तथा उसे ज्ञान द्रष्टि
प्रदान करता है. सदगुरुदेव के रक्षात्मक सभी स्वरुप का सम्मिलित स्वरुप या मूल रुप
तो निखिलेश्वरानंद ही है. अर्थात यहाँ पर इस पंक्ति का मूल अर्थ सदगुरुदेव का मूल
स्वरुप निखिलेश्वरानंदजी के मंत्र बीज ‘निं’से
है.
और
निखिलेश्वर गुरुवर पाहि प्रभो का अर्थ निखिलेश्वराय
नमः है.
इस
प्रकार यह पूर्ण मंत्र है
ॐ हं यं रं निं
निखिलेश्वराय नमः
इस
मंत्र का जाप करने पर शिष्य को आतंरिक रूप से संरक्षण मिलता है तथा कुण्डलिनी क्रम
में वह गतिशील हो जाता है.
इन
पांचो मंत्रो को साधक अपने द्वारा निश्चित संख्या में दैनिक साधना करने के बाद जाप
कर सकता है. साधक सभी मंत्रो की एक एक माला नित्य साधना में मंत्र जाप के बाद करे.
ऐसा नहीं हे की साधक को पांचो मंत्र करना आवश्यक ही है. साधक चाहे तो कोई भी मंत्र
का जाप कर सकता है. इसके अलावा साधक ११ माला ११ दिन, २१ माला २१ दिन तक का मंत्र
प्रयोग भी कर सकता है. साधक चाहे तो सभी मंत्रो का अलग अलग रूप में सवालाख मंत्र
का अनुष्ठान क्रम भी कर सकता है. प्रयोग तथा अनुष्ठान में साधक के वस्त्र सफ़ेद
रहे, साधक को सफ़ेद आसान पर उत्तर दिशा की तरफ मुख कर बैठना चाहिए. पूजन विधान आदि
सम्प्पन कर साधक को प्रयोग या अनुष्ठानिक मन्त्र जाप करना चाहिए. साधक दिन या रात
के समय का चयन कर सकता है लेकिन रोज समय एक ही रहे यह आवश्यक है. निश्चित रूप से
यह सब मंत्र अत्यधिक सिद्धिप्रद है तथा वह साधक सौभाग्यशाली होता है जो इन मंत्रो
का जाप करता है.
****NPRU****
1 comment:
humne kabhi socha bhi nahin tha ke panch ratna stavan ka itna gudh arth bhi ho sakta hai.thanks a lot for bhaiyya,bhabhi maa and all NPRU team,jinhone hum sabhi guru bhai /behno ko iska gudh rahasya samjhaya.hum isko apne dainik sadhna mein zarur shamil karenge kisi na kisi roop mein.JAI SADGURUDEV
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