महर्षि व्यास के परम विद्वान पुत्र शुकदेव एक अवसर पर अपने पिता से कुछ आगे चलते हुए कहीं गोष्ठी में जा रहे थे और महर्षि व्यास अपनी आयु अधिक होने के कारण मन्द गति से गतिशील थे । आगे कुछ रूपवती अप्सराओं का एक दल सरोवर में जल क्रीड़ा करता हुआ किलोलें कर रहा था । शुकदेव उनके समीप से होकर निकल गए, किन्तु अप्सराओं के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । थोड़ी ही देर बाद जब महर्षि व्यास उस झुंड के समीप आए तो समस्त अप्सराओं में खलबली मच गयी और वे एक दूसरे को धक्का देती हुई वस्त्र पहिनने की हड़बड़ी में पड़ गयीं । यह देखकर महर्षि व्यास का क्रोध युक्त होना स्वाभाविक ही था, उन्होंने अप्सराओं को धिक्कारते हुए कहा कि जब मेरा युवा पुत्र तुम्हारे समीप से निकला तब तो तुम्हें कोई लज्जा नहीं आई और जब मैं वयोवृद्ध पुरूष तुम्हारे समीप से निकल रहा हूं तो तुम्हें इस प्रकार लज्जा व भय अनुभव हो रहा है । अन्य अप्सराएं तो चुप रहीं, किन्तु उनमें से एक अनुभवी व किंचित प्रौढ़ अप्सरा ने सहज उत्तर दिया - ‘‘महर्षि यही तो खेद है कि आप ‘पुरूष’ हैं । आपके पुत्र जब हमारे समीप से निकले तो वे आत्मवत् स्थिति में रहते हुए स्वयं में लीन थे, उन्हें भान ही नहीं कि हम कौन हैं और क्या कर रही हैं इसी से हमें कोई लज्जा भी अनुभव नहीं हुई, किन्तु आपने कुछ दूर से देखा कि शायद स्त्रियां हैं, पास आकर पुनः आंखें मीचीं, किक्या ये निर्वस्त्र होकर स्नान कर रही हैं ! और आपकी आंखों के भाव से ही हमें लज्जा का अनुभव हुआ ।’’
यही कथा आज तंत्र के विषय में भी कही जा सकती है । जो आत्म-चक्षु से इसे देख रहा है उसके लिए कोई हड़बड़ाहट या विकृति नहीं, किन्तु शेष सभी की आंखों में एक चमक उतर आती है कि - क्या? क्या तंत्र? अर्थात् पंचमकार! अर्थात् मांस-मदिरा और मैथुन? यह तो घोर पाप है ! सीमित दृष्टि केवल पाप-पुण्य का विवेचन कर, अपने अन्दर की विकृतियों को थोड़ा गुदगुदा कर, एक खास नजरों से चटखारे लेकर तृप्त हो जाती है । पुनः पुनःवही लिखना पड़ता है कि नहीं, ‘तंत्र का यह स्वरूप नहीं ।’ तंत्र का वास्तविक स्वचरूप तो कुछ और है, मांस का अर्थ कुछ और है, मदिरा का अर्थ कुछ और है तथा मैथुन का अर्थ शिव-शक्ति का मिलन है । अब समय आ गया है कि इस तथ्य का खुलासा कर ही दिया जाए और स्पष्ट कर दिया जाए कि वास्तव में तंत्र क्या है, तांत्रिक कौन है, ‘पंचमकार क्या है, और उनका वास्तविक प्रयोग क्या है । जिस प्रकार से स्पष्ट शब्दों में मैंनें कहा कि हां! मैं तांत्रिक हूँ, उसी प्रकार दो टूक स्पष्ट शब्दों में कहता हूँ कि वास्तव में जो पंचमकार हैं वे वास्तविक हैं, उनका कोई दूसरा अर्थ है ही नहीं, वे उसी अर्थ में प्रयुक्त होते हैं जिस रूप में उनकी संज्ञा है । अश्लील या श्लील होना व्यक्ति-विशेष की दृष्टि होगी । तांत्रिक और तंत्र के वेत्ता की दृष्टि में वे केवल स्थितियां मात्र हैं, न श्लील न अश्लील, ठीक महर्षि शुकदेव की भांति ।
मैंने प्रारम्भ में ही कहा कि मेरा यही परिचय है कि मैं तांत्रिक हूँ, जो पूर्ण भी है और अपूर्ण भी, क्योंकि यथार्थ रूप से एक विद्वान की दृष्टि में इससे अधिक परिचय की आवश्यकता ही नहीं, अतः यही पूर्ण परिचय है, किन्तु समाज की दृष्टि में यह अपूर्ण है, क्योंकि उसकी परिभाषाएं सीमित हैं, दृष्टि एकांगी है और सही कहा जाए तो लोलुप है । मैं इसी से समाज से कहना चाहूंगा कि मैं सौन्दर्यवान हूं, मैं रूपवान हूं, मैं करूणामय हूं, मैं आस्थावान हूं, मैं सृजन की क्षमता से युक्त हूं, मैं शिवमय हूं, मैं शक्तिमय हूं और यह सूची यहीं पर समाप्त नहीं होती, जिससे एक ही शब्द में पुनः कहना पड़ता है कि, मैं तांत्रिक हूं !
तंत्र जीवन का सौन्दर्य है, तंत्र एक दर्प है, तंत्र कोई भोग की लिजलिजाहट या भोग, मैथुन में डूबा विषय नहीं । यह तो सक्षम पुरूषों के जीवन की विषयवस्तु है और सक्षम पुरूष शब्द उच्चारित करते ही जो बिम्ब बनता है, जबकि सक्षम पुरूष तो वह है जो हृदय से नारी हो, सृजन की क्षमता से युक्त हो, पालन करने के आग्रह को अपने में समेटे हो, ममतामय हो, करूणामय हो, आस्थावान और तेज युक्त हो । अर्द्धनारीश्वर हो, भगवान शिव की करूणा और जगदम्बा की पालन-क्षमता समेटे हो, जिसकी एक आंख में क्रोध झलक रहा हो तो वहीं दूसरी आंख में प्रेम तैर रहा हो । विनष्ट कर देने की क्षमता रखता हो तो पुनः निर्मित कर देने का साहस भी समेटे हो । ऐसे ही व्यक्ति से जीवन की पूर्णता निर्मित होती है । ऐसे ही व्यक्ति के अंदर गुरुत्व समाहित हो सकता है । ऐसा ही व्यक्ति सकारात्मक रूप से कुछ प्राप्त कर सकता है ।
सही अर्थों में देखें तो हम और आप प्रत्येक तांत्रिक ही तो हैं, अन्तर केवल तंत्र का है, प्रयुक्त किए जाने यंत्र का है । एक मिस्त्री अपने हाथ में छन्नी लेता है और मकान गढ़ देता है । एक लुहार अपने हाथ में हथौड़ी लेकर कोई ढांचा खड़ा कर देता है । कलाकार अपने हाथ मंे कूची लेकर चित्र बना देता है और लेखक कलम लेकर काव्य रच देता है । आसपास चारों ओर प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रचना में तल्लीन है ही । प्रत्येक ने एक ‘‘मद्य’’ का पान कर रखा है और अपने कार्य को पूर्णता देने में खुमारी में डूबा हुआ है । प्रत्येक ने एक ‘मुद्रा’ धारण कर रखी है । प्रत्येकने अपने मांस अर्थात् ‘मत्स्य’ की भांति गहरे जाकर तल्लीन है और एक सुखद रचना के आनन्द में मग्न है, जो कि सांसारिक भाषा में मैथुन के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? प्रत्येक पुरूष में एक स्त्रिी छिपी है और प्रत्येक स्त्री में एक पुरूष और वह आत्म रूप से उससे मिलने के प्रयास में संलग्न है ही । यही तंत्र भी कहता है, इतना ही तो तंत्र समझाने का आग्रेह करता है, किन्तु उसे पूर्वाग्रहों से भी अधिक दुराग्रह में बद्ध कर दिया गया है । यह केवल दमित वासनाएं और कुछ का कुछ खोजने की दबी-छिपी प्रवृत्ति का अंग नहीं तो और क्या कहा जा सकता है?
तंत्र ऊर्जा का एक विस्फोट है, सृजन विशेष का क्षण है और इस विस्फोट की चरम परिणति को स्त्री-पुरूष मिलन के क्षणों में परिभाषित करने के अतिरिक्त भला किन अर्थों में किया जा सकता है? यथार्थ तांत्रिक को तो एक स्त्री देह की आवश्यकता होती ही नहीं, क्येांकि वह स्वयं ही रजमय बनता हुआ उस स्थिति को प्राप्त कर लेता है और स्त्री भी स्वयं वीर्यमय बनती हुई तंत्र की ज्ञाता बन सकती है, किन्तु सामान्यक जन के लिए इसे इस रूप में परिभाषित करने का परिणाम यह हुआ कि मैथुन ही तंत्र का सर्वाधिक चर्चित व ख्याति प्राप्त तत्व हो गया । मैथुन को आधार बना कर प्राचीन काल में ही विकृतियां नहीं पनपीं वरन् आज एक तन्त्र के नाम पर जो कुछ भीकहा या रचा जा रहा है, वह भी अधकचरा व अपूर्ण है । मनुष्य की जो मूल प्रवृत्ति होती है, और इसी से छद्म बुद्धिजीवियों, छद्म कलाकारों ने अपनी रचनाओं में तन्त्र का अर्थ मैथुन ही प्रगट किया ।
तंत्र मनुष्य की इसी प्रवृत्ति को जो उसकी मूल प्रवृत्ति है, उसको स्पष्ट रूप से कहता है, उसका निदान बताता है । तंत्र इतना हल्का विषय नहीं है, तंत्र इतना सीमित विषय भी नहीं है, तंत्र इतना सहज और आम चर्चा का विष तो है ही नहीं, किन्तु आज की परिस्थितियों के सन्दर्भ में यह आवश्यक हो गया कि तंत्र का पुर्नआंकलन तो कर ही लिया जाय, साथ ही तंत्र की भावभूमि को भी स्पष्ट किया जाए जिससे तंत्र के प्रति एक स्वस्थ दृष्टिकोण का निर्माण हो, नूतन चेतना का आविर्भाव हो, नए वातावरण का सृजन किया जा सके ।
आन्दोलनों, प्रचारों और राजनीति के सहारे तो बहुत प्रयास किए जा चुके हैं अब क्यों न तंत्र के माध्यम से एक सम्पूर्ण समाज के गठन की बात सोची जाए? क्यों न इस माध्यम से एक-एक जीवन को सम्पूर्ण व परिपूर्ण बनाने का प्रयास किया जाए? क्योंकि तंत्र ही एक ऐसा मार्ग है जो जीवन में कुछ भी त्याज्य या अश्लील घोषित नहीं करता, जो भोग के प्रति त्याग की धारणा को बल नहीं देता, जो एक शिष्ट खुलेपन का समर्थक है और रूग्ण मानसिकता के स्थान पर स्वस्थ व परितृप्त मानसिकता के सृजन का हामी है, क्योंकि त्याग की प्रवृत्ति कष्ट से अर्जित की गई प्रवृत्ति होती है, और मानव की मूल प्रवृत्ति भोग के विरूद्ध होती है । तंत्र भोग का पर्याय नहीं है, किन्तु मनुष्य को स्वस्थ रूप से भोग मार्ग में प्रवृत्त कर शनैः शनैः उस ओर प्रवृत्त कर देता है जहां उसे स्वतः ही भोगों से अरूचि हो जाती है ।
अपने गुरु के निर्देशन में पंचमकारों का सेवन करने से व्यक्ति शीघ्र ही समझ जाता है कि यह सुख उस परम सुख की तुलना में अत्यन्त तुच्छ और अस्थायी है । तंत्र की इस उदारता का अर्थ यदि मनमाना लगा लिया गया, तो इसमें तंत्र का दोष कहां से उत्पन्न होता है? इतना तो एक साधारण बुद्धि रखने वाला व्यक्ति भी समझता है ।
इसी से मैं स्पष्ट कहता हूं कि हां ! तंत्र में पंचमकार उसी रूप में है, किन्तु भोगियों के लिए ही नहीं, वरन् योगियों के लिए ही, क्योंकि उनकी भाव-भूमि सर्वथा भिन्न होती है और जो व्यक्ति उस स्थिति पर अवरूढ़ नहीं हो सकते, उनके लिए भी ऐसा नहीं कि तंत्र का मार्ग बंद हो, उन्हें कुछ अलग ढंग से उसमें प्रवृत्त होना पड़ता है, दक्षिणमार्गीय तंत्र का आश्रय लेना पड़ता है ।
यदि अंतिम लक्ष्य हमारी आंखों के सामने स्पष्ट हो, तभी स्पष्ट हो सकेगा कि तंत्र के समक्ष तो कोई भी ज्ञान या चेतना टिकती ही नहीं, क्योंकि तंत्र सृजन कर देने का विज्ञान है । कोरे उपदेशों व भटकावदार सुनहरे मार्गों की अपेक्षा दो टूक स्पष्ट सीधा रास्ता है, यह बात और है कि यह रास्ता थोड़ा पथरीला है, इसमंे ठोकरें लगने का कदम-कदम पर डर है, लेकिन यह मार्ग किसी मृग-मरीचिका पर जाकर नहीं समाप्त होता, इस मार्ग के उस ओर तृप्ति का मीठा सागर है, शक्तिमयता का अनोखा अमृत है और प्रकृति से पूर्णतः तादात्म्य स्थापित कर लेने की अनोखी क्रिया है ।
जिसने प्रकृति से ही तादात्म्य कर लिया वह तो मां भगवती जगदम्बा का ही एक अंश हो गया, फिर वह ओछा और घटिया कहां से रह सकता है? और इसी से यथार्थ तांत्रिक के करुणा का अपार सागर लहराता रहता है । जिस प्रकार एक स्त्री सृजन की शक्ति से युक्त होते हुए भी अपने पुत्र के प्रति वात्सल्यमय रहती है, ठीक वहीं दृष्टि, वही चेतना एक तांत्रिक की होती है, जो स्थितियों का सृजन कर सकता है, वह स्वतः परम कारुणिक हो ही जाता है । यही तंत्र का आन्नद है, यही तंत्र की उच्चता है और इसी भाव-भूमि पर खड़ा होकर मैं अत्यन्त गर्व से कह रहा हूं कि- हां ! मैं तांत्रिक हूं ।
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Once upon a time great scholar and sun of maharishi vyas , shukdev was moving towards to attend a goshthi (meeting), maharishi vyas walked little slower as compare to his younger son shukdev. some distance ahead beautiful apsara’s are playing in the lake, when shukdev pass nearer to them , there was no affect on those apsara’s but when maharishi vyas reaches nearer to them , they all got shocked and hurried to take their clothes, on seeing that it was natural that maharishi vyas got angry he rebuked to them and told it was very shameful when my youthful son passes nearer to you all, you showed no shame, but when I, who was much older man ,than you all show shame. All the apsara absorbs total silence replied none except one who was much mature replied to maharishi” maharishi ,regret is this , that you are a man , when your younger son pass nearer to us , he was absorbs in him self, he is totally unaware of the situation that who we are, and what we are doing” but when you come closer to us , you think that perhaps these are the woman, may be bathing completely nude condition, and because of the feeling in your eyes , we feel shame.
This story can be fully applicable to the tantra world, those who are in atamvat stage, for them there is no disturbance, no bad or good thought, but remaining all have a special feeling about this thinking that.. what? What is tantra ? ,means panchamakar means maans , madira and maithun (wine, flesh , and sexual relationship) this is great sin., those who have limited vision they generally due to their reservation take this subject just for amusement, repeatedly have to write that this is not the real aspect of tantra, tantra is something else mans is having something different meaning, madira has also, and same thing with maithun means actual the unity of shiv and shakti. Now the time has arrived to express the real meaning what is actually tantra stands for , what is panchmakar , what is the real actual use of that, as I have clearly mentioned that I am a tantraik like the same way I am saying that those what is panchamakar is having the same meaning there is no other meaning of the word, and applicable in the same way as it appears to us. Whether this is related to ashlil (related to adult) or shill (general perspective) is depends upon the person view. For tantra or master of tantra these are just a state neither ashlil or shalil just like for maharishi shukdev.
In the beginning I have said that its mine introduction that yes I am a tantric this is complete and incomplete too, since one who have practical vision this is complete introduction nothing more needed , but for the view of society this is incomplete since their definition Is limited, their vision is full of reservation , in the true way if it is said they are sensuous oriented, that s why I am saying to society that I am full of beautify, I am handsome, I am full of compassion, I am be of faith, I am having the power to create, I am be of shivmay, I am shaktimay, and this definition does not end here so again I have to say that I am a tantrik.
Tantra is the beauty of life , tantra is a darp (aspect to accomplish), tantra is not related to lower aspect of bhog ,neither absorbs in bhog or maithun, theses are the aspect related to complete person, here complete word relates to or provide the vision of a person who is stronger, and that have the heart of a woman, having power to creation and having desire to care, full of compassion, having faith, having radiance ,. Like ardhnarishwar (special form of bhagvaan shiv that have half part of shakti and half part of shiv), having compassion of shiv and caring capacity of mother divine. his one eye has the fire of anger and other eyes full of love/sneh. Those one who have power to destroy and having capacity to create, this type of person creates the life. theses person has the gurutav, this type of person positives can achieve .
In true sense if we see, found that we and you all are tantric only the difference is the type of tantra marg used and yantra used, one technician take his instrument and make a house, one blacksmith take his instrument and prepare a structure, same way one artist through his brush make a beautiful portrait and a writer write a a poem through his pen, like that every one is fully absorbs in creating something. So every one is drink a madya (wine). And fully absorbs in completing his task. Every one has mans means mam ansh (mine own part), every one like the matsya (fish) deeply absorbs in his sea of work. And be in a joyous state that can be said a maithun what more suitable word for that., every man has a woman in it and same way every woman has a main in that, and both are trying to meet each other, and tantra also speak the same, but that can be surround by instead of reservation to one sided pre defines baseless view. What this can be stands for just deep hidden vasna and desire of searching something.. tantra is an explosion of energy., and a moment of creation, the highest point of this explosion can be best understand or define by the moment of physical unity of between man and woman , one who is a true tantric , does not require any woman()female) body, he himself becomes the raj may and achieve the desired state ,and the woman herself become virymay and reaches the height of expert of tantra. but to define the philosophy in this way , for general masses maithun becomes the centre of attraction , most debatable point. In the ancient there was no reservation about this but have a very healthy thought, but what is offered in the name of tantra to modern times, is half backed and incomplete one. What is a person true nature ,generally represent through his thought, that s why so called knowledge, artists shows tantra means maithun in their writings.
Tantra , the root/basic nature of a person clearly explain and show the remedy of that. tantra is not a very light subject, and it is not only limited meaning, tantra is not so easy and a talk able subject amongst common man., but in modern times it is necessary to again analysis the value of tantra and side by side the true bhav bhumi (feeling behind that) so that a true healthy atmosphere about tantra again can be created newer chetna (outlook with knowledge).again born/spread.
Through many andolan (marches) , publicity and through politics so many trial have been done, now why not give a chance to tantra to again organized a society, why not use this tantra instrument to again flourish ,each person life with completeness in full senses. Since tantra is the only way in life which does not discard anything’s on the just bases of ashlil or reject anything. This never condemn the bhog. But advocates a simple acceptable , healthy outlook towards openness, and in place of any ill mentality advocates the creation of positive healthy mentality, since tyag is difficult and earned through much pain and person root nature is against to bhog. Tantra is not a synonyms of bhog but proceed a person on the path of bhog with healthy way, with healthy thinking and slowly move him on the direction where a naturally he find that he has no interest/ inclination to bhog. Using panchmakar in the strict direction to his guru than person quickly relies that this happiness stands no where the anand of param happiness, if this generosity consider wrong than what is the wrong of the tantra .s this can be easily understand by a common person
That why I am saying that panchmakar in tantra has not the same way as in for bhogi so same way for yogis. since yogis has different chetna and bhav bhumi., and if any one not able to have those bhav bhumi tantra not closes the door for them but open a another way commonly known as Dakshin marg of tantra.
If the final aim /manjil is very clearer to us than its very clear that no chetna no gyan stands in front of tantra, since tantra is the science of creation. Merely soulless updesh and golden way of reaching nowhere, tantra is the very clear straight way. This is another things is that this way is little bit rough and there is a danger that person get hurt on every steps, but this road doesn’t end on a desert sea but on this road end a complete sense of satisfaction waits for us. a sea full of shaktimayta, and a complete process of fully absorbs in mother nature, and those one who fully be with one to mother nature actually become a part of mother divine jagdamba, than how can he be low class mentally having, that why a sea of compassion always flows in the heart of a true tantric. Like a woman having the power of creation , and the same time have the mamat / vatsalymay towards his sons the same feeling the same way of seeing the same chetna a true tantric has. And who is ability to create new circumstances he himself become most compassionate, this is the joy of tantra, this is the height of tantra and I am standing on this bhav bhumi saying that yes I am a tantric.
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